टीकाकारों का मत है कि पतंजलि योगसूत्र में तीन प्रकार के साधन बताये गये हैं। पहला अभ्यास और वैराग्य का, दूसरा क्रियायोग का और तीसरा अष्टांगयोग का। यद्यपि पतंजलि ने साधकों के आधार पर वर्गीकरण नहीं किया है पर तीनों साधनों का उल्लेख क्रमशः किया है, पहले अभ्यास व वैराग्य का(१.१२), फिर क्रियायोग का(२.१) और अन्ततः अष्टांग योग का (२.२९)। ये तीनों साधन क्रमशः विस्तृत होते जाते हैं। अभ्यास और वैराग्य के बाद के सूत्रों में केवल सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि का वर्णन है, पढ़ने से लगता है कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा समाधि की इन अवस्थाओं को उन्नत किया जाता है। अष्टांग योग के अन्तिम तीन अंगों को यहाँ लिया गया है, धारणा, ध्यान और समाधि को। क्रियायोग में तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान का समन्वय है। ये तीन अवयव अष्टांग योग में नियम अंग के ही उपांग हैं।
भाष्यकारों ने इन तीन साधनों को साधकों की क्षमताओं के अनुसार वर्गीकृत किया है। अभ्यास और वैराग्य उत्तम साधकों के लिये, क्रियायोग मध्यम साधकों के लिये और अष्टांगयोग नवसाधकों के लिये। अष्टांगयोग एक पूरा मार्ग बतलाता है, सबको समावेशित करता हुआ चलता है। यदि अपनी स्थिति या क्षमता के बारे में तनिक भी संदेह हो तो अष्टांग योग का ही मार्ग अपनायें। सभी साधकों का साध्य एक ही है पर क्षमतानुसार प्रारम्भिक बिन्दु भिन्न होने के कारण तीन अलग मार्ग उल्लिखित किये गये हैं।
गीता में इन मार्गों को कैसे समझाया गया है, इसके पहले एक तथ्य जानना आवश्यक है। अभ्यास और वैराग्य के वर्णन के पश्चात ही पतंजलि सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि के बारे में बतलाते हैं। किस प्रकार श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा से असम्प्रज्ञात योग होता है। प्रक्रिया की तीव्रता साधन की गति पर निर्भर करती है। इस सूत्र के पश्चात एक वैकल्पिक और त्वरित उपाय बताते हैं, ईश्वरप्राणिधान, ईश्वर की भक्ति या शरणागति। इससे विघ्नों का अभाव और स्वरूप का ज्ञान हो जाता है(१.२९)। पतंजलि ने ईश्वर के लक्षण परिभाषित किये है, पाठकों या आलोचकों की कल्पना के लिये कुछ भी नहीं छोड़ा है। विघ्न भी १४ बताये गये हैं, उनका वर्णन फिर कभी। पर तीनों ही मार्गों में ईश्वरप्राणिधान एक विशिष्ट स्थान रखता है। यह एक विशेष साधन है, मार्ग में कब और कैसे आता है, मार्ग विशेष पर निर्भर करता है।
ईश्वरप्रणिधान को समझने के क्रम में भारतीय संस्कृति के तीन विशेष तत्व उद्धाटित होते हैं। ये तत्व योगसूत्र में कहीं और नहीं कहे गये हैं। पहला गुरु का महत्व, दूसरा सत्संग का महत्व और तीसरा ईश्वर का अस्तित्व। हमारे शास्त्रों में इन तीनों को व्यापकता से प्रसारित और व्याख्यायित किया है। उस पर विचार करने के पहले ईश्वर के बारे में ५ सूत्रों का अर्थ समझ लेते हैं।
क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से असंबद्ध पुरुषविशेष ईश्वर है(१.२४)। उसका ज्ञान निरतिशय(जिससे बड़ा कुछ न हो) है(१.२५)। ईश्वर काल से अवच्छेद नहीं है और पूर्वजों का भी गुरु है(१.२६)। उसका वाचक या नाम प्रणव या ऊँ है(१.२७)। ऊँ कार का जप उसके स्वरूप का चिन्तन है(१.२८)।
जिस मार्ग पर हम चलना चाह रहे हैं, एक मार्गदर्शक ही हमारी सहायता कर सकता है। उसने पंथ देखा है, उसने औरों को भी वह पंथ पार कराया है। उसके अन्दर सामर्थ्य है हमारी आध्यात्मिक और भौतिक सहायता करने की। यदि हम योग के मार्ग पर ही अद्भुत सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं तो जो उस प्रक्रिया के शीर्ष पर विद्यमान है, उसकी सामर्थ्य तो अनन्त होगी। ईश्वर और हमारे बीच एक प्रक्रिया का सम्बन्ध भी है और उसी प्रक्रिया का अन्तर भी। प्रक्रिया में उन्मुख होने पर वह सहाय्य है, स्नेहिल है। प्रक्रिया से विमुख के प्रति असंबद्ध और उदासीन। प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य सृष्टिगत कार्यों में ईश्वर की क्या भूमिका है, इस पर पतंजलि विषयान्तर नहीं होते हैं। ईश्वर पर प्रारम्भिक विश्वास भले ही हमारी श्रद्धा का द्योतक हो, पर प्रक्रिया के मार्ग में वह विश्वास नित दृढ़ीभूत होता जाता है, यही प्रक्रिया की सिद्धि है।
गीता के परिप्रेक्ष्य से यदि इन तीनों मार्गों को पहचाने तो ये क्रमशः ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग समझ आते हैं। मार्गों को देखें तो ये पृथक नहीं वरन एक दूसरे से आच्छादित हैं। ज्ञानमार्ग में भक्ति है, भक्तिमार्ग में कर्म है, कर्ममार्ग में भक्ति और ज्ञान दोनों ही सम्मिलित हैं। गीता में बड़ी ही सम्यकता से इसे समझाया है। मार्ग भिन्न दिखते हैं पर निष्कर्ष एक है, परस्पर पूरक हैं।
आगे अष्टांग योग के अंगों का परिचय।
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