31.8.19

अभ्यास और वैराग्य - ४

योग एक प्रायोगिक प्रक्रिया है और भगवतगीता योग की व्याख्या प्रायोगिक दृष्टिकोण से करती है। कर्तव्य, आत्मा, स्थितिप्रज्ञ, कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि न जाने कितने विषय हैं जिन पर कृष्ण अर्जुन के भ्रम दूर करते हैं। आधुनिक अभिभावकों द्वारा गीता आदि शास्त्रों का अध्ययन न करने देने के पीछे एक बड़ा भ्रम और भय यह भी है कि इसे पढ़कर कोई सब कुछ त्याग कर सन्यासी न हो जाये। हास्यास्पद ही है कि जिस ग्रन्थ का निष्कर्ष निराश अर्जुन को युद्ध करने के लिये प्रेरित करना था वह कर्मरहित सन्यास के बारे में कैसे उपदेशित कर सकता है।

योग का सबसे बड़ा लाभ तो यही है कि यह पलायनवादियों को कर्म हेतु प्रेरित करता है। वैराग्य के पहले अभ्यास आता है। अभ्यास और वैराग्य साथ साथ चलते हैं, एक संतुलन के साथ। बिना वैराग्य के अभ्यास दिशाहीन होता है और बिना अभ्यास के वैराग्य आधारहीन। वैशेषिक दर्शन में भी दो ध्येय माने गये हैं, अभ्युदय और निःश्रेयस। अभ्युदय भौतिक उन्नति है और निःश्रेयस वह श्रेष्ठता जिसके पश्चात कुछ और पाना शेष नहीं रहता है। यदि इन्हें चारों पुरुषार्थों में समझा जाये तो अभ्युदय धर्म पोषित अर्थ व काम है और निःश्रेयस मोक्ष है। अभ्युदय ही निःश्रेयस की भूमि है और निःश्रेयस की छाया में अभ्युदय सम्यक रूप से रह पाता है। दोनों एक दूसरे पर आश्रित है, भोग व अपवर्ग के समान ही। 

वैशेषिक पर चर्चा फिर कभी पर एक बात तो निश्चित रूप से सत्य है कि भारतीय दर्शन न तो कर्तव्यों से भागना सिखाता है और न ही सन्यास या वैराग्य के नाम पर कर्महीनता को पोषित या प्रेरित करता है। ईशोवास्योपनिषद से प्रेरित भारतीय मानस तो तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा पर आस्था रखता है, त्यागपूर्वक भोग। आश्चर्य होता है कि जिन सिद्धान्तों को हम सामान्य रूप से परस्पर विरोधी मानते हैं, वे सह अस्तित्व में कैसे रह लेते हैं। हम आगे देखेगें कि अभ्यास और वैराग्य भी एक स्तर पर एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं, पर योग के दिशापटल पर एक दूसरे के पूरक सिद्ध होते हैं।

कार्य होने पर उन्माद और कार्य न होने पर विषाद। इस प्रकार का ‘निष्कर्ष चिन्तन’ कार्य के प्रति हमारे निष्पक्ष प्रयासों में संशय उत्पन्न करता है। अत्यधिक लगाव के बाद जब कार्य नहीं होता है तो दुख भी अत्यधिक होता है, पर बिना लगाव के कार्य होता भी तो नहीं है। पुनः विरोधी सिद्धान्त। इन दोनों में संतुलन का भाव उत्पन्न कर पाना ही समत्व है, योग है। कृष्ण कहते भी हैं कि समत्वं योग उच्यते (२.४८) - कार्य होने या न होने में सम भाव ही समत्व कहलाता है।। योगः कर्मसु कौशलम् (२.५०) - योग कर्मों में कुशलता है। योग निश्चय ही हमें कर्म में प्रेरित होने को कहता है, पर संतुलित मनःस्थिति के साथ या यदि योग की भाषा में कहा जाये तो स्थितिप्रज्ञता के साथ।

श्रीकृष्ण निश्चय ही लीलारूप थे, अवतारपुरुष थे, पर इस महिमामण्डन में हम उस पक्ष को उपेक्षित कर जाते हैं जिसने जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया। भक्ति के भाव में हम अतिरेक बह जाते हैं और उनके गुणों को देख ही नहीं पाते हैं। मेरी दृष्टि में श्रीकृष्ण का महानतम उपहार योग को जनसामान्य और कर्मसामान्य में ढाल कर प्रस्तुत करना है। सुनने में और पढ़ने में, भाषा की दृष्टि से भगवतगीता सरलतम ग्रन्थों में से एक है। सरल शैली में योग जैसे जटिल विषय को जिस कुशलता से रखा गया है, वह अद्वितीय है, कृष्ण जैसे योग के महापुरोधा द्वारा ही संभव है। गीता सबको अपने तरह से समझ आती है और संभवतः वे सारे पंथ अपने निष्कर्षों पर पहुँचते हैं। यही कारण है कि गीता में जितने श्लोक नहीं हैं, उससे अधिक उसकी टीकायें हैं।

योग घर के एकान्त में कुछ समय बिताने वाली प्रातःचर्या नहीं है, यह जीवन को अद्भुत बनाने की कला है। हर कर्म में जब योग झलकने लगता है, सारे व्यक्तित्व में तब आनन्द छलकने लगता है। योग का आयाम श्रीकृष्ण के अपने जीवन में चतुर्दिक परिलक्षित था। स्नेह और बिछोह, ममत्व और समत्व, अभ्यास और वैराग्य। श्रीकृष्ण ने जीवन को जिस प्रवाह रूप में जिया, योगमार्गियों को उससे अधिक अनुकरणीय और भला क्या हो सकता है। कर्मसु कौशलम् और समत्वं का और बड़ा उदाहरण भला कौन हो सकता है। जो विषय हम भावनाओं में जीते हैं और बद्ध पड़े रहते हैं, उन्हीं विषयों में कृष्ण के निर्णय स्पष्ट छाप लिये रहते हैं, सबको झंकृत कर देते हैं। चाहे मथुरा छोड़कर द्वारका बसाना हो या कौरवों के महारथियों को महागति तक पहुँचाना हो। हम अच्छे बने रहने की बाध्यता में कष्ट सहते रहते हैं, पर कृष्ण की दृष्टि अपनाने से सब सहज हो जाता है, सब प्रवाहमय हो जाता है। यही तो योग की दृष्टि है।

अगले ब्लाग में अभ्यास और वैराग्य से संबंधित ४ सूत्र।

27.8.19

अभ्यास और वैराग्य - ३

मन का एक रूप है कि यह स्थिर नहीं रहता, इधर उधर भागता है, शीघ्र ही उकता जाता है, नयापन ढूढ़ता है, उद्योग और श्रम से भागता है, इन्द्रियों के प्रभाव में सरलता से आ जाता है, अपनी बात मनवाने हेतु तर्क कुतर्क ढूढ़ ही लाता है। दूसरा रूप है कि जिस बात की ठान लेता है, शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण धर करवा लेता है, सृजनशील है, सटीक तर्क प्रस्तुत करता है, अद्भुत व्यक्तित्व बनाने में सहायक है। अन्तर स्पष्ट है, जहाँ अनियन्त्रित मन पहला रूप दिखलाता है, नियन्त्रित मन दूसरा। पहला रूप शत्रुवत है, दूसरा मित्रवत। किसी के जीवन में मन का यह रूपान्तरण यदि संभव हो पाता है, तो केवल अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से।

किसका अभ्यास और किससे वैराग्य?

मन को जब साधना इतना कठिन हो और साधने से क्रियाफल में आमूलचूल परिवर्तन हो तो वह प्रक्रिया भी ठोस होगी, आजकल की भाँति कागजी या कृत्रिम नहीं। पतंजलि योग के लिये ८ अंगों की प्रक्रिया बतलाते हैं, अतः इसे अष्टांग योग भी कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। कुछ परिचित शब्द हैं, कुछ सर्वथा अपरिचित। अभ्यास और वैराग्य के संदर्भ में और विभूतियों के संदर्भ में इनकी यथास्थान व्याख्या की जायेगी। 

योग के बारे में सर्वाधिक प्रचलित धारणा आसन की है। यह अंग हठयोग के नाम से भी जाना जाता है। यद्यपि योग में आसन की उपादेयता बस इतनी ही है कि हम बिना किसी शारिरिक व्यवधान के दीर्घ समय तक बैठकर ध्यान लगा सकें। योगी एक या दो ही आसन सिद्ध करते हैं, पद्मासन या सुखासन या सिद्धासन। शरीर को इस कार्य के लिये उद्धत किया जाता है कि शरीर में हो रहे विचलन के कारण मन अस्थिर न हो जाये। आसन योग का अंग है पर मात्र आसन ही योग नहीं है। आसन का अभ्यास शरीर को इतना स्वस्थ और सुदृढ़ कर देता है कि रोग इत्यादि होने की संभावना क्षीणातिक्षीण होती जाती है। रोगनिदान के लिये भी आसन की उपादेयता अद्भुत है, हठयोग की संभावना अपरिमित है।

आसन के साथ प्राणायाम को भी योग के रूप में द्वितीयक ख्याति प्राप्त है। प्राणायाम मन को स्थिर करने का क्रम है। इसे कारण और प्रभाव के माध्यम से समझना उचित होगा। मन की स्थिति बदलने से हमारी साँसों की गति में बदलाव आता है। जब हम क्रोधित होते हैं तो साँसों का क्रम द्रुत होता है। शान्ति में साँसें सम रहती हैं। प्राणायाम से हम अपनी साँसों को नियन्त्रित करते हैं जिससे मन यथानुसार स्थिर होने लगता है। मस्तिष्क में शुद्ध आक्सीजन की मात्रा से मन स्थिर रहता है, शान्त रहता है। जहाँ आसन तन को स्थिर करने के लिये है, प्राणायाम मन को स्थिर करने में सहायक है। जब भी प्रातःचर्या में आसन और प्राणायाम का अवसर प्राप्त होता है, शेष दिन स्फूर्त और सजीव बीतता है।

योग के संबंध में हमारा ज्ञान और सीमित प्रयोग आसन और प्राणायाम के आसपास ही भटकता रहता है। संभवतः यह इसीलिये होता होगा कि इनसे होने वाले लाभ प्रत्यक्ष दिखायी पड़ते हैं, स्वास्थ्य में, मेधा में, विचारों की सम्यकता में। कुछ लोग ध्यान भी करते हैं, किसी एक बिन्दु पर। कुछ विपश्यना जैसी पद्धति अपनाते हैं, आती जाती साँसों पर ध्यान देकर। ध्यान एक अत्यधिक कठिन प्रक्रिया है, किसी योगसाधक के बिना स्वयं करना तो और भी कठिन होती है। आसन और प्राणायाम तो सम्यक रूप से किये भी जा सकते हैं, ध्यान की परिधि के अन्दर जा पाना सबके लिये सम्भव नहीं होता है। देखा जाये तो आसन और प्राणायाम से अधिक योग की सिद्धि और प्रसिद्धि जनमानस को नहीं है।

योग के अंगों का क्रम कुछ विचार कर के ही निर्धारित किया गया है। आसन और प्राणायाम तो यम और नियम के सम्यक पालन के बिना फिर भी किये जा सकते हैं, पर ध्यान तक पहुँचने के लिये यम, नियम, प्रत्याहार और धारणा से होकर आगे बढ़ना आवश्यक है, सभी को सम्यक रूप से साधते हुये, नहीं तो ध्यान टिकेगा ही नहीं। 

यम और नियम को तो हम मुख्यतः अच्छे गुणों के रूप में लेते हैं और उसमें सुधार करने का प्रयास करते रहते हैं। प्रत्याहार को एक मानसिक सिद्धान्त मानकर प्रतीक्षा और आशा करते रहते हैं कि वह कालान्तर स्वयं सिद्ध हो जाये। धारणा के बारे में बहुधा हमारा ज्ञान विचारों के परे नहीं जा पाता। इन चार अवयवों के अभाव में ध्यान को करना तो दूर, समझ पाना भी असम्भव है।

योग एक व्यापक प्रक्रिया है, कठिन तब जब हम बिना सिद्धान्त समझे आगे बढ़ेंगे, सहज तब जब समझ कर और अभ्यास और वैराग्य से साधकर आगे बढ़ेंगे। संभवतः यही कारण रहा है कि पतंजलि ने योग की परिभाषा देने के तुरन्त बाद ही अभ्यास और वैराग्य की प्राथमिक आवश्यकता बताना उचित समझा, अष्टांग योग बताने के पहले उसे साधने के उपाय बताना उचित समझा। अगले ब्लाग में अभ्यास और वैराग्य को परिभाषित करने हेतु पतंजलि के सूत्र और योग के अन्य लाभ।

24.8.19

अभ्यास और वैराग्य - २

अभ्यास और वैराग्य सुनते ही लगता है कि संभवतः कोई हमें किसी अन्य जगत में रहने को बाध्य कर रहा है। या अन्यथा ही इतना श्रम और सब कुछ छोड़ देने के लिये उत्प्रेरित कर रहा है। इसका लाभ क्या है और जिस प्रकार हम अभी रह रहे हैं, उसमें क्या हानि है? ये प्रश्न सहज ही आते हैं।

ये प्रश्न स्वाभाविक भी हैं, मन के द्वारा उकसाये हैं, सबके मन में आते हैं। मन भला कैसे चाहेगा कि उसकी मनमानी न चले। सामान्य सा नियम भी है कि यदि कार्य में लाभ अधिक है और हानि कम तो वह करणीय है। क्यों इतना श्रम करना अभ्यास में, क्यों सब छोड़ देना वैराग्य से, क्या लाभ है स्वयं को या समाज को? सहज हैं ये प्रश्न, सबको आने भी चाहिये, शैथिल्य काल में मुझे भी आते हैं, अब तक।

अध्यात्म की बात छोड़ दें तो भी अभ्यास और वैराग्य नीत जीवन भौतिकता में श्रेयस्कर है, सर्वश्रेष्ठ है।

पंतजलि और श्रीकृष्ण ने योग की उत्कृष्टता को बताया है। अपने समय में श्रीकृष्ण निश्चय ही योग के महाप्रणेता रहे होंगे, तभी उनको योगेश्वर कहा जाता है। पतंजलि ने यदि सूत्ररूप में योग को प्रस्तुत किया तो गीता में योग की विशद प्रायोगिक व्याख्या है। कैसे करना है, करने में क्या क्या बाधायें आती हैं, उनको कैसे पार करना है, योग का व्यवहारिक जगत से क्या संबंध है। अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद में हमारे प्रश्नों के उत्तर मिलते जाते हैं। 

संस्कृत, योगसूत्र और गीता के मूलपाठ समझने के प्रयास में एक बड़ा ही रोचक संबंध संज्ञान में आया है। पाणिनीकृत अष्टाध्यायी का महाभाष्य पतंजलि ने लिखा है। महाभाष्य सूत्रों की विस्तृत व्याख्या होती है। पतंजलिकृत योग सूत्र का महाभाष्य व्यास ने लिखा। जैसा कि विदित है कि महाभारत में वर्णित भगवतगीता के रचयिता व्यास हैं। मैं इतिहासकारों के कल्पनाक्षेत्र में नहीं गया हूँ पर संस्कृत, सूत्रशैली और योग के प्रणेतागण तीनों विषयों को बड़े ही सुगढ़ प्रकार से जोड़े हुये हैं।

योग प्रायोगिक है, एक एक शब्द सिद्ध किया जा सकता है, बस बताये पंथ पर चलना पड़ेगा। पतंजलि और श्रीकृष्ण दोनों ही इसकी घोषणा करते हैं। जैसे जैसे कोई योग में बढ़ता है, उसके लक्षण और सिद्धियाँ पहले से ही बतायी गयीं हैं। उन्ही लक्षणों और सिद्धियों को पढ़ लें तो समझ आ जायेगा कि योग भौतिक क्षेत्र में भी लाभकर है।

दोनों पुस्तकें कई बार पढ़कर प्रभावित इतना हूँ कि बिना प्रायोगिक अनुभव भी उस पर लिखने की धृष्टता कर रहा हूँ। दृष्टाओं ने समाधि में जाकर सब जाना है, एक एक सूत्र उनके प्रत्यक्ष का शाब्दिक प्रकटीकरण है। अन्तर है कि दृष्टाओं ने समाधि में जाकर ज्ञान पाया, हम समाधि में जाने का उपाय ढूढ़ रहे हैं। 

कहीं न कहीं प्रारम्भ तो करना ही होगा। जैसे गुरुत्व नियम है और ऊपर जाने के लिये प्रयास करना होता है उसी प्रकार मन की गति भी अधोगामी होती है। आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ स्वतः ही आ पसरते हैं। इस स्वाभाविक जड़ता और गुरुता से बाहर आने के लिये प्रयास करना पड़ता है। स्वस्थ और पुष्ट दिनचर्या तभी आती है जब प्रयासपूर्वक जुटा जाता है। कार्य सरल नहीं है, बिना तपे निखरना और बिना लगे इस जड़ता से निकलना संभव भी नहीं है। 

योग श्रमसाध्य तो अवश्य है पर रुक्ष नहीं है। योग में बहुत कुछ है। विभूति पाद योगसूत्र का तीसरा पाद है और उसमें योगमार्ग में आगत सिद्धियों का ही विवरण है। यद्यपि पतंजलि आगाह करते हैं कि उन पर रुका न जाये, वे बाधक हो सकती हैं, पर योग के पथ पर चलने वालों के लिये ये दिशाचिन्ह भी हैं। अगले ब्लाग में योगसूत्र और गीता में वर्णित इन लाभों की चर्चा, साथ ही योग के बारे में फैले कई भ्रमों का निवारण।

17.8.19

अभ्यास और वैराग्य - १

पतंजलि पहले ४ सूत्रों में ही योग को परिभाषित कर देते है, शेष व्याख्या है। चित्त, वृत्ति, निरोध, दृष्टा, स्वरूप, सारूप्य, इन शब्दों को समझ लेने से ही पूरा योग दर्शित या स्पष्ट हो जाता है।

शाब्दिक अर्थ है। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। योग में दृष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। अन्य समय में वह वृत्तियों के सारूप्य रहता है।

चलिये और सरल करते हैं। चित्त मन है। मन की भटकन वृत्ति है। मन की भटकन का रुकना योग है। दृष्टा मन से भिन्न है। उसका मन से भिन्न अपना एक स्वरूप है। योग की स्थिति में वह अपने स्वरूप में रहता है, नहीं तो वह मन की भटकन जैसा अनुभव करता है।

मन की भटकन को रोकने के लिये उसे समझना भी आवश्यक है। मन के अनुकूल कुछ हुआ तो हम सुखी हो जाते हैं, कुछ प्रतिकूल हुआ तो हम दुखी हो जाते हैं। कितने असहाय हो जाते हैं। मन में आ रहे विचारों का प्रवाह नियन्त्रित करना कठिन है अतः जैसा मन कहता है, हम हो जाते हैं। जो कहता है, हम कर जाते हैं। जैसा मनवाता है, हम मान जाते हैं। है न विडम्बना, हमारा सेवक हमें नियन्त्रित करता है। हम विचारों के आकार में हवा हवा हो जाते हैं। है न दयनीय स्थिति।

ऐसा नहीं है कि हमारा ही मन इतना उत्पाती है या हम ही इतने असमर्थ हैं। सबकी यही समस्या है। अर्जुन जैसा वीर भी कहता है कि हे कृष्ण, यह मन इतना चंचल है कि बलपूर्वक मुझे हर लेता है और इसे नियन्त्रित करना वायु को बाँधने से भी अधिक कठिन है। तो उपाय क्या है?

अभ्यास और वैराग्य। कृष्ण भगवद्गीता (२.३४) में और पतंजलि (१.१२) में यही उपाय बताते हैं।

कहावत है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कटु सत्य पर यह है कि सदैव मन ही जीतता है तो वह हमारी हार ही हुयी। कहाँ से कहाँ लाकर पटक देता है। कभी अत्यधिक उन्माद में ढकेलता है तो कभी विषादग्रस्त कर जाता है। क्या दुर्गति नहीं करता है? मन की इस मनमानी में कभी कभार जो स्थिर सा दिखता है, वही हमारा स्वरूप है। सही मुहावरा तो होना चाहिये मन के जीते हार है, मन से जीते जीत।

पतंजलि मन की ५ वृत्तियाँ बताते हैं। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति। प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम) के द्वारा प्राप्त सही ज्ञान, विपर्यय या मिथ्या ज्ञान, विकल्प या कल्पना, स्मृति या पुराने प्रत्यक्ष का पुनः उभरना, निद्रा या ज्ञान का अभाव। मन इन्ही ५ वृत्तियों के बीच अनियन्त्रित भटकता है और साथ में हमें भी बलवत बहा ले जाता है। यह साथ कालान्तर में इतना गाढ़ा हो जाता है कि हम स्वयं को ही मन समझने लगते हैं।

मन की सारूप्यता में बद्ध दृष्टा को अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से ही मुक्त किया जा सकता है।

अभ्यास क्या है, किसका अभ्यास, किन सोपानों पर बढ़ते रहने का अभ्यास? वैराग्य ही क्यों? भौतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में इन प्रश्नों के उत्तर हमारी भटकन की समस्या सुलझाने के लिये आवश्यक हैं। इस विषय को समझने का प्रयास करेंगे अगले ब्लाॆग में।

10.8.19

कुछ नया कर

कल किया था, आज भी वो,
वही मति, अनुमति वही हो,
नित्य चलना उसी पथ पर,
आस फिर भी, कुछ बदलकर,
जीवनी आकृति गढ़ेगी,
कदाचित आगे बढ़ेगी,
किन्तु ठहरी और बहरी,
अनमनी अटकी दुपहरी,
उदय हो सो गया दिनकर,
एक अर्जित अंक गिनकर,
व्यर्थ किंकर्तव्य बीता,
शेष है मन क्षुब्ध रीता,
अब तो अपने पर दया कर,
कुछ नया कर।

गर्व की चर्चा कभी हो,
क्यों विगत की दुंदभी को,
बजाकर मनमुग्ध ऐंठे,
कर्म अपने छोड़ बैठे,
कुछ करें समकक्ष बढ़कर,
कुछ नहीं एक पथ पकड़कर,
तनिक स्थिरता तो लायें,
काल में हम ढह न जायें,
बिसारी छोड़ी विरासत,
नहीं कोई ध्येय अनुरत,
दिशा भ्रमवत, अधो गतिमय,
राह भटकी, विपथ-मतिमय,
पितर तर्पित हों, दया कर,
कुछ नया कर।

सृष्टि में स्थान अपना,
और सबके साथ चलना,
प्राप्ति का उद्योग वांछित,
सामने उत्थान लक्षित,
हो कठिन उलझी परिस्थिति,
रुद्ध है आरोह में गति,
प्रश्न क्षमता पर नहीं हो,
काल संग बढ़ते नहीं जो,
लक्ष्य कैसे भूल जायें,
तनिक ठहरें फिर जगायें,
पुनः स्वर विश्वास के हम,
डटे रहने से हटे तम,
सुप्त स्वप्नों पर दया कर,
कुछ नया कर।

स्वस्थ तन में स्वस्थ मन हो,
और श्रेयस पर मनन हो,
बढ़ें स्नेही सकल जन,
खुलें मन परिवार आँगन,
देश और परिवेश सुखमय,
रहे जो भी शेष, सुखमय,
उदय अपना, ध्यान जग का,
अभीप्सित उत्थान सबका,
प्रयत्नों की आस महती,
किन्तु चेष्टा नहीं दिखती,
दिन कहीं कल सा न बीते,
चाह आगत विगत जीते,
हे प्रखरमय, अब दया कर,
कुछ नया कर।

3.8.19

दुख सहना पर पीर पिरोना

बाहर तीखे तीर चल रहे,
सीना ताने वीर चल रहे,
प्यादे हो, हद में ही रहना,
दोनों ओर वजीर चल रहे।

मन अतरंगी ख्वाब न पालो,
पहले अपने होश सम्हालो,
क्यों समझो शतरंजी चौखट,
बचपन है, आनन्द मना लो।

आड़ी, तिरछी, फिरकी चालें,
कुछ बोलें और कुछ कर डालें,
अन्तस्थल तक बिंध जाओगे,
तन पर कितनी ढाल सजा लें।

घात और प्रतिघात प्रदर्शित,
छद्म धरे संहारक चर्चित,
हेतु विजय छलकृत पोषित पथ,
गुण के शिष्टाचार समर्पित।

शत युद्धस्थल और प्रहार शत,
मन अन्तरतम बार बार हत,
पर जिजीविषा अजब विकट है,
जीवट जूझी, सब प्रकार रत,

धैर्य धरो कल खेल ढलेगा,
गिरते मोहरे, ढेर सजेगा,
होंगे सारे छद्म तिरोहित,
अंतिम चालें काल चलेगा।

माना सहज नहीं बीता है,
माना अभी बहुत रीता है,
नहीं गर्भ से प्राप्त रहा कुछ,
अनुभव, देख देख सीखा है।

नहीं बने जो चाहे होना,
किञ्चित मन उत्साह खोना,
हो प्रतिकूल सकल जग फिर भी,
दुख सहना पर पीर पिरोना।