बुरा हूँ, अच्छा हूँ, जैसा भी हूँ, आपका हूँ। यह एक साधारण सा लगने वाला वाक्य जीवन को कितने निरर्थक श्रम से बचा लेता है।
कोई भी पूर्णत्व लेकर जन्म नहीं लेता है। सबके अपने व्यक्तित्वों में छुपी खटकती तुच्छतायें हैं, गर्वित प्राप्त उपलब्धियाँ हैं। जब भी हम किसी के संपर्क में आते हैं, प्रभावित करने के क्रम में अपने दोषों को छिपाने का उपक्रम प्रारम्भ हो जाता है। उससे भी कठिन तो होता है अपनी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ाकर प्रदर्शित कर प्रशंसा बटोरने का उपक्रम। कभी सोचा है कि दोनों में ही कितनी ऊर्जा निचुड़ जाती है। यदि संपर्क अधिक समय को हो तो दिन रात यही संशय रहता है कि प्रस्तुति कहीं विपरीत हुयी तो पोल खुली। यदि संपर्क जीवन भर का हो तो व्यक्तित्व अनावश्यक मानसिक खिंचाव सहन करता रहता है, अपने आप को न चाहते हुये भी बदलने लगता है और अन्ततः आत्म समर्पण कर देता है।
पर स्वयं ही, स्वयं को यथारूप स्वीकार करने का आग्रह है यह वाक्य। यह आत्म समर्पण नहीं हैं, आप स्वयं को बदलने को भी नहीं कह रहे हैं। आप जैसे हैं, वैसे ही स्वयं को बता रहे हैं। पारदर्शिता छद्मता से पार पा प्रकट हो रही है, कुछ भी छिपाने की आवश्यकता नहीं है। आप दोष त्याग देने का वचन भी नहीं दे रहे हैं और न ही अपने गुणों का दम्भ ही भर रहे हैं। यदि कोई भावतरंग यहाँ प्रधान है तो वह स्वयं को आपसे जोड़ने की है, रावरों हौं, आपका हूँ। खोटो और खरो, दोनों ही भाव गौड़ हो गये हैं यहाँ।
इस वाक्य को कह कर देखिये, छल कपट जनित सारी जटिलतायें क्षण भर में बह जायेंगी। किससे कहना है, किसको आप से कहना है, इस प्रश्न को अहं के परे ले जाकर, उन सबसे कह डालिये जिनसे आप अपने व्यक्तित्व को व्यक्त करने में असहज अनुभव कर रहे हैं। उन सबसे कह डालिये जो अपने चारों ओर एक कृत्रिम आवरण चढ़ा कर बैठे हैं और आपको जानबूझ कर नहीं समझना चाहते हैं। उन सबसे कह डालिये जिनसे आपका परस्पर अपेक्षाओं के बारे में कभी खुलकर विचार विनिमय नहीं हुआ है। उन सबसे भी कह डालिये जो प्रेमवश आपको दोषों को अनदेखा कर आप पर अपना स्नेह लुटाये जा रहे हैं। जहाँ भी पानी रुका है, प्रवाह अवरुद्ध है, असहजता आरोही है, यह वाक्य रामबाण है।
वाक्य का प्रसंग बता देने से जो रस आपको अभी मिलने लगा है, वह कहीं कम न हो जाये, इसलिये विलम्बित कर रहा हूँ।
किशोरावस्था में कई पुस्तकें पढ़ी थी कि किस प्रकार आवरण चढ़ाकर औरों को प्रभावित करें, अपना प्रभाव बढ़ायें, सफलता प्राप्त करें। मन से स्वीकार तो उस समय भी नहीं हुआ था यह छल। छलावा लगता था कृत्रिम आवरण। काँटा कठोर है, तीखा है पर उसका कार्य भी वही है, वह कैसे पुष्प का आवरण चढ़ा पायेगा। शीर्षक तो उस विचार की मूल प्रतिपक्षता है। मुझे अभी तक यही लगता था कि मेरा मत क्षीण ही सही, आधुनिक प्रबन्धकों के विपरीत ही सही, पर मेरे लिये तो वही मेरा सत्य है। यही कारण रहा कि कभी आवरण में जी ही नहीं पाया। यह वाक्य पढ़ने के बाद जो अतुलनीय आधार मन को मिला है, वह अवर्णनीय है।
यदि यह वाक्य आपसे कहा जाय तो आपकी प्रतिक्रिया क्या रहेगी ? आपका वाचक के प्रति विश्वास कम होगा कि बढ़ेगा ? उसके गुण और दोष आपको अपने लगने लगेंगे। आप उसकी सहायता करने को उद्धत हो जायेंगे। अपने दोषों को प्रेममना हो स्वीकार करना सरल नहीं है, मन को चिन्तन और परिवर्धन की अनन्त राह में तपा कर आता होगा यह भाव।
जब यह पढ़ा था, बहुत दिन तक सोचता ही रहा। चिन्तन की अनिवार्यता से बचा जा सकता था यदि इस वाक्य को “भक्ति” कह कर आगे बढ़ जाता। विनय पत्रिका का ७५ वाँ पद है, तुलसीदास की आध्यात्मिक परिपक्वता का सहज निरूपण। अध्यात्म से आत्म का परिपोषण, समाज को सहेजे रखने का अनिवार्य मन्त्र, खोटो खरो रावरों हौं।
बहुत अच्छा लगा बड़े दिनों बाद हिंदी पढ़कर।
ReplyDeleteइस वाक्य की सरलता को जीवन में ढालना आसान नही है, अपने दोषों को अपनाना सरल नही है। पर जरूरी है, ताकि एक पूर्ण ज़िन्दगी जीने की ओर कदम बढ़ सके।
निःशब्द
ReplyDeleteMy linguistics skills are average but what I able to understand is similar to the blog https://sunshine1803.blogspot.com/2019/06/mistakes.html?m=1&fbclid=IwAR3MKnijKzAvQiVj4ynl0T5YPBMpx6Tz1S6Ozi7XFlIWrgNew2-4PeB72RM
ReplyDeleteSeen your blog after a long time. Keep writing ............Best wishes
ReplyDeleteइरा ने बहुत अच्छा लिखा है। जैसे हैं, वैसे हैं, स्वीकार करो और आगे बढ़ो।
Deleteइरा ने बहुत अच्छा लिखा है। जैसे हैं, वैसे हैं, स्वीकार करो और आगे बढ़ो।
ReplyDelete100% sahi.
ReplyDeleteअदभुत अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteयथार्थ परक अनुभूति
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