बहिरंग अंतरंग का आधार है। प्रत्याहार बहिरंग की परिधि है। यह मन की सामान्य स्थिति हो जाती है, जहाँ पर भी मन गया, वहाँ से लौट कर वापस आ जाता है। देखा जाये तो एकाग्रता की स्थिति प्राणायाम से ही प्रारम्भ हो जाती है। यम, नियम व आसन के माध्यम से शरीर में और प्राणायाम व प्रत्याहार के माध्यम से मन में एक लयता सी आने लगती है। धारणा, ध्यान और समाधि किस तरह से एक दूसरे से भिन्न हैं और किस तरह से एक है?
धारणा, ध्यान और समाधि को संयम के नाम से भी जाना जाता है। यह एक पारिभाषिक शब्द है और इसका लौकिक शब्द संयम से संबंध नहीं है। प्रारम्भ की स्थिति में धारणा की मात्रा अधिक रहती है, पर अभ्यास होते होते, धारणा से चलकर ध्यान की स्थिति आती है और कब ध्यान से समाधिस्थ हो जाते हैं, यह ज्ञात नहीं रहता है।
देश में बंध होना ही चित्त की धारणा है। चित्त को एक स्थान (देश) पर स्थिर करने का स्थूल साधन है धारणा। शरीर का कोई भी स्थान लिया जा सकता है। नाभिचक्र, हृदयपुंडरीक, मूर्द्धज्योति, नासिकाग्र, जिह्वाग्र आदि देश पर चित्त का बंध होना या वाह्य विषय में चित्त का वृत्तिमात्र के द्वारा बंध होना। बाहर के शब्दादि या मूर्तिादि वाह्य देश हैं। जहाँ पर चित्त बन्ध है, बस उसी की वृत्ति और प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियसमूहों का अपने विषय न ग्रहण करना। प्रत्याहारमूलक धारणा ही समाधि की अंगभूत धारणा है। यह प्राणायाम के समय की साँसों पर की गयी एकाग्रता से भिन्न भी है और परिष्कृत भी।
धारणाओं में षटचक्र, ज्योति, मूर्ति या नाद की धारणायें प्रमुख हैं। चित्त उसी पर स्थापित कर दिया जाता है और जैसे ही चित्त की कहीं और वृत्ति होती है, चित्त स्वयं को पुनः वहीं स्थिर कर देता है। प्रारम्भ में यह यह अत्यन्त न्यून अन्तराल में टूटता है, पर धीरे धीरे अभ्यास से धारणा का समय बढ़ाया जा सकता है। किसी दिये की जलती लौ पर धारणा की जा सकती है, अर्चविग्रह पर की जा सकती है, ओंकार पर की जा सकती है, किसी मन्त्र पर की जा सकती है। उद्देश्य एक ही है कि चित्त को बारम्बार वहीं पर ले आना, कहीं भी भटके, सप्रयास वहीं पर ले आना।
शरीर के अंगों पर धारणा करने से एक संवेदना की अनुभूति होती है। यह अनुभूति परिचायक है कि धारणा कार्यशील है। कभी हृदयस्थल पर करने से हृदयगति बढ़ने लगे और असहज सा लगे तो उसे वहीं छोड़ देना चाहिये, कहीं और धारणा लगानी चाहिये। यदि नहीं समझ आये कि कहाँ करना उचित होगा तो परीक्षण कर लें, जहाँ एकाग्रता सिद्ध हो, वहीं पर धारणा का अभ्यास प्रारम्भ कर दें। त्राटक क्रिया धारणा ही है, मैंने स्वयं एक साधक को त्राटक के द्वारा चम्मच को टेढ़ा करते देखा है। योग के विषय में यह चमत्कार उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, धारणा का प्रयोजन ध्यान को साधना है, पर एकाग्रता और स्वास्थ्य की दृष्टि से धारणा फिर भी फलमयी है। धारणा प्रत्यक्ष करनी होती है, इसमें चिन्तन नहीं होता है, ज्ञानात्मकता का इसमें अभाव रहना चाहिये, आँख बन्द कर चिन्तन नहीं करना है इसमें। शरीर के जिस अंग पर धारणा कर रहे हैं, उस पर संवेदना बनी रहनी चाहिये। चिन्तन प्रारम्भ होते ही वह ध्यान का प्रारम्भ हो जाता है। धारणा तो बस एक ही वृत्ति है, बार बार, उसी देश पर, एक बिन्दु पर, स्थिर सी, पुनरपि, सतत, यथासंभव।
जहाँ एक ओर ज्योति, षटचक्र, मूर्ति आदि एक बिन्दु या देश में स्थित हैं, नाद एक देश में स्थित हुआ नहीं लगता है। तो चित्त कहाँ धारण करें? चिंनाद, शंखनाद, घंटानाद आदि नाद केन्द्रित होते होते शरीर में किसी एक बिन्दु विशेष में गूँजते हैं। वही बिन्दु देश बंध हो जाता है।
धारणा के विषय में पूरा चक्र सिद्धान्त प्रचलित है। साधक अनुभव से बतलाते हैं कि भिन्न चक्रों पर धारणा करने से शरीर पर भिन्न प्रभाव पड़ता है, विशेष भाव उमड़ते हैं। कहते हैं कि यथासंभव अपने स्वभाव के अनुसार ऊपर के चक्रों पर धारणा करें, नीचे के चक्रों पर धारणा करने से लोभ, मोह आदि के रूप में छिपे संस्कार भड़क सकते हैं। मूलाधार से प्रारम्भ कर सुषुम्ना तक कुंडलिनी नामक धारा की धारणा से एक एक चक्र ऊपर उठना होता है। आश्चर्य ही है कि वृत्तिमात्र से चित्त स्थिर करने भर से शारीरिक और मानसिक परिवर्तन प्रस्फुटित होने लगते हैं। एक एक भाव से ऊपर उठते हुये चित्त की ऊपरी स्थिति पर पहुँचने का विज्ञान है यह।
धारणा चित्त का वृत्तिमात्र के द्वारा बन्ध है, बार बार वृत्ति उसी पर हो, चित्त वहीं पर लगे। धारणा को विस्तृत रूप से और पृथक रूप से समझना इसलिये आवश्यक है क्योंकि बहुधा इसे ध्यान और समाधि से अन्तर्मिश्रित करके जोड़ा जाता है और सबको ही ध्यान कह दिया जाता है। यह प्रक्रिया सिद्ध होना ध्यान में उतरने में अत्यन्त सहायक है। प्रक्रिया के रूप में, प्रभाव के रूप में और क्रमिक विकास के रूप में धारणा, ध्यान और समाधि भिन्न हैं, उन्हें यथास्थान व्याख्यायित किया जायेगा।
अगले ब्लाग में ध्यान की चर्चा।
nice
ReplyDelete