2.11.19

अभ्यास और वैराग्य - २२

ध्यान धारणा से आगे की स्थिति है। जिस स्थान पर धारणा लगायी, उस स्थान पर प्रत्यय (ज्ञानवृत्ति) की एकतानता ध्यान है। विषय कुछ भी हो सकता है। जहाँ विभूतियों या सिद्धियों की चर्चा की गयी है, वहाँ पर स्थूल से लेकर सूक्ष्म विषय लिये गये हैं। प्रश्न उठ सकता है कि कौन सा विषय लेना है और कब लेना है? या कहें कि हम योग में कितना बढ़ पाये हैं यह कौन निर्धारित करेगा? क्या कोई अन्तःस्थल की यात्रा में हमारा मार्गदर्शन करेगा?

यद्यपि सिद्धियाँ अपने आप में योगसाधना का फल हैं, पर पतंजलि उन पर रुकने और भोग करने के बारे में आगाह करते हैं। अन्तिम उद्देश्य सारी चित्त वृत्तियों का निरोध है। जब तक वहाँ नहीं पहुँचा जाता है, कहीं पर भी रुक जाना बाधा हो सकता है। सिद्धियों का उपयोग तब दो बातों के लिये किया जाता है। पहला सामर्थ्य और अभ्यास के रूप में जो हमें आगे बढ़ने को प्रेरित करती है और सहायक भी है। दूसरा यह एक चिन्ह भी है कि हमारी साधना अब कहाँ तक पहुँची है? योग के बारे में व्यास ने दो तथ्य स्पष्ट कर दिये हैं। पहला है, योगेन योगो ज्ञातव्यो योगो योगात्प्रवर्तते। यह बहुत ही प्रभावशाली वक्तव्य है। योग के द्वारा योग को जाना जाता है, योग से ही योग बढ़ता है। दूसरा तथ्य यह कि योग के प्रति जो अप्रमत्त है वही योग में अधिक रमता है। जो भटकता नहीं है, मदमत नहीं होता है, वही देर तक योग में रहता है। आगे कहाँ जाना है, योग ही स्वयं आपको बता देगा, सहज ही ज्ञान हो जायेगा। एक बिन्दु तक पहुँचने के बाद योग ही आपका पथप्रदर्शक भी है और योग ही पथरक्षक भी।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्॥३.२॥ धारणा के विषय पर प्रत्यय (ज्ञानवृत्ति) और एकतानता ही ध्यान है। धारणा में प्रत्यक्ष रूप से चित्त का किसी विषय पर देश बंध किया था, ध्यान में उस विषय पर ज्ञानवृत्ति की एकतानता होती है। उस पर चिन्तन, उसी प्रकार के विचारों द्वारा, सदृश प्रवाह। वृत्ति के रूप में जहाँ धारणा में प्रत्यक्ष था, ध्यान में स्मृति प्रधान हो जाती है। विषय के गुण, धर्म आदि के बारे में वृत्तियाँ बनती रहती हैं, अन्य किसी विषय से अपरामृष्ट, अछूती। उस समय मात्र तीन रहते हैं, ध्येय, ध्याता और ध्यान। ध्याता के ध्यान में ध्येय की कल्पना की जाती है, स्मृति का सहारा लिया जाता है, उपस्थित ज्ञान को प्रयुक्त किया जाता है, उस पर ही रमा जाता है। ध्यान करने के लिये स्थानविशेष की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 

ध्यान की प्रक्रिया का उद्देश्य क्या है? ज्ञान, एकाग्रता, एकतानता? एक विषय पर ही जो जानते हैं, ध्यान करने से वह ज्ञान बढ़े न बढ़े पर ज्ञान स्पष्ट अवश्य हो जायेगा। उसके साथ उपस्थित अन्य ज्ञान छट जाने से वह पैना अवश्य हो जायेगा। अन्य वृत्तियों को न आने देने से एकाग्रता बढ़ेगी और एकतानता होने से उसी विषय से संबंधित और वृत्तियाँ उपजेंगी। जो प्रत्यय इस प्रकार होगा, वह प्रभाषित व पूर्ण होगा। जो ज्ञान होगा उससे वह विषय प्रकाशित होगा, स्पष्ट दिखेगा। कहते हैं कि किसी भी विषय के बारे में दृश्य का निर्माण चित्त में ही होता है। हम आँखों से देखते अवश्य हैं, पर चित्र चित्त में ही बनता है। गंध, रस, स्पर्श, शब्द आदि सब के सब चित्त में ही संग्रहित और प्रकट होते हैं। नींबू देखकर स्वयं ही लार कैसे निकल आती है? रूप का विषय तो रस से सर्वथा भिन्न है तो दोनों में संबंध कैसा? यह चित्त के द्वारा ही होता है। समाधि के वर्णन में इस तथ्य को तनिक और समझेंगे। 

योग से हमारी सामर्थ्य बढ़ती है। पर यह सामर्थ्य कितनी बढ़ती है, यह कैसे ज्ञात होगा? योगी सामान्य रूप से अपनी सिद्धियों के बारे में बताता नहीं है, पर कहीं न कहीं से इस बारे ज्ञात हो ही जाता है। इस प्रकरण को हमें शब्द प्रमाण के रूप में लेना होता है, स्वयं के द्वारा सिद्ध करने तक, तब यह प्रत्यक्ष हो जाता है। सत्यार्थ प्रकाश में कहा गया है, जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है, उतना ही बढ़ता है। कहने का तात्पर्य है कि अनुचित नहीं बढ़ता है, मुक्ति प्राप्ति के लिये जितना आवश्यक है। पतंजलि इसे विघ्न भी मानते हैं। यहाँ पर जो रुक जाता है और उसका उपभोग या दुरुपयोग करने लगता है, वह पतित हो जाता है, तो एक सीमा के पार वैसे भी जा नहीं पाता है। जो इसे बस साधन मात्र मानते हैं और समाधि ही जिनका अन्तिम आश्रय है, वे इस पर रुकते ही नहीं हैं, उनके लिये भी इसकी सीमा लाँघने का भी प्रश्न ही नहीं है। मुक्ति के लिये जितनी सामर्थ्य आवश्यक है, उससे अधिक पाने की आवश्यकता ही नहीं।

सांख्य दर्शन में कहा गया है, ध्यानम् निर्विषयम् मनः, ध्यान मन का निर्विषय होना है। एकतानता होने पर विषय एक ही रहेगा, अन्य नहीं। एक विषय ही होगा, क्योंकि कम से कम एक तो रहेगा ही। दूसरी व्याख्या यह हो सकती है कि सांख्य के संदर्भ में ध्यान को अन्तिम स्थिति मानी है, उसमें समाधि से संग लिया है। सांख्य में ही कहा गया है, रागोः उपहत ध्यानम्, राग का उपहत होना ध्यान है। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि कम से कम एक घंटा ध्यान में बैठे। ध्यान और उपासना में अन्तर है, उपासना ईश्वर का ध्यान है। यदि कोई आत्म का ध्यान करता है तो वह उपासना नहीं होगी यद्यपि एकाग्रता और एकतानता दोनों में ही रहेगी। मनु कहते हैं, ध्यानयोगेन सम्पश्येत गतिम् अस्यांतरात्मा - ध्यान के द्वारा अन्तरात्मा की गति को देखें। अन्तरात्मा या परमात्मा, दोनों ही हो सकता है, एक में ध्यान, दूसरे में उपासना।

एकाग्रता तो प्राणायाम से ही प्रारम्भ हो जाती है। प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि में कालखण्ड का निर्धारण किया गया है, गणितीय ढंग से, कि कम से कम कितनी देर उसे करना चाहिये। निमेष-उन्मेष (पलक झपकाने) को एक मात्रा कहते हैं, इसका कालखण्ड लगभग ८/४५ सेकण्ड का होता है। पूरक(श्वास लेना), कुम्भक(श्वास रोकना) और रेचक(श्वास छोड़ना) में १,४ और २ का अनुपात होता है। १६ मात्रा पूरक, ६४ मात्रा कुम्भक और ३२ मात्रा रेचक, कुल लगभग २० सेकण्ड। २० सेकण्ड का एक प्राणायामकाल, १२ प्राणायामकाल का एक धारणाकाल, १२ धारणाकाल का एक ध्यानकाल और १२ ध्यानकाल का एक समाधिकाल। इसे यदि मिनटों में बदलें तो ४ मिनट का धारणाकाल, ४८ मिनट का ध्यानकाल औऱ ९.६ घंटे का समाधिकाल। यह न्यूनतम है।

अब ध्यान अंधकार में करें कि प्रकाश में? ध्यान भंग न हो, इसलिये अंधकार का सहारा ले सकते हैं। क्या अंधकार को विषय बनाकर ध्यान किया जा सकता है? उत्तर नकारात्मक है। ध्यान में वस्तु के गुण धर्म के बारे में चिन्तन होता है। शून्य पर, अंधकार पर ध्यान करना या कुछ भी विचार नहीं करना ध्यान नहीं है, कम से कम योगदर्शन का ध्यान नहीं है। यह एक सकारात्मक प्रक्रिया है। स्थूल और सूक्ष्म विषयों के अतिरिक्त भावनात्मक विषयों में भी संयम लगता है। विभूतियों के वर्णन में देखेगे कि चार भावनायें, मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा में भी पहले तीन में ही संयम लगता है। उपेक्षा में संयम नहीं लगता है, वह तम है, अंधकार है, अभाव है। ध्यान का निष्कर्ष प्रत्यय है और जिस पर ज्ञान नहीं, जिससे ध्यान के निष्कर्ष न निकलें, वह भला कैसा ध्यान? समाधि में अर्थ पाने के लिये ध्यान में सकारात्मकता आवश्यक है।

अगले ब्लाग में समाधि।

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