सत्य के संदर्भों से शास्त्र भरे पड़े हैं। संभवतः इसलिये क्योंकि इस पर नियमन किये बिना जगत का ताना बाना सम्हाल पाना अत्यधिक कठिन है। सत्य बोलने की प्रवृत्ति विश्वास उत्पन्न करती है, बिना विश्वास समाज की संरचना ढह जायेगी। सत्यनिष्ठा बनी रहेगी तो संबंध सहेजे जाते रहेंगे। सामाजिक संदर्भों में सत्य से बलवती और कोई अभिव्यक्ति नहीं है।
धर्मशास्त्रों के प्रणेताओं ने यह तथ्य भलीभाँति समझा है। मनु, व्यास, चाणक्य आदि ने सत्य को यथासंभव संशयमुक्त किया है, स्पष्टीकरण देकर। सत्य के अनुप्रयोग में इन सूक्ष्मताओं को नहीं समझा जाये तो हित के स्थान पर अहित हो जायेगा, साधने के स्थान पर अस्थिरता आ जायेगी। सत्य प्रेरित स्थिरता सदैव ही यह आशा बनाये रखती है कि वर्तमान स्थिति कैसी भी हो, उत्थान होगा ही। जब सत्य अपनी पकड़ खो देता है, सारी आशायें अंधकार में प्लावित हो जाती हैं। आइये सत्य की शास्त्रीय थाह लेते हैं।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् , न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् , एष धर्मः सनातन: (प्रिय सत्य बोलना चाहिये, अप्रिय सत्य या प्रिय असत्य नहीं बोलना चाहिये, यही सनातन धर्म है)। मनुरचित सर्वाधिक प्रचलित श्लोक सत्य को प्रिय-अप्रिय की विमा से जोड़ता है। अप्रियता कष्टकारी है, किञ्चित हिंसात्मक भी। एक सीमा तक स्पष्टवादिता स्वीकार्य होती है, सुधारात्मक हो, अस्तित्व को झिंझोड़े, पर आहत न करे। परिहास करना भी असत्य तब तक नहीं है जब तक वह किसी को आहत न करे, कम से कम सामने वाले के समझने तक। प्रशंसा यदि प्रेरणात्मक हो तो वह प्रिय असत्य भी स्वीकार्य है। प्रशंसा यदि स्वार्थ साधे तो वह ठगने वाली हो जाती है, चाटुकारिता हो जाती है, वह असत्य भी है।
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः, वृद्धाः न ते ये न वदन्ति धर्मम् ।धर्मो न वै यत्र च नास्ति सत्यम्, सत्यं न तद्यच्छलनानुविद्धम्। (वह सभा नहीं जहाँ वृद्ध न हो, वह वृद्ध नहीं जो धर्म की बात न करे, वह धर्म नहीं जो सत्य न कहे, वह सत्य नहीं जिसमें छल हो)। महाभारत के उद्योगपर्व का यह श्लोक सामूहिक निर्णय प्रक्रिया की नींव रखता है। भीष्म और द्रोण सम महारथियों का दुर्योधन की सभा में चुप रहने के ऊपर यह तीक्ष्णतम प्रहार है।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते। (उद्वेग न पैदा करनेवाला, प्रिय और हितकारक सत्यभाषण तथा स्वाध्याय व अभ्यास वाणी का तप कहा जाता है)। यह गीता में कहा गया है। सत्य उपद्रव न पैदा करे, प्रिय और हितकारक हो। सत्य का दम्भ भरने वाले बहुधा स्थिति बिगाड़ते ही हैं। जो सत्य का वास्तविक स्वरूप समझते हैं, वह सत्य को संवेदनात्मकता से व्यक्त करते हैं, सौम्यतापूर्वक, अन्यथा मौन ही रह जाते हैं।
मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्। मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्॥ (महात्माओं के मन, वचन और कर्म में समानता पाई जाती है पर दुष्ट व्यक्ति सोचते कुछ और हैं, बोलते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं॥) यद्यपि मन और वाणी में एकरूपता सत्य को परिभाषित करती है, कर्म की एकरूपता उसे महात्मा बना देती है।
नास्ति सत्यात् परं तपः, सत्यं स्वर्गस्य साधनम्, सत्येन धार्यते लोकः।(सत्य से परमं कोई तप नहीं है, सत्य स्वर्ग का साधन है, सत्य से लोक का धारण होता है)। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में सत्य को स्पष्टता से वर्णित किया है।
युधिष्ठिर का सत्य मन से नहीं था क्योंकि वह जानते थे कि द्रोणाचार्य यदि अश्वथामा के बारे में पूँछ रहे थे तो वह उनका पुत्र ही होगा और यह तथ्य युधिष्ठिर जानते थे। मनसा यह असत्य है।
सत्य धर्म के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कहते हैं कि सत्य से धर्म उत्पन्न होता है, दया और दान से धर्म बढ़ता है। क्षमा करने से धर्म स्थिर रहता है और क्रोध करने से नष्ट हो जाता है। मनु ने झूठ बोलने वाले को चोर की तरह माना है, वह अपनी आत्मा का हनन करने वाला चोर है। कहते हैं कि जिनका सत्य सिद्ध हो जाता है, वह कुछ भी कह दें, वह सत्य हो जाता है। पतंजलि सत्य की सिद्धि बताते हैं। सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्(२.३६) (जो वरदान शाप या आशीर्वाद दे, वह सत्य हो जाये या उसे आश्रय मिल जाये)
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सत्य को परिभाषित करता हुआ गहन एवं गूढ़ आलेख
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