24.8.19

अभ्यास और वैराग्य - २

अभ्यास और वैराग्य सुनते ही लगता है कि संभवतः कोई हमें किसी अन्य जगत में रहने को बाध्य कर रहा है। या अन्यथा ही इतना श्रम और सब कुछ छोड़ देने के लिये उत्प्रेरित कर रहा है। इसका लाभ क्या है और जिस प्रकार हम अभी रह रहे हैं, उसमें क्या हानि है? ये प्रश्न सहज ही आते हैं।

ये प्रश्न स्वाभाविक भी हैं, मन के द्वारा उकसाये हैं, सबके मन में आते हैं। मन भला कैसे चाहेगा कि उसकी मनमानी न चले। सामान्य सा नियम भी है कि यदि कार्य में लाभ अधिक है और हानि कम तो वह करणीय है। क्यों इतना श्रम करना अभ्यास में, क्यों सब छोड़ देना वैराग्य से, क्या लाभ है स्वयं को या समाज को? सहज हैं ये प्रश्न, सबको आने भी चाहिये, शैथिल्य काल में मुझे भी आते हैं, अब तक।

अध्यात्म की बात छोड़ दें तो भी अभ्यास और वैराग्य नीत जीवन भौतिकता में श्रेयस्कर है, सर्वश्रेष्ठ है।

पंतजलि और श्रीकृष्ण ने योग की उत्कृष्टता को बताया है। अपने समय में श्रीकृष्ण निश्चय ही योग के महाप्रणेता रहे होंगे, तभी उनको योगेश्वर कहा जाता है। पतंजलि ने यदि सूत्ररूप में योग को प्रस्तुत किया तो गीता में योग की विशद प्रायोगिक व्याख्या है। कैसे करना है, करने में क्या क्या बाधायें आती हैं, उनको कैसे पार करना है, योग का व्यवहारिक जगत से क्या संबंध है। अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद में हमारे प्रश्नों के उत्तर मिलते जाते हैं। 

संस्कृत, योगसूत्र और गीता के मूलपाठ समझने के प्रयास में एक बड़ा ही रोचक संबंध संज्ञान में आया है। पाणिनीकृत अष्टाध्यायी का महाभाष्य पतंजलि ने लिखा है। महाभाष्य सूत्रों की विस्तृत व्याख्या होती है। पतंजलिकृत योग सूत्र का महाभाष्य व्यास ने लिखा। जैसा कि विदित है कि महाभारत में वर्णित भगवतगीता के रचयिता व्यास हैं। मैं इतिहासकारों के कल्पनाक्षेत्र में नहीं गया हूँ पर संस्कृत, सूत्रशैली और योग के प्रणेतागण तीनों विषयों को बड़े ही सुगढ़ प्रकार से जोड़े हुये हैं।

योग प्रायोगिक है, एक एक शब्द सिद्ध किया जा सकता है, बस बताये पंथ पर चलना पड़ेगा। पतंजलि और श्रीकृष्ण दोनों ही इसकी घोषणा करते हैं। जैसे जैसे कोई योग में बढ़ता है, उसके लक्षण और सिद्धियाँ पहले से ही बतायी गयीं हैं। उन्ही लक्षणों और सिद्धियों को पढ़ लें तो समझ आ जायेगा कि योग भौतिक क्षेत्र में भी लाभकर है।

दोनों पुस्तकें कई बार पढ़कर प्रभावित इतना हूँ कि बिना प्रायोगिक अनुभव भी उस पर लिखने की धृष्टता कर रहा हूँ। दृष्टाओं ने समाधि में जाकर सब जाना है, एक एक सूत्र उनके प्रत्यक्ष का शाब्दिक प्रकटीकरण है। अन्तर है कि दृष्टाओं ने समाधि में जाकर ज्ञान पाया, हम समाधि में जाने का उपाय ढूढ़ रहे हैं। 

कहीं न कहीं प्रारम्भ तो करना ही होगा। जैसे गुरुत्व नियम है और ऊपर जाने के लिये प्रयास करना होता है उसी प्रकार मन की गति भी अधोगामी होती है। आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ स्वतः ही आ पसरते हैं। इस स्वाभाविक जड़ता और गुरुता से बाहर आने के लिये प्रयास करना पड़ता है। स्वस्थ और पुष्ट दिनचर्या तभी आती है जब प्रयासपूर्वक जुटा जाता है। कार्य सरल नहीं है, बिना तपे निखरना और बिना लगे इस जड़ता से निकलना संभव भी नहीं है। 

योग श्रमसाध्य तो अवश्य है पर रुक्ष नहीं है। योग में बहुत कुछ है। विभूति पाद योगसूत्र का तीसरा पाद है और उसमें योगमार्ग में आगत सिद्धियों का ही विवरण है। यद्यपि पतंजलि आगाह करते हैं कि उन पर रुका न जाये, वे बाधक हो सकती हैं, पर योग के पथ पर चलने वालों के लिये ये दिशाचिन्ह भी हैं। अगले ब्लाग में योगसूत्र और गीता में वर्णित इन लाभों की चर्चा, साथ ही योग के बारे में फैले कई भ्रमों का निवारण।

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