योग एक प्रायोगिक प्रक्रिया है और भगवतगीता योग की व्याख्या प्रायोगिक दृष्टिकोण से करती है। कर्तव्य, आत्मा, स्थितिप्रज्ञ, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि न जाने कितने विषय हैं जिन पर कृष्ण अर्जुन के भ्रम दूर करते हैं। आधुनिक अभिभावकों द्वारा गीता आदि शास्त्रों का अध्ययन न करने देने के पीछे एक बड़ा भ्रम और भय यह भी है कि इसे पढ़कर कोई सब कुछ त्याग कर सन्यासी न हो जाये। हास्यास्पद ही है कि जिस ग्रन्थ का निष्कर्ष निराश अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करना था वह कर्मरहित सन्यास के बारे में कैसे उपदेशित कर सकता है।
योग का सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि यह पलायनवादियों को कर्म हेतु प्रेरित करता है। वैराग्य के पहले अभ्यास आता है। अभ्यास और वैराग्य साथ साथ चलते हैं, एक संतुलन के साथ। बिना वैराग्य के अभ्यास दिशाहीन होता है और बिना अभ्यास के वैराग्य आधारहीन। वैशेषिक दर्शन में भी दो ध्येय माने गये हैं, अभ्युदय और निःश्रेयस। अभ्युदय भौतिक उन्नति है और निःश्रेयस वह श्रेष्ठता जिसके पश्चात कुछ और पाना शेष नहीं रहता है। यदि इन्हें चारों पुरुषार्थों में समझा जाये तो अभ्युदय धर्म पोषित अर्थ व काम है और निःश्रेयस मोक्ष है। अभ्युदय ही निःश्रेयस की भूमि है और निःश्रेयस की छाया में अभ्युदय सम्यक रूप से रह पाता है। दोनों एक दूसरे पर आश्रित है, भोग व अपवर्ग के समान ही।
वैशेषिक पर चर्चा फिर कभी पर एक बात तो निश्चित रूप से सत्य है कि भारतीय दर्शन न तो कर्तव्यों से भागना सिखाता है और न ही सन्यास या वैराग्य के नाम पर कर्महीनता को पोषित या प्रेरित करता है। ईशोवास्योपनिषद से प्रेरित भारतीय मानस तो तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा पर आस्था रखता है, त्यागपूर्वक भोग। आश्चर्य होता है कि जिन सिद्धान्तों को हम सामान्य रूप से परस्पर विरोधी मानते हैं, वे सह अस्तित्व में कैसे रह लेते हैं। हम आगे देखेगें कि अभ्यास और वैराग्य भी एक स्तर पर एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, पर योग के दिशापटल पर एक दूसरे के पूरक सिद्ध होते हैं।
कार्य होने पर उन्माद और कार्य न होने पर विषाद। इस प्रकार का ‘निष्कर्ष चिन्तन’ कार्य के प्रति हमारे निष्पक्ष प्रयासों में संशय उत्पन्न करता है। अत्यधिक लगाव के बाद जब कार्य नहीं होता है तो दुख भी अत्यधिक होता है, पर बिना लगाव के कार्य होता भी तो नहीं है। पुनः विरोधी सिद्धान्त। इन दोनों में संतुलन का भाव उत्पन्न कर पाना ही समत्व है, योग है। कृष्ण कहते भी हैं कि समत्वं योग उच्यते (२.४८) - कार्य होने या न होने में सम भाव ही समत्व कहलाता है।। योगः कर्मसु कौशलम् (२.५०) - योग कर्मों में कुशलता है। योग निश्चय ही हमें कर्म में प्रेरित होने को कहता है, पर संतुलित मनःस्थिति के साथ या यदि योग की भाषा में कहा जाये तो स्थितिप्रज्ञता के साथ।
श्रीकृष्ण निश्चय ही लीलारूप थे, अवतारपुरुष थे, पर इस महिमामण्डन में हम उस पक्ष को उपेक्षित कर जाते हैं जिसने जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया। भक्ति के भाव में हम अतिरेक बह जाते हैं और उनके गुणों को देख ही नहीं पाते हैं। मेरी दृष्टि में श्रीकृष्ण का महानतम उपहार योग को जनसामान्य और कर्मसामान्य में ढाल कर प्रस्तुत करना है। सुनने में और पढ़ने में, भाषा की दृष्टि से भगवतगीता सरलतम ग्रन्थों में से एक है। सरल शैली में योग जैसे जटिल विषय को जिस कुशलता से रखा गया है, वह अद्वितीय है, कृष्ण जैसे योग के महापुरोधा द्वारा ही संभव है। गीता सबको अपने तरह से समझ आती है और संभवतः वे सारे पंथ अपने निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। यही कारण है कि गीता में जितने श्लोक नहीं हैं, उससे अधिक उसकी टीकायें हैं।
योग घर के एकान्त में कुछ समय बिताने वाली प्रातःचर्या नहीं है, यह जीवन को अद्भुत बनाने की कला है। हर कर्म में जब योग झलकने लगता है, सारे व्यक्तित्व में तब आनन्द छलकने लगता है। योग का आयाम श्रीकृष्ण के अपने जीवन में चतुर्दिक परिलक्षित था। स्नेह और बिछोह, ममत्व और समत्व, अभ्यास और वैराग्य। श्रीकृष्ण ने जीवन को जिस प्रवाह रूप में जिया, योगमार्गियों को उससे अधिक अनुकरणीय और भला क्या हो सकता है। कर्मसु कौशलम् और समत्वं का और बड़ा उदाहरण भला कौन हो सकता है। जो विषय हम भावनाओं में जीते हैं और बद्ध पड़े रहते हैं, उन्हीं विषयों में कृष्ण के निर्णय स्पष्ट छाप लिये रहते हैं, सबको झंकृत कर देते हैं। चाहे मथुरा छोड़कर द्वारका बसाना हो या कौरवों के महारथियों को महागति तक पहुँचाना हो। हम अच्छे बने रहने की बाध्यता में कष्ट सहते रहते हैं, पर कृष्ण की दृष्टि अपनाने से सब सहज हो जाता है, सब प्रवाहमय हो जाता है। यही तो योग की दृष्टि है।
अगले ब्लाग में अभ्यास और वैराग्य से संबंधित ४ सूत्र।
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