यम सामाजिक स्थैर्य पोषित करता है, स्वस्थ समाज विकास का आधार है, सुदृढ़ अवयव शरीर को पुष्ट करते हैं। अध्यात्म उत्तरदायित्व से भागने का नाम नहीं है, प्रयत्नशीलता आवश्यक है योग के हर अंग-उपांग को साधने के लिये। उद्योग करना होता है, सही दृष्टि के साथ, सही ज्ञान के साथ। साथ ही आवश्यक है धैर्य और उत्साह। उत्साह इतना कि जैसे ध्येय अगले क्षण ही मिल जाने वाला हो और धैर्य इतना कि अनन्तकाल तक न भी मिले फिर भी उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं हो। बस विश्वास रखें कि विधान अपना कार्य न्यायपूर्वक ही करेगा।
सत्य और अहिंसा के बाद अगला उपांग है, अस्तेय। स्तेय है, अशास्त्रपूर्वकम् द्रव्याणां परतः, अशास्त्रपूर्वक कोई द्रव्य लेना। स्तेय का निषेध और उसकी स्पृहा न करना अस्तेय है। अस्तेय का प्रचलित अर्थ चोरी है और वह अत्यन्त सरलीकृत और सीमित अर्थ है। अस्तेय का स्वरूप उससे कहीं अधिक व्यापक और गहरा है। शास्त्र को सामाजिक और धार्मिक अर्थों में समझना होगा। शास् धातु से शास्त्र शब्द निकला है, अर्थ है शिक्षा देना, शासन करना, आज्ञा देना, निर्देश देना, दण्ड देना, सलाह देना। जिन नियमों से हमारी सामाजिक और आध्यात्मिक व्यवस्था निर्धारित होती है, वे हमारे लिये शास्त्र हैं।
शास्त्रसम्मत अधिकार को परिभाषित करने के लिये ईशावास्योपनिषद का प्रथम श्लोक समझना होगा। जब यह श्लोक पहली बार पढ़ा था, त्याग और भोग को एक साथ पढ़कर आश्चर्यचकित हो गया, मंत्रमुग्ध हो गया था भारतीय विचारसंतुलन पर। चलिये समझते हैं।
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥(इस संसार में जो कुछ है, वह ईश्वर से व्याप्त है, वह ईश्वर का है, उसका त्यागपूर्वक भोग करो, लालच मत करो, यह धन किसका है।) जब कुछ अपना है ही नहीं, तो उस पर अधिकार कैसा, लगाव कैसा, स्पृहा कैसी?
अब जब यह निश्चित हो गया कि धन किसका है और उसका त्यागपूर्वक भोग करना है, प्रश्न यह उठता है कि उसको प्राप्त कैसे करें? गीता(३.१२) इसका निराकरण कर देती है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।(यज्ञ करने से देवता तुम्हें वांछित भोग देंगे, प्रदत्त भोग बिना उन्हें चढ़ाये भोग करने वाला निश्चय ही चोर है।) यज्ञ प्राप्य हेतु किये गये समुचित उद्योगकर्म को कहते हैं। कालान्तर में यज्ञ का अर्थ हवन तक ही सीमित रह गया है। यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं, देवपूजा, दान, संगतिकरण। संगतिकरण का अर्थ है संगठन। अतः यज्ञ का तात्पर्य है, त्याग, बलिदान, शुभ कर्म। परमात्मा के लिये किया कोई भी कर्म यज्ञ है। बिना कर्म के कुछ प्राप्त करना और जिससे प्राप्त किया है उसको धन्यवाद न देना चोरी ही है।
किसी और का धन या द्रव्य लेना तो निश्चय ही अपराध की श्रेणी में आयेगा। अधिकार के साथ कर्तव्य मूलभूत रूप से जुड़े हुये हैं। बिना कुछ किये कुछ अर्जित करने की इच्छा ही करना स्तेय होगा, हस्तगत करना एक अपराध। जो नहीं हैं, उस रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर स्वार्थ सिद्ध करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक संसाधनों का उपयोग करना स्तेय है क्योंकि हमारा अधिकार हमारी आवश्यकता तक ही सीमित है। अन्न या जल व्यर्थ करना स्तेय है। आवश्यकता से अधिक खरीद कर रखना और कालान्तर में व्यर्थ कर देना स्तेय है।
अधिकारी न होकर भी सुविधाओं का अनुचित उपयोग स्तेय है। हड़पने की बात तो दूर, सरकारी धन का दुरुपयोग तक स्तेय है क्योंकि आपका अधिकार या दायित्व उसके सदुपयोग का था, सर्वजनहिताय का था। कोई वचन देकर, आश्वासन देकर मुकर जाना या भूल जाना स्तेय है। किसी पद पर पहुँचने का भाव, कुछ बन जाने का भाव, बिना किसी योग्यता के, बिना समुचित कर्तव्य के। परिवारवाद, भाईभतीजावाद, चाटुकारितावाद से प्रभावित अन्य का अधिकार हड़प लेना भी स्तेय है। वह व्यक्ति आहत होता है जो उसका अधिकारी था।
प्रकृति, समाज और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव हमें संयमित रखता है, कम से कम यह याद दिलाता रहता है कि हर वस्तु के लिये हम किसी न किसी के प्रति कृतज्ञ अवश्य रहें। इससे अधिकार का भाव क्षीण होता है, यदि वह भाव आये भी तो कम से कम कर्तव्यों के पूर्ण और सम्यक निर्वहन के बाद आये। अपने आप को अधिकारी मान बैठना, दूसरे से श्रेष्ठ मान लेना, प्रतियोगी मानसिकता में दग्ध रहना, ये सब स्तेय को बढ़ावा देते हैं। विनम्रता से अधिक सहायक कोई गुण नहीं है यदि अस्तेय को परिपोषित करना है। अपने को अधिकारी न मानने का भाव, सबकी सेवा में प्रस्तुत रहने का भाव लाना होगा। मुझे चैतन्य महाप्रभु के शब्द झंकृत कर जाते हैं, जब वह कहते हैं, तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना, अमानिना मानदेन, कीर्तनया सदा हरिः। अद्बुत विनम्रता का भाव है यह।
कुछ लोग स्तेय को दान आदि से ढकने का उपक्रम करते हैं। चोरी का धन दान देना, यह दान नहीं माना जायेगा क्योंकि वह धन उसका तो था ही नहीं। यह करणीय कर्मों में नहीं माना जायेगा। इससे अच्छा होगा कि न चोरी करें, भले ही दान न दे पायें। अच्छा तो होगा कि ऐसा दान न लिया जाये, पर वह धन यदि समाज के कार्यों में लग सके तो विचार हो सकता है, बस यह मानकर कि धन के साथ अधर्म लिपटकर नहीं आ रहा है। सबका अपना अलग कर्माशय हैं, पाप और पुण्य पृथक पृथक प्रभावित करते हैं।
पतंजलि कहते हैं कि अस्तेय की सिद्धि पर रत्न स्वयं उपस्थित हो जाते हैं।(२.३७)
अगले ब्लाग में ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
nice post hai akele rahne ke ye fayde
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