अनुबन्ध चतुष्ट्य को लेखन का आधार मान लेने से इस विषय पर एक सुस्पष्टता आ जाती है। लिखने के पहले इस पर विचार कर लेने से लेखन का स्तर स्वतः ही बढ़ जाता है। इसका अनुपालन पुस्तक लिखने के अतिरिक्त लेखन की अन्य विधाओं में भी किया जाना चाहिये। चलिये, अपने ब्लॉग में इसे प्रयुक्त करते हैं। मेरे ब्लॉग के विषय विविध हैं, जीवन से जुड़े, अध्ययन किये हुये, सामाजिक अवलोकन के, आत्मिक अनुभव के, और ऐसे ही जाने कितने विषय। प्रयोजन मात्र अभिव्यक्ति है, विशुद्ध स्वार्थ, क्योंकि किसी विषय को लिखने और पाठकों को समझाने के क्रम में वह और भी स्पष्ट हो जाता है। बचपन में भी लिखकर पढ़ते थे, सीखते थे, समझते थे। लिखने और उस पर आयी टिप्पणियों से विषय की समझ और भी विस्तारित हो जाती है। प्रयोजन हिन्दी का प्रचार प्रसार भी है, जिन विषयों में समान्यतः अंग्रेजी का प्राधान्य है, उन्हें हिन्दी पाठकों के लिये सुलभ बनाना है। प्रयोजन उस विषय पर कोई विशिष्ट टीका या संदर्भ लिखना नहीं है। अधिकारी कोई भी है जो उस विषय में रुचि रखता हो, अधिकारी सर्वसाधारण हैं। सम्बन्ध बड़ा सरल है, ब्लॉग पढ़ने के बाद पाठक के जीवन में कोई विशेष परिवर्तन की आशा नहीं करता हूँ, बस पढ़ते समय पाठक उन्हीं भावनाओं से होकर निकले जिन भावनाओं से प्रेरित हो वह ब्लॉग लिखा गया था।
अपने ब्लॉग का अनुबन्ध चतुष्ट्य लिखने के बाद ऐसा लगा कि इन संदर्भों में कुछ विशेष और स्तरीय लेखन नहीं कर पा रहा हूँ, संभवतः इसीलिये आनन्द का भाव नहीं जग पा रहा है। सतही अनुभव और परिधि में घूमने में तो कोई आनन्द नहीं, जाना तो केन्द्र तक पड़ेगा तभी कुछ तत्व मिलेगा। उन विषयों पर लिखने में अत्यधिक संतुष्टि मिली जिन पर गहराई में उतर कर लिखा, विषय को सामान्य से अधिक समझा, विषय के सब पक्षों को समझ और समझा पाया। निश्चय ही संतुष्टि की उन स्मृतियों को अपने लेखकीय जीवन में पुनर्स्थापित करना पड़ेगा, तब कहीं आनन्द के कुछ छींटे मन पर पड़ेंगे।
सूत्र शैली भारत की ज्ञान परंपरा की अत्यन्त सशक्त विधा है। यह साक्षी है कि उस समय के संवाद, लेखन और अभिव्यक्ति का बौद्धिक स्तर कितना उत्कृष्ट था। योगसूत्र जैसा कठिन विषय पतंजलि ने मात्र १९५ सूत्रों में लिख दिया, या कहें तो लगभग ६० श्लोकों में। पाणिनी ने पूरी संस्कृत व्याकरण मात्र ४००० सूत्रों में समाहित कर दी। सांख्य के प्रणेता कपिल मुनि ने मात्र २२ सूत्रों में अपने सिद्धान्त के प्रतिपादित किया। सूत्र में न्यूनतम शब्दों का प्रयोग उसे शाब्दिक कोलाहल से मुक्त कर और भी प्रभावी बना देता है। शब्दों का चयन सूत्र के अर्थ को असंदिग्ध रूप से व्यक्त करने में समर्थ होता है। सारवत कहना, यह सूत्रशैली के ही हस्ताक्षर हैं, विचारों की श्रंखला को कम वाक्यों में कह पाने की शक्ति। यदि एक से अधिक अर्थ बताना आशय है तो उस कला में भी सूत्रशैली सटीक बैठती है, उपयुक्त शब्दों को प्रयोग से यह सुनिश्चित होता है। सूत्र भी लम्बे नहीं, छोटे से, याद करने में सरल, विस्तार से समझाने में सरल। एक तो संस्कृत स्वयं में ही कोलाहल मुक्त भाषा है, न्यूनतम शब्दों में अधिकतम प्रेषित करने की सक्षमता समाये भाषा। धातु, प्रत्यय, विभक्ति, उपसर्ग, प्रत्याहार, संधि, समास आदि सबका एकल उद्देश्य अभिव्यक्ति की सुगठता और सघनता है। उस भाषा में व्यक्त सूत्रशैली में एक भी अक्षर अतिरिक्त नहीं है, एक भी अर्थ लुप्त नहीं है। इस तथ्य की उद्घोषणा प्रणेताओं ने अपनी रचनाओं के पहले ही किया है।
अभिव्यक्ति की इस पराकाष्ठा को देखता हूँ तो गर्व भी होता है और लाज भी आती है। गर्व इस बात का कि हमारे पूर्वज सतत चिन्तनशील थे, अद्भुत मेधा के स्वामी थे। लाज इस बात की आती है कि उन पुरोधाओं की संतति होने के बाद भी, उनके द्वारा निर्मित संस्कृति का पलने का लाभ होने के बाद भी हम उन मानकों के आसपास भी नहीं छिटकते हैं। जितना पढ़ता हूँ, जितना सोचता और समझता हूँ उतना ही अभिभूत हो जाता हूँ। अब आप ही कल्पना कीजिये कि जब मन की स्थिति नित उन उच्च मानकों पर जी रही हो, उस समय कुछ भी ऐसा कहना जिसमें गुणवत्ता न हो, एक निष्कर्षहीन श्रम लगता है। यही कारण रहता होगा कि लेखन का आनन्द अल्पतर होता गया।
ऐसा नहीं है कि सूत्रशैली कोई कृत्रिम तकनीक है। शब्दों की शक्ति अथाह है, एक एक शब्द जीवन बदलने में समर्थ है। इतिहास साक्षी है कि सत्य, अहिंसा, समानता, न्याय, अपरिग्रह, धर्म आदि कितने ही शब्दों ने समाज, देश और संस्कृतियों की दिशा बदल दी है। पहले उन शब्दों को परिभाषित करना, संस्कृति में उनके अर्थ को पोषित करना, उन्हें विचारपूर्ण, सिद्धान्तपूर्ण बनाना। कई कालों में और धीरे धीरे शब्द शक्ति ग्रहण करते हैं। उदाहरणस्वरूप योग कहने को तो एक शब्द है पर पूरा जीवन इस एक शब्द से साधा जा सकता है। सत्य और अहिंसा जैसे दो शब्दों से गांधीजी ने देश के जनमानस की सोच बदल दी। ऐसे ही शब्दों ने राजनैतिक परिवर्तन भी कराये हैं और समाज की चेतना में ऊर्जा संचारित की है। व्यक्तिगत जीवन में भी सूत्रशैली की उपयोगिता है। बचपन परीक्षा की तैयारी करते समय किसी विषय को पढ़ते समय हम संक्षिप्त रूप में लिख लेते हैं ताकि परीक्षा के पहले कम समय में उन्हें दोहराया जा सके। यही नहीं, विज्ञान के बड़े बड़े सिद्धान्त भी गणितीय सूत्रों के रूप में व्यक्त किये जाते हैं।
सूत्रशैली का अर्थ मात्र संक्षिप्तीकरण नहीं है। वृहद अर्थों में देखा जाये तो यह एक संतुलन है। अनुबन्ध चतुष्ट्य जहाँ एक ओर आवश्यक और अनावश्यक के बीच संतुलन करता है, सूत्रशैली अधिकारी का निर्धारण कर विस्तार और संप्रेषणीयता के बीच संतुलन करती है। किसी सिद्धान्त को विस्तार से लिख देना सरल है पर उसे याद रख पाना और उचित समय में प्रयोग में ला पाना कठिन है। अत्यन्त क्लिष्ट करने से संक्षिप्तीकरण तो हो सकता है, पर उसकी संप्रेषणीयता में ग्रहण लग जाता है। शब्दों को उस सीमा तक न्यून किया जाये जब तक अर्थ पूर्णता से संप्रेषित होता रहे। जिस समय लगे कि एक भी शब्द हटाने से संप्रेषण प्रभावित होगा, वही सूत्र की इष्टतम स्थिति है। एक और शब्द जब अधिक और व्यर्थ प्रतीत हो तो समझ लीजिये कि आपने सूत्र पा लिया। संतुलन का अर्थ ही यही होता है कि दो विपरीत लगने वाले गुणों को किस सीमा तक साधा जाये कि प्रभाव महत्तम हो।
संतुलन में ही बुद्ध का मध्यमार्ग छिपा है, कृष्ण की स्थितिप्रज्ञता छिपी है, प्रकृति और पुरुष का साम्य छिपा है, जीवन के सफलतापूर्वक निर्वाह की कुंजी छिपी है।
जीवन और लेखन में संतुलन के अन्य उदाहरण अगले ब्लॉग में।