26.7.19

मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा

पतंजलि योग सूत्र के प्रथम पाद समाधिपाद के ३३ वें सूत्र में है यह उल्लेख। कुल १९६ सूत्रों में संकलित यह दर्शन, अन्य आधुनिक दर्शनों की भाँति बुद्धिविलास या शब्द-मृगालजाल नहीं अपितु एक करणीय और अनुभवजन्य प्रक्रिया है। योग के बारे में जितने लोगों से बात की, कुछ को छोड़कर शेष सभी की जानकारी या तो अपरिपूर्ण पायी या एकपक्षीय । वह तो भला हो कि विगत कुछ वर्षों से योग जैसे संस्कृति-रत्न को समुचित प्रचार व मान मिला है नहीं तो योग मात्र कुछ कठिन और जटिल शरीर-मुद्राओं के रूप में जनमानस में प्रचलित था। मेरे लिये और मेरे जैसे अनेकों भारतीयों के लिये कारण एक ही था कि कभी भी हमने मूल पाठ करने का प्रयत्न ही नहीं किया। और जब अन्ततः अर्धज्ञान से विक्षिप्त हो मूलपाठ करना पड़ा तब लगा कि हमें बचपन से संस्कृत क्यों नहीं पढ़ायी गयी, ऐसे रत्नों के बारे में क्यों नहीं बताया गया। केवल १९६ सूत्र, एक दिन से भी कम समय लगता, यदि संस्कृत आती होती या कोई बताने वाला रहता। न मिले अवसरों के बारे में, शिक्षा पद्धति के बारे में, संस्कृति और संस्कृत के बारे में फिर कभी चर्चा।

बीच से सूत्र प्रारम्भ करने से संदर्भरहित स्थिति उत्पन्न होने का भय है अतः प्रथम से ३२ वें सूत्र तक का सारांश रख देना उचित रहेगा। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। तब दृष्टा अपने स्वरूप में आता है अन्यथा वह वृत्तियों के सारूप्य रहता है। वृत्तियाँ ५ हैं, प्रमाण, विपर्याय, विकल्प, निद्रा, स्मृति। अभ्यास और वैराग्य से वह निरोध आता है। अपनी स्थिति पर यत्नपूर्वक बने रहना अभ्यास है, इन्द्रिय विषयों से वितृष्णा वैराग्य है। प्रकृतिलय और विदेह अभ्यास व वैराग्य की परिपक्व स्थितियाँ है, इनके लिये समाधि सहज है। शेष सबको श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक योग सिद्ध करना होता है। या ईश्वर की शरणागति से यह शीघ्र सिद्ध हो जाती है। ईश्वर क्लेश, कर्म, विपाक व आशय से रहित और पुरुषविशेष है। वह सर्वज्ञ, सबका गुरू व काल से अवच्छेद है। ओंकार उसका नाम है। ओंकार जपने से ईश्वर का भाव आता है जिससे ९ चित्तविक्षेप सह ५ विघ्न नष्ट हो जाते हैं।

तत्पश्चात पतंजलि चित्तविक्षेप रोकने हेतु अन्य उपायों की चर्चा करते हैं। एकतत्व अभ्यास चित्त को सप्रयास एक तत्व पर बार बार लगाने को कहते हैं। दूसरा उपाय इस लेख का शीर्षक है। सुखी, दुखी, पुण्यात्मा व पापात्मा से क्रमशः मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का भाव रखने से चित्त शुद्ध होता है। चित्त को साधने के वर्णित उपाय मुख्यतः आध्यात्मिक, बौद्धिक या शारीरिक  स्तर पर हैं। यह उपाय सामाजिक स्तर पर कार्य करता है। योग को पूर्णतः व्यक्तिगत या आन्तरिक प्रक्रिया मान लेना एक संकुचित दृष्टि है। योग की व्याप्ति पूर्ण है। योगः कर्मषु कौशलम् । श्रीकृष्ण इस तथ्य को उच्चारित करते हैं कि कर्मों में कौशल योग से ही है।

समाज में रहने के कारण कई वाह्य कारक हमें जाने अनजाने प्रभावित करते रहते हैं। किससे किस प्रकार का व्यवहार करना है, यह प्रश्न सदा ही उठता रहता है। सबके प्रति सम व्यवहार न संभव है और न ही उचित। विवेक के अनुसार निर्णय लेना पड़ता है। निश्चय ही स्थितिप्रज्ञता में भौतिक विभेद चित्त को प्रभावित नहीं करते होंगे पर उस स्थिति तक पहुँचने के पहले हमें चित्त को स्थिर करना आना चाहिये, नीर-क्षीर विवेक होना चाहिये। उल्लिखित उपाय समाज से अधिक स्वयं के कलुष दूर करने में सहायक होते हैं।

राग, ईर्ष्या, परापकार, असूया, द्वेष और अमर्ष। ये ६ कालुष्य हैं जो सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। सुख की अनुभूति को पुनः पाने की लालसा राग है। दुख की अनुभूति को पुनः न आने देने की भावना द्वेष है। किसी की प्राप्ति या उपलब्धि पर उसे स्वयं न पाने की वेदना ईर्ष्या है। परिस्थितियाँ मनोनकूल न होने से किसी का अहित करने का भाव परापकार है। किसी के गुण को अन्य दोष आरोपित कर छोटा दिखाने की प्रवृत्ति असूया है। किसी के अपजानजनक वचनों को सुन विचलित हो जाना या सहन न कर पाना अमर्ष है।

सुखी को देखकर मुख्यतः अपने राग या ईर्ष्या के भाव जागृत होते हैं। उसके प्रति मित्रता का भाव रखने से उसकी उपलब्धियों व प्रयासो के प्रति आदर का भाव आता है और आपके राग व ईर्ष्या क्रमशः प्रसन्नता व उत्साह में बदल जाते हैं। किसी दुखी को देखकर उसकी मूर्खताओं पर क्रोध आता है और स्वयं उससे भागने का विचार उत्पन्न होता है। करुणा की भावना क्रोध को सहयोग और सहायता में बदल देती है। पुण्यात्मा को देख कर प्रथमतः असूया होता है। उसकी महानता को छोटा करने का प्रयास हम करने लगते हैं। वह ज्ञानी है किन्तु अभिमानी है, वह तो अपनी प्रतिष्ठा के लिये ही दान करता है। इस प्रकार के निर्णय देकर से हम प्रकारान्तर से स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने का प्रयत्न करते हैं। मुदिता का भाव, अच्छे कार्यों को देख कर प्रसन्नता का भाव हमारी तुच्छता को ढेर कर देता है और अच्छे कार्य करने वाले के उत्साह का कारण भी बनता है। इसी प्रकार पापात्मा को देखकर उसके प्रति द्वेष या अमर्ष के भाव न रखते हुये उपेक्षा से उसे महत्वहीन बना देना उचित है। इस बात पर सार्थक चर्चा हो सकती है कि पापात्मा को दण्ड या पीड़ा मिलनी चाहिये। जो सक्षम हैं और जो व्यवस्था के दायित्व में हैं, वे उसको देंगे भी। पर उसके पहले ही पापात्मा द्वारा मचाये उत्पात में शाब्दिक रूप से सम्मिलित हो जाने से उसकी मानसिकता और ध्येय, दोनों ही पुष्ट होते हैं। अतःउन्हें उपेक्षित करना ही उचित है।

शान्तचित्त न केवल समाधि जैसे आध्यात्मिक ध्येयों में सहायक है वरन सामान्य जीवन के कार्यों में अथाह ऊर्जा का स्रोत है। मुझे तो ये चार उपाय योग के व्यवहारिक और करणीय प्रक्रिया के अंगरूप में स्वीकार्य हैं। आपके चित्त की वृत्ति क्या है?

21.7.19

यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा

अपने पथ से नहीं टरूँगा,
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

यह सृष्टि रही विस्तीर्ण विविध, दिक उदित विदित अनुक्रम अशेष,
हैं कार्य प्रचुर, कारक अनन्त, कैसे हो निर्णय पर प्रवेश,
है लक्ष्य प्राप्ति आवश्यक पर, क्यों अनुपस्थित लक्षित लक्षण,
जग कोलाहल से हो तटस्थ, भटकन निशान्त एकान्त भ्रमण,
दिशा मिली जब, अवसर अंकुर, बढ़ते पग हैं, नहीं रुकूँगा,
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

शब्दों में आकृष्ट, छन्दमय, जीवन के उत्कर्ष रूप,
अर्थों में अवसाद व्याप्त, चिर रही अभीप्सित प्राप्ति-धूप,
शब्द अर्थ में रिक्त वृहद, यह जगत नहीं आज्ञाकारी,
शब्द-जाल में क्षुब्ध रही यदि नहीं सृजनता व्यवहारी,
नहीं डोलना तर्क-नदी में, कर्म-वेग से ही सम्हलूँगा, 
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

क्या होगा, यह प्रश्न व्यर्थ, यह पथ उत्तम या वह विशेष,
नियत एक जो चाह लिया पथ, प्रस्तुत होती नियति एक,
काल कभी न विपथ हुआ, जो लिख डाला वह अमिट रहा,
जो विकल्प हो फैल गया था, लक्ष्य प्राप्त हो सिमट रहा,
अपने पग पर, गतिमय रतिमय, अपने पथ चलते पहुँचूगा,
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

यह प्रकट, रहा एकान्त विकट, सब रुचियाँ मन की दासी हैं,
मैं अपने ही घर में आश्रित, सब आशा पूर्ण प्रवासी हैं,
बहुधा अवगुंठित, पाशबद्ध, है उथल-पुथल युत जीवन क्यों,
अपने तन मन में जीवन में, करना अपना ही पीड़न क्यों,
सच कहता, अब विगत विगतमय, मन की बातें नहीं सुनूँगा,
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

बुद्धि-नियन्त्रित कभी नहीं था, कर्म क्षेत्र जग सतत रहा है,
मेघ उमड़कर बरस रहे हैं, गंगा अविरत नीर बहा है,
एक माह में चन्द्र कलामय और कर्ममय घटता बढ़ता,
धुरी धरा पर नर्तन नित नित, सूर्य गर्भ अनवरत धधकता,
आत्मबली ऊर्जा संचारित, स्वेद कणों से सिन्धु भरूँगा,
यह निश्चय अब, नहीं डरूँगा ।

13.7.19

सहसा हृास नहीं होता है

दोष प्रचुर संरक्षण पाते,
आँखें मूंदी जाती होगी,
मति-क्षति-विकृति, ज्ञात नहीं पर,
नित अनगढ़ बढ़ जाती होगी,
धरने और सहन करने के,
आग्रहयुत संवाद उपेक्षित,
संरचना की स्मृति मन में
व्यक्तकर्म में रही प्रतीक्षित,
अर्ध-अंधमय क्षय-लय तब,
किञ्चित आभास नहीं होता है,
सहसा ह्रास नहीं होता है।

द्वार खड़ा चेतन प्रहरी है,
दोष कभी धीरे से आते,
आकर्षण तो रहता मन में,
अकुलाते फिर भी सकुचाते,
दोष पनपता, निर्णय अपना,
मन को प्रहरी पर वरीयता,
वर्षों के सत्कृत जीवन पर,
भारी पड़ जाती क्षण-प्रियता,
आहत हो व्याकुल हो जाता,
तब वह पास नहीं होता है
सहसा हृास नहीं होता है।

वैश्विक उत्थानों से गिरकर,
देखो हम अब कहाँ पड़े हैं,
जहाँ जगत संग दौड़ लगानी,
हम दलदल में क्षुब्ध खड़े हैं,
नहीं एक दिन यह कारण,
सदियाँ खोयी अलसायी सी,
वर्तमान हतमान तिरोहित,
दिवास्वप्न में बौरायी सी,
दिशाछलित अवक्षरित पतित पथ,
क्यों विश्वास नहीं होता है?
सहसा हृास नहीं होता है।

श्रेष्ठ और उत्कृष्ट, शब्द दो,
परिचय कर्मशीलता प्रेरित,
कालजयी यात्रा की संतति,
हस्ताक्षर स्पष्ट उकेरित,
प्राप्त बढ़त, आगत संसाधन,
सुविधाओं में मोड़े होंगे,
एक नहीं शत शत नित अवसर,
हमने रण में छोड़े होंगे,
स्थिति यथा टिके रहने का,
क्यों अभ्यास नहीं होता है?
सहसा हृास नहीं होता है।

है हतभाग, वृहद, विस्तृत यह,
मन उद्वेलित नहीं तनिक भी,
कल की भाँति आज संयोजित
उत्कण्ठा भी नहीं क्षणिक सी,
जो है, जैसा, जैसे भी हो,
जीवन जी कर पार कर रहे,
भाग्य सहारे, सर्व बिसारे,
यथारूप स्वीकार कर रहे,
क्षणवत कणवत अवगति पाते,
क्यों मन त्रास नहीं होता है ?
सहसा हृास नहीं होता है।

परत चढ़ाये हम वर्षों से,
विगति बनाये बैठे हैं,
मनस सहस्त्रों दोष छिपाये,
तमस चढ़ाये बैठे हैं,
लज्जा कैसी कह देने में,
मुक्ति नहीं है, अन्य कहीं,
जड़ें अभी गहरी जीवन की,
पुनः प्रखर हों जमें वहीं,
अपने अपनापन तज देते,
जब संवाद नहीं होता है,
सहसा हृास नहीं होता है।

7.7.19

खोटो खरो रावरो हौं

बुरा हूँ, अच्छा हूँ, जैसा भी हूँ, आपका हूँ। यह एक साधारण सा लगने वाला वाक्य जीवन को कितने निरर्थक श्रम से बचा लेता है। 

कोई भी पूर्णत्व लेकर जन्म नहीं लेता है। सबके अपने व्यक्तित्वों में छुपी खटकती तुच्छतायें हैं, गर्वित प्राप्त उपलब्धियाँ हैं। जब भी हम किसी के संपर्क में आते हैं, प्रभावित करने के क्रम में अपने दोषों को छिपाने का उपक्रम प्रारम्भ हो जाता है। उससे भी कठिन तो होता है अपनी उपलब्धियों को बढ़ा चढ़ाकर प्रदर्शित कर प्रशंसा बटोरने का उपक्रम। कभी सोचा है कि दोनों में ही कितनी ऊर्जा निचुड़ जाती है। यदि संपर्क अधिक समय को हो तो दिन रात यही संशय रहता है कि प्रस्तुति कहीं विपरीत हुयी तो पोल खुली। यदि संपर्क जीवन भर का हो तो व्यक्तित्व अनावश्यक मानसिक खिंचाव सहन करता रहता है, अपने आप को चाहते हुये भी बदलने लगता है और अन्ततः आत्म समर्पण कर देता है।

पर स्वयं ही, स्वयं को यथारूप स्वीकार करने का आग्रह है यह वाक्य। यह आत्म समर्पण नहीं हैं, आप स्वयं को बदलने को भी नहीं कह रहे हैं। आप जैसे हैं, वैसे ही स्वयं को बता रहे हैं। पारदर्शिता छद्मता से पार पा प्रकट हो रही है, कुछ भी छिपाने की आवश्यकता नहीं है। आप दोष त्याग देने का वचन भी नहीं दे रहे हैं और न ही अपने गुणों का दम्भ ही भर रहे हैं। यदि कोई भावतरंग यहाँ प्रधान है तो वह स्वयं को आपसे जोड़ने की है, रावरों हौं, आपका हूँ। खोटो और खरो, दोनों ही भाव गौड़ हो गये हैं यहाँ।

इस वाक्य को कह कर देखिये, छल कपट जनित सारी जटिलतायें क्षण भर में बह जायेंगी। किससे कहना है, किसको आप से कहना है, इस प्रश्न को अहं के परे ले जाकर, उन सबसे कह डालिये जिनसे आप अपने व्यक्तित्व को व्यक्त करने में असहज अनुभव कर रहे हैं। उन सबसे कह डालिये जो अपने चारों ओर एक कृत्रिम आवरण चढ़ा कर बैठे हैं और आपको जानबूझ कर नहीं समझना चाहते हैं। उन सबसे कह डालिये जिनसे आपका परस्पर अपेक्षाओं के बारे में कभी खुलकर विचार विनिमय नहीं हुआ है। उन सबसे भी कह डालिये जो प्रेमवश आपको दोषों को अनदेखा कर आप पर अपना स्नेह लुटाये जा रहे हैं। जहाँ भी पानी रुका है, प्रवाह अवरुद्ध है, असहजता आरोही है, यह वाक्य रामबाण है।

वाक्य का प्रसंग बता देने से जो रस आपको अभी मिलने लगा है, वह कहीं कम न हो जाये, इसलिये विलम्बित कर रहा हूँ।

किशोरावस्था में कई पुस्तकें पढ़ी थी कि किस प्रकार आवरण चढ़ाकर औरों को प्रभावित करें, अपना प्रभाव बढ़ायें, सफलता प्राप्त करें। मन से स्वीकार तो उस समय भी नहीं हुआ था यह छल। छलावा लगता था कृत्रिम आवरण। काँटा कठोर है, तीखा है पर उसका कार्य भी वही है, वह कैसे पुष्प का आवरण चढ़ा पायेगा। शीर्षक तो उस विचार की मूल प्रतिपक्षता है। मुझे अभी तक यही लगता था कि मेरा मत क्षीण ही सही, आधुनिक प्रबन्धकों के विपरीत ही सही, पर मेरे लिये तो वही मेरा सत्य है। यही कारण रहा कि कभी आवरण में जी ही नहीं पाया। यह वाक्य पढ़ने के बाद जो अतुलनीय आधार मन को मिला है, वह अवर्णनीय है।

यदि यह वाक्य आपसे कहा जाय तो आपकी प्रतिक्रिया क्या रहेगी ? आपका वाचक के प्रति विश्वास कम होगा कि बढ़ेगा ? उसके गुण और दोष आपको अपने लगने लगेंगे। आप उसकी सहायता करने को उद्धत हो जायेंगे। अपने दोषों को प्रेममना हो स्वीकार करना सरल नहीं है, मन को चिन्तन और परिवर्धन की अनन्त राह में तपा कर आता होगा यह भाव।


जब यह पढ़ा था, बहुत दिन तक सोचता ही रहा। चिन्तन की अनिवार्यता से बचा जा सकता था यदि इस वाक्य को “भक्ति” कह कर आगे बढ़ जाता। विनय पत्रिका का ७५ वाँ पद है, तुलसीदास की आध्यात्मिक परिपक्वता का सहज निरूपण। अध्यात्म से आत्म का परिपोषण, समाज को सहेजे रखने का अनिवार्य मन्त्र, खोटो खरो रावरों हौं।