भान मुझको सत्य क्या है ?
सतत सुख का तत्व क्या है ?
किन्तु सुखक्रम से रहित हूँ,
काल के भ्रम से छलित हूँ,
मुक्ति की इच्छा समेटे,
भुक्ति को विधिवत लपेटे,
क्षुब्धता से तीक्ष्ण पीड़ित,
क्यों बँधा हूँ, क्यों दुखी हूँ ?
डगमगाते पैर क्यों हैं,
डबडबाती दृष्टि क्यों है,
राह सामने दीखती है,
क्रुद्ध होकर चीखती है,
बुद्धि का मत छोड़कर क्यों,
अंध मन-पथ जा रहा हूँ ।।
कठिन है यूँ रुद्ध जीना,
बद्ध पीड़ा, पर कही ना,
सौम्यता के आवरण में,
नित प्रवर्धित जाल मन में,
शब्द कैसे सी सकूँगा,
शान्त कैसे जी सकूँगा ।।
व्यक्त मुख पर कृत्रिमता है,
स्वार्थपूरित मृगतृषा है,
मैं अकेला भटकता हूँ,
प्रेम क्षण-कण ढूँढ़ता हूँ ।
कौन जाने, और कब तक,
सहज होगा चित्त मेरा ।।
नहीं वश में, व्यक्त क्या है ?
भान फिर भी, सत्य क्या है ?
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 19 दिसम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-12-2016) को "तुम्हारी याद स्थगित है इन दिनों" (चर्चा अंक-2561) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteजीवन की विडंबना यही है शायद....
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteयही है आज का कटु सत्य...
ReplyDeleteहृदयभेदी ।
ReplyDeleteमन के मंथन की सार्थ अभिव्यक्ति !
ReplyDeletewaah behtareen rachna
ReplyDeleteSundar
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