पाँचवा बहिरंग प्रत्याहार है। हरण न होने देने का भाव। प्रति आ हृ, प्रति और आ उपसर्ग हैं, प्रति अर्थात विपरीत, आ अर्थात पूरी तरह, हृ धातु का अर्थ है हरण करना। हरण किसका, इन्द्रियों का, हरण किसके द्वारा, विषयों के द्वारा। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषय हैं इन इन्द्रियों के। कान से सुनना, शब्द। आँख से देखना, रूप। जिह्वा से चखना, रस। नाक से सूँघना, गंध। त्वचा से छूना, स्पर्श। पाँच विषय अपने प्रकारान्तर लिये हुये हैं, असीमित मात्रा में हैं, प्रचुर मात्रा में हैं, सहज उपलब्ध हैं, प्रकृति को गतिमान किये हुये हैं, विविधता बनाये हुये हैं। प्रकृति के पाँच तत्वों का सीधा संबंध इन विषयों से है। शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श क्रमशः आकाश, अग्नि, जल, पृथ्वी और वायु से संबद्ध हैं।
विषय इतने प्रबल होते हैं कि हर लेते हैं। विषय, इन्द्रिय और मन के संबंध के बारे में व्यास भाष्य में लिखते हैं कि संबंध अयस्कान्तमणि(चुम्बक) और लोहे के समान है। विषय चुम्बक, इन्द्रिय लोहा। इन्द्रिय चुम्बक, मन लोहा। निकटता के आने से इनका प्रभाव पड़ता है। जब विषय पास होगा या उपस्थित होगा तो इन्द्रियाँ खिंची चली आयेंगी। आसक्ति यदि अधिक गहरी हो तो खिचाव और उत्कट हो जाता है, बलवान हो जाता है। जब इन्द्रिय किसी विषय में प्रवृत्त होती है तो मन भी स्वतः खिंचा चला जाता है, स्वतः सहयोग भी करने लगता है, पहुँचने का प्रयास करता है, साधन जुटाने लगता है।
इस कार्यशैली को समझने के लिये एक सटीक उदाहरण रथ का है। शरीर रथ है, आत्मा रथी, बुद्धि सारथी, मन वल्गा या लगाम, इन्द्रियाँ अश्व, विषय अश्वपथ। रथ जिस ओर जाता है, जिस ओर उसकी प्रवृत्ति होती है, उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि रथ अश्व संचालित कर रहे हैं या रथी? विवेक नियन्त्रण में है कि मन या इन्द्रिय? रथी भोक्ता है, अपनी इच्छा करे या इन्द्रियों से सहमत हो। जन सामान्य को देख कर तो यही लगता है कि पथ निर्धारित कर रहे हैं कि रथ किस ओर जायेगा। माया का पथजाल प्रकृति को गतिमय किये हुये है। प्रवृत्ति दिशाहीन, असम्यक और अनियन्त्रित है।
प्रत्याहार का अर्थ है, इन्द्रियों का अपने विषय से असम्प्रयोग एवं इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप के जैसे हो जाना। प्रश्न यह उठता है कि वाह्य इन्द्रियाँ तो वैसे भी मन के विषय को नहीं जानती है। मन अन्तःकरण है, मन में होने वाली गतिविधियों को जानना या समझ पाना इन्द्रियों के लिये असंभव है, मन सूक्ष्म हैं, इन्द्रियाँ स्थूल। इन्द्रियाँ न ही चित्त की वृत्तियों को समझ सकती है। इसका अर्थ तब यही होगा कि जहाँ मन लगा रहेगा, इन्द्रियाँ उसके विरूद्ध नहीं जायें, मन के कार्य में बाधा नहीं उत्पन्न करें। मन के कार्यों में सहमति हो, अपने विषयों में प्रवृत्त होने की अभिलाषा न हो। जहाँ मन रुक जाये वहाँ सारी इन्द्रिय भी रुक जायें, जहाँ मन चले वहाँ सारी इन्द्रिय प्रवृत्त हो जायें, सहयोग करें। व्यास भाष्य में रानी मक्खी का उदाहरण देते हैं। जहाँ रानी मक्खी जाती है, सारी अन्य मक्खियाँ उसका अनुसरण करती हैं, जहाँ वह बैठ जाती है, सब बैठ जाती हैं।
एक इन्द्रिय को रोकने के उपक्रम में हो सकता है कि कोई अन्य इन्द्रिय अपने विषय के प्रति आकृष्ट हो रही हो। मन एक से हटा पर दूसरे सें लग जाता है। अब उसको रोकने का उपक्रम और उतना ही प्रयास। पर प्रत्याहार में मन के रोकने पर सब रुक जाती हैं और मन के चलने पर सब चलने लगती हैं। एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय। स्रोत वही है, मन। सब वहीं से संचालित होता है। एक सहज प्रश्न उठ सकता है कि यदि सब मन से ही संचालित होता है, यदि प्रत्याहार करने से ही सारी इन्द्रियाँ वश में आ जाती हैं तो यम, नियम आदि करने का क्या उपयोग? सीधे ही मन को साधें। सिद्धान्त सरल है, व्यवहार कठिन। प्रक्रिया यदि क्रमिक विकास से आये तो ही प्रभावकारी होती है। अर्जुन कहते भी हैं कि चंचलं हि मनः कृष्णः। मन इतना चंचल है कि यह बलपूर्वक हर लेता है और इसे निग्रह कर पाना वायु स्थिर कर पाने से भी अधिक दुष्कर है। कृष्ण का उत्तर था, अभ्यास और वैराग्य। प्रत्याहार एक वैराग्य सी स्थिति है, उसके पीछे अभ्यास की साधना का होना तो आवश्यक है।
पत्थर में एक चोट करने से मूर्ति का स्वरूप नहीं आता है। सहस्रों छोटी बड़ी चोटें करनी पड़ती हैं। मन भी एक बार दृढ़ निश्चय करने से सहम कर नहीं बैठ जाता है। वह उद्दण्ड है और ऊर्जित भी, उसे सारी इन्द्रियों का समर्थन प्राप्त है, वह आपके नियन्त्रण से कब ओझल हो जायेगा, आपको पता भी नहीं चलेगा। मन में जमें हुये संस्कारों को प्रतिदिन क्षीण करना पड़ता है। मन के मैल को प्रतिदिन धोना पड़ता है। काम, क्रोध लोभ, मोह, मद और मत्सर से प्रतिदिन जूझना पड़ता है। एक एक इन्द्रिय को प्रतिदिन समझाना पड़ता है कि आपका पथ रथी के समग्र हित में नहीं है, आपका पथ अल्पकालिक भोग की अभिव्यक्ति है। रथी का हित दीर्घकालिक व्यवस्थाओं में है, संरचनाओं में है, धारण में है, धर्म में है। इन्द्रिय को रोकने का एक क्रम मन को यही संदेश देता है और विषयों के बारे में जो संस्कार बने हुये है, उसे तनिक क्षीण कर जाता है। दिनचर्या का यही सुकार्य है, यही महती उपयोग है। दिनचर्या को हम ऐसे उत्कृष्ट लघु कार्यों से भर दें कि अन्यत्र विचरण का समय ही न हो। एक ऐसा उद्देश्य सामने दिखता रहे कि इन्द्रिय विषय उसके सामने क्षुद्रता से लगें। दिनचर्या सीढ़ी सी है, एक जैसी, हर दिन। यह तो कुछ वर्ष बाद ही पता चलता है कि हम किस ऊँचाई तक पहुँच गये।
प्रत्याहार की सिद्धि से इन्द्रियों की परमवश्यता हो जाती है, इन्द्रियाँ पूरी तरह से नियन्त्रण में आ जाती हैं। प्रत्याहार से काम क्रोध लोभ मोह मद और मत्सर , ये ६ शत्रु नष्ट होते है। मान्यता यह है कि प्रत्याहार का प्रयोग ध्यानकाल में ही होता है क्योंकि व्यवहार काल में तो इन्द्रियाँ अपने विषयों के संपर्क में रहेंगी ही। पर भाष्य कहता है कि इसका प्रयोग ध्यानकाल में तो होता ही है पर व्यवहार काल में भी होता है, पूरे समय।
५ स्तर बताये गये हैं, प्रत्याहार के। प्रथम स्तर है, व्यसन न होना। व्यसन है बार बार विषय पर मन पहुँच जाना, जिसके बिना रहा न जाये। यदि वह न मिले तो अन्य क्रम बाधित हो जाये। किसी अन्य के लिये निर्धारित समय या संसाधन हो पर उसी व्यसन वाले कर्म में लग जाये। नियमित कार्य बाधित होने लगें। मोबाइल देखने में इतना लग गये खाना बनाना भूल गये। चाय नहीं मिली तो दिन भारी लगने लगा। व्यसन न होना इन्द्रियजय है, प्रथम स्तर का प्रत्याहार है। यदि मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, अन्य कर्मों में कोई बाधा नहीं। अहानिकारक विषयों से संयोग दूसरे स्तर का प्रत्याहार है, इन्द्रियजय है। विपरीत न हो, अति न हो, सीमा में रहे, शास्त्रसम्मत हो, यह भी इन्द्रियजय है। तीसरे स्तर का इन्द्रियजय है, विषय आदि से स्वेच्छा से सम्प्रयोग कर पाना। इच्छानुसार प्राथमिकता निर्धारित कर पाना, यदि कुछ महत्वपूर्ण हाथ में है तो अन्य विषयों को टाल पाना, जो निर्धारित किया है उसमें उद्धत हो पाना।
इन तीन स्तरों में इन्द्रियजय में राग, द्वेष, सुख, दुख के भाव भरे हो सकते हैं, पर उनमें किसी एक न एक विमा में इन्द्रियजय किया गया है। चतुर्थ स्तर में राग, द्वेष, सुख, दुख के भाव के बिना ही विषयादि का सेवन। यह कठिन स्तर है पर क्रमिक है। पंचम स्तर है, विषय संयोग शून्यता, विषयों का सेवन ही नहीं करना। यह प्रत्याहार की उच्चतम स्थिति है। जैगीषव्य ऋषि इसे चित्त की एकाग्रता आने के कारण आयी अप्रवृत्ति कहते हैं। मन में प्रछन्न लौल्य रहता है कि चलो आज देखते हैं मन नियन्त्रण में है कि नहीं? हम साधना के किस स्तर पर पहुँच गये हैं? इस स्तर में यह भी नहीं करना है। यही परमवश्यता है, यही प्रत्याहार है।
अगले ब्लाग में अंतरंग योग।