पतंजलि योग सूत्र के प्रथम पाद समाधिपाद के ३३ वें सूत्र में है यह उल्लेख। कुल १९६ सूत्रों में संकलित यह दर्शन, अन्य आधुनिक दर्शनों की भाँति बुद्धिविलास या शब्द-मृगालजाल नहीं अपितु एक करणीय और अनुभवजन्य प्रक्रिया है। योग के बारे में जितने लोगों से बात की, कुछ को छोड़कर शेष सभी की जानकारी या तो अपरिपूर्ण पायी या एकपक्षीय । वह तो भला हो कि विगत कुछ वर्षों से योग जैसे संस्कृति-रत्न को समुचित प्रचार व मान मिला है नहीं तो योग मात्र कुछ कठिन और जटिल शरीर-मुद्राओं के रूप में जनमानस में प्रचलित था। मेरे लिये और मेरे जैसे अनेकों भारतीयों के लिये कारण एक ही था कि कभी भी हमने मूल पाठ करने का प्रयत्न ही नहीं किया। और जब अन्ततः अर्धज्ञान से विक्षिप्त हो मूलपाठ करना पड़ा तब लगा कि हमें बचपन से संस्कृत क्यों नहीं पढ़ायी गयी, ऐसे रत्नों के बारे में क्यों नहीं बताया गया। केवल १९६ सूत्र, एक दिन से भी कम समय लगता, यदि संस्कृत आती होती या कोई बताने वाला रहता। न मिले अवसरों के बारे में, शिक्षा पद्धति के बारे में, संस्कृति और संस्कृत के बारे में फिर कभी चर्चा।
बीच से सूत्र प्रारम्भ करने से संदर्भरहित स्थिति उत्पन्न होने का भय है अतः प्रथम से ३२ वें सूत्र तक का सारांश रख देना उचित रहेगा। चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है। तब दृष्टा अपने स्वरूप में आता है अन्यथा वह वृत्तियों के सारूप्य रहता है। वृत्तियाँ ५ हैं, प्रमाण, विपर्याय, विकल्प, निद्रा, स्मृति। अभ्यास और वैराग्य से वह निरोध आता है। अपनी स्थिति पर यत्नपूर्वक बने रहना अभ्यास है, इन्द्रिय विषयों से वितृष्णा वैराग्य है। प्रकृतिलय और विदेह अभ्यास व वैराग्य की परिपक्व स्थितियाँ है, इनके लिये समाधि सहज है। शेष सबको श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञापूर्वक योग सिद्ध करना होता है। या ईश्वर की शरणागति से यह शीघ्र सिद्ध हो जाती है। ईश्वर क्लेश, कर्म, विपाक व आशय से रहित और पुरुषविशेष है। वह सर्वज्ञ, सबका गुरू व काल से अवच्छेद है। ओंकार उसका नाम है। ओंकार जपने से ईश्वर का भाव आता है जिससे ९ चित्तविक्षेप सह ५ विघ्न नष्ट हो जाते हैं।
तत्पश्चात पतंजलि चित्तविक्षेप रोकने हेतु अन्य उपायों की चर्चा करते हैं। एकतत्व अभ्यास चित्त को सप्रयास एक तत्व पर बार बार लगाने को कहते हैं। दूसरा उपाय इस लेख का शीर्षक है। सुखी, दुखी, पुण्यात्मा व पापात्मा से क्रमशः मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का भाव रखने से चित्त शुद्ध होता है। चित्त को साधने के वर्णित उपाय मुख्यतः आध्यात्मिक, बौद्धिक या शारीरिक स्तर पर हैं। यह उपाय सामाजिक स्तर पर कार्य करता है। योग को पूर्णतः व्यक्तिगत या आन्तरिक प्रक्रिया मान लेना एक संकुचित दृष्टि है। योग की व्याप्ति पूर्ण है। योगः कर्मषु कौशलम् । श्रीकृष्ण इस तथ्य को उच्चारित करते हैं कि कर्मों में कौशल योग से ही है।
समाज में रहने के कारण कई वाह्य कारक हमें जाने अनजाने प्रभावित करते रहते हैं। किससे किस प्रकार का व्यवहार करना है, यह प्रश्न सदा ही उठता रहता है। सबके प्रति सम व्यवहार न संभव है और न ही उचित। विवेक के अनुसार निर्णय लेना पड़ता है। निश्चय ही स्थितिप्रज्ञता में भौतिक विभेद चित्त को प्रभावित नहीं करते होंगे पर उस स्थिति तक पहुँचने के पहले हमें चित्त को स्थिर करना आना चाहिये, नीर-क्षीर विवेक होना चाहिये। उल्लिखित उपाय समाज से अधिक स्वयं के कलुष दूर करने में सहायक होते हैं।
राग, ईर्ष्या, परापकार, असूया, द्वेष और अमर्ष। ये ६ कालुष्य हैं जो सामाजिक संबंधों को प्रभावित करते हैं। सुख की अनुभूति को पुनः पाने की लालसा राग है। दुख की अनुभूति को पुनः न आने देने की भावना द्वेष है। किसी की प्राप्ति या उपलब्धि पर उसे स्वयं न पाने की वेदना ईर्ष्या है। परिस्थितियाँ मनोनकूल न होने से किसी का अहित करने का भाव परापकार है। किसी के गुण को अन्य दोष आरोपित कर छोटा दिखाने की प्रवृत्ति असूया है। किसी के अपजानजनक वचनों को सुन विचलित हो जाना या सहन न कर पाना अमर्ष है।
सुखी को देखकर मुख्यतः अपने राग या ईर्ष्या के भाव जागृत होते हैं। उसके प्रति मित्रता का भाव रखने से उसकी उपलब्धियों व प्रयासो के प्रति आदर का भाव आता है और आपके राग व ईर्ष्या क्रमशः प्रसन्नता व उत्साह में बदल जाते हैं। किसी दुखी को देखकर उसकी मूर्खताओं पर क्रोध आता है और स्वयं उससे भागने का विचार उत्पन्न होता है। करुणा की भावना क्रोध को सहयोग और सहायता में बदल देती है। पुण्यात्मा को देख कर प्रथमतः असूया होता है। उसकी महानता को छोटा करने का प्रयास हम करने लगते हैं। वह ज्ञानी है किन्तु अभिमानी है, वह तो अपनी प्रतिष्ठा के लिये ही दान करता है। इस प्रकार के निर्णय देकर से हम प्रकारान्तर से स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने का प्रयत्न करते हैं। मुदिता का भाव, अच्छे कार्यों को देख कर प्रसन्नता का भाव हमारी तुच्छता को ढेर कर देता है और अच्छे कार्य करने वाले के उत्साह का कारण भी बनता है। इसी प्रकार पापात्मा को देखकर उसके प्रति द्वेष या अमर्ष के भाव न रखते हुये उपेक्षा से उसे महत्वहीन बना देना उचित है। इस बात पर सार्थक चर्चा हो सकती है कि पापात्मा को दण्ड या पीड़ा मिलनी चाहिये। जो सक्षम हैं और जो व्यवस्था के दायित्व में हैं, वे उसको देंगे भी। पर उसके पहले ही पापात्मा द्वारा मचाये उत्पात में शाब्दिक रूप से सम्मिलित हो जाने से उसकी मानसिकता और ध्येय, दोनों ही पुष्ट होते हैं। अतःउन्हें उपेक्षित करना ही उचित है।
शान्तचित्त न केवल समाधि जैसे आध्यात्मिक ध्येयों में सहायक है वरन सामान्य जीवन के कार्यों में अथाह ऊर्जा का स्रोत है। मुझे तो ये चार उपाय योग के व्यवहारिक और करणीय प्रक्रिया के अंगरूप में स्वीकार्य हैं। आपके चित्त की वृत्ति क्या है?