जब कभी लगता है कि लेखन में आनन्द नहीं आ रहा है तो लेखन कम हो जाता है।
लेखन अपने आप में एक स्वयंसिद्ध प्रक्रिया नहीं है। इसके कई कारक और प्रभाव होते हैं। क्यों लिखा जाये, कैसे लिखा जाये और क्या लिखा जाये, ये मूल प्रश्न आठ वर्ष के ब्लॉग लेखन के बाद आज भी निर्लज्ज प्रस्तुत हो जाते हैं। लेखन के प्रभाव बिन्दु पठन के कारक होते हैं। क्यों पढ़ा जाये, क्या पढ़ा जाये, इस पर निर्भर करता है कि क्या लिखा जाये। जीवन में बहुधा लगता है कि केवल शुष्क ज्ञान ही ग्रहण हो रहा है और उसका कोई अनुशीलन नहीं हो रहा है। तब जीना प्रारम्भ हो जाता है, ज्ञान का व्यवहार बढ़ जाता है, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब सारगर्भित ज्ञान के सूत्र मिलने लगते हैं तो विस्तार से मन हट जाता है, सूत्रों और शब्दों पर ही मनन करने में दिन निकल जाते हैं, पढ़ना कम हो जाता है, लिखना कम हो जाता है। जब कभी गहराई मिलती है, सिद्धान्तों के सुलझाव समझ में आने लगते हैं, तब मात्र पढ़ते रहने का मन करने लगता है, लिखना कम हो जाता है।
तीन वर्ष पहले मन में एक भाव उठा कि एक पुस्तक लिखी जाये। विषय बहुत थे जिन पर लिखा जा सकता था, हल्के और भारी, दोनों ही विषय थे। कई मित्रों से चर्चा की। उसी क्रम में एक कठोर सुझाव भी आया। जब तक लिखने की उत्कट इच्छा न हो, तब तक पुस्तक न लिखें। मन के विचार और उनमें समाहित विविधता व्यक्त करने के लिये ब्लॉग एक सशक्त माध्यम है। यदि कुछ लिखना ही हो तो ऐसा लिखा जाये जिसमें कुछ वैशिष्ट्य हो। वह वैशिष्ट्य लाने के लिये स्तरीय अध्ययन आवश्यक है। अनुभव को एक बार ही व्यक्त किया जा सकता है क्योंकि कल्पना हर बार नव कलेवर ओढ़ कर नहीं आ सकती है। इस तथ्य पर पर्याप्त सोचने के बाद पुस्तक लिखने का विचार स्थगित कर दिया गया। जो विषय पुस्तक के बारे में सोचे थे, उन्हें भी चिन्तन की प्रथम पंक्ति से उठा कर पीछे बैठा दिया गया। सहसा लगा कि सभी विषयों ने विद्रोह सा कर दिया हो। न कोई नवविचार, न कोई रोचक दृष्टिकोण, स्तब्ध सी मनःस्थिति, लिखना कम हो गया। अच्छी बात पर यह रही कि पढ़ना कम नहीं हुआ।
यह सत्य है कि व्यस्तता रही, पर व्यस्तता के कारण नियमित लिखने का समय नहीं मिला, यह तथ्य तर्कपूर्ण नहीं लगा। बहुधा अच्छा लेखन व्यस्तता के समय में ही लिखा है, एक प्रवाह में, बहुत कम समय में। जब बलात लिखने का प्रयास होता है तो उतना ही लिखने में बहुत समय लग जाता है। पता नहीं क्यों, पर प्रवाह कम हो गया। उतना ही लिखने के लिये अधिक मानसिक श्रम करना पड़ता था, आनन्द की मात्रा कम होती गयी, लिखना कम होता गया। प्रवाह क्यों कम होता है, यह समझ नहीं आता है, पर जब प्रवाह कम हो जाता है तो कुछ समझ नहीं आता है।
स्वाध्याय के क्रम में जब प्राचीन ज्ञान को समझना प्रारम्भ किया तो दो विशेष तथ्यों से साक्षात्कार हुआ। पहला अनुबन्ध चतुष्ट्य और दूसरा सूत्र शैली।
अनुबन्ध चतुष्ट्य वे चार बन्धन हैं जिनका लेखक को अनुसरण करना पड़ता है। अनुसरण करने के लिये आवश्यक है कि उन्हें पुस्तक के प्रारम्भ में ही घोषित कर दिया जाये। भारतीय ज्ञान परंपरा में यह बन्धन एक स्थायी स्तंभ रहा है। ये चार हैं - विषय, प्रयोजन, अधिकारी और सम्ब्न्ध। किस विषय पर पुस्तक है, यह प्रारम्भ में ही घोषित करना होता है। जब उस विषय पर कितना कुछ लिखा जा चुका है तो वर्तमान प्रयत्न का प्रयोजन क्या है। कौन व्यक्ति इसे पढ़ने के योग्य हैं या किसको समझ में यह पुस्तक आयेगी। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद उस व्यक्ति में क्या परिवर्तन आयेगा। सीमायें वहुत ही स्पष्ट रूप से निर्धारित की गयी हैं। हम बहुधा केवल विषय पर ही सोच कर बैठ जाते हैं, किसी विषय में यदि थोड़ा अधिक जान जाते हैं तो लगता है कि उसे व्यक्त कर दिया जाये। शेष तीन पर तो विचार आता ही नहीं है। संभवतः अनुबन्ध चतुष्ट्य ही कारण रहा होगा कि प्राचीन समय में अनावश्यक साहित्य छन गया और बाहर नहीं आया। पुस्तक लिखना तब एक विशेष उपलब्धि रहा करती होगी। जो छनकर कालान्तर में बाहर आया, वह बार बार पढ़ने का मन करता है, वह संस्कृति की धरोहर बना।
अनुबन्ध चतुष्ट्य को यदि पुस्तक लिखने का आधार बनाया जाये तो बहुत से संशय दूर हो जाते हैं। न केवल लेखक के लिये वरन पाठक के लिये भी। जिन सिद्धान्तों पर लेखन होता है उन्हीं पर पाठन भी होता है। विषय का विस्तार असीमित है, सबकी अपनी एक कहानी है, सबकी अपनी समझ और परख है। सब अपनी कहने में आ जायें तो लिखने वाले अधिक हो जायेंगे, पढ़ने वाले कम। जैसे आजकल किसी भी चर्चा में कहने वाले अधिक रहते हैं और सुनने वाले कम मिलते हैं। केवल अपनी कह देना विषय नहीं हो सकता। उसमें कुछ मनोरंजन हो सकता है, कुछ भाव हो सकते हैं, कुछ खिचड़ी सा हो सकता है वह, पर स्वादिष्ट साहित्य नहीं हो सकता। आँकड़े देखें तो यही हो रहा है, २० लाख पुस्तकें हर वर्ष लिखी जाती हैं और औसत २५० प्रतियाँ प्रति पुस्तक बिकती हैं। अधिकांश के लिये तो पुस्तक का मूल्य और लगाया हुआ श्रम भी निकाल पाना कठिन होता है।
यदि बताने के लिये सारतत्व है, तो भी बिना प्रयोजन के लेखन का कोई औचित्य नहीं। जब विषय जीवन से जुड़ा होगा, कल्याण से जुड़ा होगा, ज्ञान से जुड़ा होगा, तो उसका प्रयोजन उतना ही अधिक होगा। अधिकारी प्रारम्भ में ही निर्धारित कर देने से लेखक के लिये अपना बौद्धिक स्तर नियत कर पाना सरल होता है। पुस्तक का आकार इस पर विशेष रूप से निर्भर करता है। यदि आप किसी विषय पर सर्वसाधारण के लिये लिख रहे हैं, तो हर पक्ष को समझा समझा कर लिखना होगा और पुस्तक का आकार बढ़ जायेगा। किसी भी जटिल पक्ष पर जाने के लिये आपको अत्यन्त कठिनाई होगी। आपको उदाहरणों औप कथाओं को विशेषरूप से सम्मिलित करना होगा। दूसरी और यदि प्रबुद्ध वर्ग के लिये कोई विषय व्याख्यायित किया जा रहा है तो कम शब्दों में अधिक बात कही जा सकती है। दोनों ही साधनों में विषय की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं किया जाता है, बस पुस्तक का आकार अधिकारी के अनुसार घटता बढ़ता रहता है। जब कई शास्त्र सूत्र के प्रारूप में दिखायी पड़ते हैं तो लिखने वाले और उन्हें पढ़ने वालों का उत्कृष्ट बौद्धिक स्तर समझ में आता है।
लेखकीय संतुलन के और पक्ष अगले ब्लॉग में।
निरंतर लेखन के लिए किसी न किसी तरह का प्रोत्साहन आवश्यक है. चाहे मौद्रिक हो, चाहे प्रशंसकीय... :)
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (05-12-2016) को "फकीर ही फकीर" (चर्चा अंक-2547) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जब कभी लगता है कि लेखन में आनन्द नहीं आ रहा है तो लेखन कम हो जाता है। ,....यहाँ तो कुछ परिवारिक कारणों से बंद ही हो गया था...फुरसतिया जी पैट्रोल पंप की लाईन में लग कर हमें फ्यूल किये तो अब फिर से चले हैं होले होले...
ReplyDeletevery knowledgable and informative post..
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