एक प्रश्न उठ सकता है कि योग के आठ अंगों में क्या कोई क्रम है, जिसका पालन करना आवश्यक हो? इसी प्रकार क्या दस यम और नियमों में भी कोई क्रम रखा जाना चाहिये? विश्लेषण के लिये अष्टांगों को तीन उपसमूह में व्यवस्थित किया जा सकता है। प्रथम यम और नियम, द्वितीय आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार और तृतीय धारणा, ध्यान और समाधि। तीनों उपसमूह स्वतन्त्र स्तरों पर अभ्यास किये जा सकते हैं। प्रथम का यथासंभव पालन, द्वितीय का नियमित अभ्यास और तृतीय का किंचित प्रयास। बस तृतीय में क्रम तो है पर स्पष्ट रूप से पृथकता नहीं है, धारणा में ध्यान या ध्यान में समाधि कब आ जाती है, पता नहीं चलता है।
प्रारम्भ तो तीनों स्तरों पर करना ही होगा। यदि हम प्रतीक्षा करते रहें कि जब पहला सिद्ध होगा तब ही दूसरा करेंगे और बिना दूसरे के तीसरे के बारे में सोचना ही नहीं है, तब संभवतः हम कभी प्रारम्भ ही न कर पायें। ऐसा भी नहीं है कि हम आसन और प्राणायम से तन और मन पुष्ट करते रहे और यमों और नियमों का निशंक उल्लंघन करते रहें। इससे कोई लाभ नहीं होगा। तीनों एक साथ प्रारम्भ करने होंगे, कालान्तर में ये तीनों एक दूसरे को पुष्ट करते हुये सिद्ध होते जायेंगे।
यम में पहला उपांग है अहिंसा। सब अंगों में यह प्रथम है, प्रधान है, कठिन है और इसे जीवनपर्यन्त सिद्ध करते रहना होता है। पारिभाषिक और प्रायोगिक स्तर पर अहिंसा को समझने में बहुधा भ्रम की स्थिति हो जाती है। यह विशेष तथ्य अहिंसा को और भी गूढ़ बना देता है। गीता इस विषय में एक ओर संशय उत्पन्न करती है तो निदान भी करती है। संशय यह कि यदि अहिंसा प्रथम सोपान है तो युद्ध क्यों और हिंसा क्यों? निदान यह कि कृष्ण स्वयं यह कहते हैं कि ‘सुख दुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ, ततो युद्धाय युजस्व नैवं पापमवाप्यसि। तात्पर्य यह कि हिंसा करने से पाप तो लगता है पर योग की स्थिति में रह कर युद्ध करोगे तो पाप नहीं लगेगा, समेकृत्वा की स्थिति में रह कर युद्ध।
गीता के अतिरिक्त महाभारत जैसे युद्धकाव्य में अन्य स्थानों पर भी अहिंसा को सर्वाधिक वांछित गुण बताया गया है। प्रथमदृष्टया यह विरोधाभास लग सकता है पर व्यास के द्वारा योगसूत्र के भाष्य से निष्कर्ष व्यवस्थित हो जायेंगे।
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः
(अहिंसा परम धर्म है, वही परम आत्मसंयम है, वही परम दान है, और वही परम तप है।)
अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम्
(अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा ही परम फल है, वह परम मित्र है, और वही परम सुख है)
योगसूत्र(२.३०) में तो पतंजलि ने अहिंसा को एक यम बतला दिया पर उन्होंने अहिंसा की कोई परिभाषा नहीं दी है। पर उसी सूत्र के व्यासभाष्य में अहिंसा को परिभाषित किया गया है। बहुधा यह माना जाता है कि किसी को दुख देना हिंसा है, पर ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो चोर को पकड़ना, शत्रु से अपनी रक्षा करना, आततायियों से जनसामान्य को बचाना, यह सब हिंसा के श्रेणी में आ जायेगा। सारे आराध्य, राम, कृष्ण, शिव, हनुमान योग के प्रथम उपांग के उल्लंघन में लिप्त पाये जायेंगे।
व्यास की परिभाषा इस प्रकार है। पूरी तरह से, मनसा वाचा और कर्मणा, हर समय, हर परिस्थतियों में, सबके प्रति अनभिद्रोह का भाव अहिसा है। अनभिद्रोह अर्थात अभिद्रोह न होना। अभिद्रोह - चारों ओर से द्रोह। द्रोह द्रुह धातु से बना है जिसका अर्थ है, घृणा करना, हानि पहुँचाने का अवसर देखना, षड़यन्त्र करना, उपद्रव करना। परदोषदर्शन भी द्रोह है, हिंसा है। इसलिये अहिंसा को केवल दूसरों को दुख न देने की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। अहिंसा का भाव कर्ता के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा, न कि सामने वाले के दृष्टिकोण से। आपने किसी के भले के लिये कुछ सलाह दी, सामने वाले को अच्छा नहीं लगा, तो क्या यह हिंसा हो जायेगी? बच्चों को हम सदैव दृढ़ता से समझाते हैं, उनके भले के लिये ही। यदि किसी दुष्ट ने सज्जन के प्रति दुर्व्यवहार किया और सज्जन ने उसे उदारमना हो सह लिया। इसमें यदि सज्जन को दुख नहीं हुआ तो क्या वह हिंसा नहीं होगी? यदि कोई दुकानदार बड़े प्यार से बात करके अपने ग्राहक छल कर रहा है, तो क्या ग्राहक को दुख नहीं होने के कारण यह हिंसा के श्रेणी में नहीं आयेगा?
अन्याय को बढ़ावा देना, विपरीत बातों को प्रश्रय देना, ये कालान्तर में समाज का अहित करते हैं, हिंसा बढ़ाते हैं। इनका प्रतिकार तो करना ही होगा। अपनी रक्षा का उपक्रम, अन्याय का प्रतिकार, परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय दुष्कृताम् ,इन सबको हिंसा की श्रेणी में नहीं लिया जा सकता है। पर प्रतिकार भी उचित मात्रा में होना चाहिये, सामने वाले को सुधारने के क्रम में। यदि प्रतिकार भी आवश्यकता से अधिक हो गया तो संभवतः वह भी हिंसा की श्रेणी में आ जाये। दूसरी ओर यदि हम अहिंसा को शाब्दिक अर्थों में ही लपेटे रहें, अन्याय होता देखें और मुँह मोड़कर चल दें तो वह भी हिंसा में हमारी सहभागिता होगी। ये दोनों ही अति उचित नहीं है।
इस आधार पर विवेचन कर जिस अहिंसा का पालन हम करते हैं वह अहिंसा आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अहिंसा को यमनियमादि का आधार बताया गया है। यम नियम अहिंसामूलक है। उनसे अहिंसा और परिशुद्ध होती है। अहिंसा की सिद्धि अन्त में होती है। और जब अहिंसा की सिद्धि होती है तो पतंजलि कहते हैं।
अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः(२.३५)(अहिंसा की दृढ़ स्थिति होने पर उस योगी के निकट सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।) कथाओं में पढ़ते हैं कि ऋषियों के आश्रमों में सारे मृगों में वैर का अभाव दिखता है। अद्भुत प्रभाव है अहिंसा का, व्यापक सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्थायित्व देती है अहिंसा।
अगले ब्लाग में सत्य की विवेचना और युधिष्ठिर का सत्य।
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