1.10.16

चीन यात्रा - १७

प्रकृति पुरुष का संग
व्यक्ति जब निश्चय कर लेता है कि उसे प्रकृति के साथ रहना है, समस्यायें स्वतः अपना समाधान ढूढ़ लाती हैं। प्रकृति की अवमानना या उस पर आधिपत्य के प्रयास अंततः विनाश के बीज बनते हैं। टाओ की प्रकृति से निकटस्थता का ऐसा ही एक सुन्दर उदाहरण है दूजिआनयान बाँध। चेन्दू सिचुआन राज्य में है और पर्वत की घाटी में होने के कारण यह क्षेत्र नदियों से प्लावित है। समस्या पहचानी सी है, वर्षा ऋतु में बाढ़ की। यदि बाढ़ से बचने के लिये नदियों से दूर रहा जाये तो अन्न उत्पादन और सूखे की समस्या। बाढ़ और सूखे की इस दुविधा से अपना देश भी दग्ध है। समाधान बाँध बनाना है, जब प्रवाह अधिक हो तो उसे रोक लिया जाये और सूखे के समय उस संचित जलराशि का उपयोग किया जाये। प्रकृति को चोट पहुँचाने के अतिरिक्त बाँध राजनैतिक चोट भी करते रहते हैं। कावेरी, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र पर बने या बनाये जाने बाँध इसके जीवन्त उदाहरण हैं। समाधान समस्या से भी भयावह तब हो जाता है जब प्रकृति अनियन्त्रित हो जाती है। अत्यधिक वर्षा में जब ये बाँध अपनी क्षमता से अधिक पानी एकत्र कर लेते हैं तो उनका खोलना और टूटना सिचिंत क्षेत्रों में जल प्रलय बन कर आता है। बिहार हर वर्ष उसका भुक्तभोगी है। कुछ क्षेत्र बाँधों का पूरा लाभ तो स्वयं उठा लेते हैं पर दुष्परिणाम अन्य क्षेत्रों को बढ़ा देते हैं।

परिसर का मानचित्र

संचयन शब्द टाओ की शब्दावली में नहीं है, अपरिग्रह या आवश्यकता से अधिक न रखना। प्रकृति प्रवाहमान रहे, बाधायें न्यूनतम हों, यह धारणा टाओ में गहरे बसी है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है दूजिआनयान बाँध। इसे बाँध के स्थान पर सिचाई तन्त्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। २२०० वर्ष पूर्व चेन्दू क्वेंगश्वेंग पर्वत से निकलने वाली मिंजियांग नदी के कारण हर वर्ष आने वाली भीषण बाढ़ से त्रस्त था। स्थानीय अधिकारी ली बिंग ने अपने पुत्र के साथ मिलकर इसका हल ढूढ़ा। लम्बे अवलोकन, सटीक योजना और अथक परिश्रम के बाद सिचाई तन्त्र तैयार हुआ। सम्पन्न कार्य की उत्कृष्टता इस बात से समझी जा सकती है कि पिछले २२०० वर्षों से यह तन्त्र सुचारु रूप से चल रहा है। बाढ़ की समस्या को चेन्दू में फिर कभी नहीं आयी और सिचुआन के सभी ५० नगरों में सिचाई व्यवस्था पर्याप्त है। सूखे के समय में मिंजियांग नदी का ६० प्रतिशत से भी अधिक जल सिचाई तन्त्र में आता है और वर्षा के समय यह घट कर ४० प्रतिशत से भी कम रह जाता है। कहने का आशय यह है कि अधिकता के समय यह तन्त्र अवांछित जल वापस नदी में भेज देता है। इस तन्त्र में कहीं भी जल के प्रवाह को बाधित नहीं किया गया है, बस उसे अद्भुत विधि से नियन्त्रित किया गया है। वर्ष २००० में इसे यूनेस्को ने बाढ़ नियन्त्रण, सिचाई तन्त्र, जल परिवहन और जल उपयोग के सतत लाभों के कारण अपनी सूची में स्थान दिया है।

सर्वप्रथम तो मुझे इस तन्त्र के पीछे का विज्ञान समझ नहीं आया क्योंकि इसके लिये हाइड्रोलॉजी का अध्ययन आवश्यक है। अपने साथ गये सिविल इन्जीनियरों से पूछने पर सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिले, संभवतः रेल की पटरियों के लौह ने जलविमर्श के विषयों को उनसे दूर कर दिया हो। वापस आने के बाद उसे कई दिनों तक समझा तब थोड़ा बहुत समझ में आया। जल के जटिल प्रवाह से शाश्वत लाभ ले पाना निश्चय ही एक प्रशंसनीय उपलब्धि है और उसके लिये प्राचीन चीन के नियन्ता साधुवाद के पात्र हैं।

समझने का लिये मॉडल
यह तन्त्र बनाने के लिये जिस स्थान को चुना गया है, वहाँ पर यह नदी दायीं ओर मुड़ती है। मुख्य प्रवाह के बायीं ओर एक उपधारा निकाली गयी है। उपधारा मुख्यधारा की तुलना में अधिक गहरी, पतली और लम्बी है। यह उपधारा आगे जाकर पुनः मुख्यधारा में मिल जाती है। बीच का भूमिखण्ड एक मछली का आकार बनाता है। इस मछली के तीन भाग हैं, मुँह, पिछले पंख का ऊपरी हिस्सा और पिछले पंख का निचला हिस्सा। मुँह के हिस्से को सप्रयास तिकोना और कठोर रखा जाता है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण भाग है क्योंकि यहीं से ही मुख्यधारा और उपधारा में जल का बँटवारा होता है। जब नदी में जल कम होता है तो उपधारा की गहराई अधिक होने के कारण उसमें अधिक जल जाता है। नदी की दिशा से उपधारा की दिशा तनिक बायें होने के कारण उसमें पत्थर और मिट्टी कम जाती है। जहाँ पर उपधारा मुख्यधारा से पुनः मिलती है, वहाँ पर धीरे धीरे नदी से उपधारा में बहकर आये पत्थर और मिट्टी जमा होता रहती है, इस कारण एक अस्थायी अवरोध बन जाता है। इस अवरोध के कारण मुख्यधारा में जाने वाले पानी की मात्रा कम हो जाती है। सारे पानी को उपधारा के बायीं ओर लम्बवत बनायी सिचाई नहर से प्रवाहित कर दिया जाता है। उपधारा के लम्बवत होने के कारण उस पर पत्थर और मिट्टी एकत्र नहीं होती है। इस व्यवस्था से गर्मी के समय लगभग ६० प्रतिशत जल सिचाई के लिये बनायी नहर में चला जाता है। 

मछली का मुख
जब वर्षा आती है तो मछली की पूँछ पर बने अस्थायी अवरोध बह जाते हैं। साथ ही सिंचाई नहर को जाने वाले मुँख की ऊँचाई भी बढ़ा दी जाती है। इसके लिये बड़े गोल पत्थरों को बाँस की रस्सी से लपेटकर लम्बी और बेलनाकार आकार बनाये जाते हैं और उन्हें रस्सियों के माध्यम से एक के ऊपर एक रखा जाता है। अपने आकार के कारण ये अस्थायी और पोरस दीवार की तरह कार्य करती है और तब सिचाई नहर में जाने वाले जल की मात्रा कम हो जाती है। मुख्यधारा और उपधारा दोनों ही शेष जल को बहा ले जाती हैं। इस व्यवस्था से वर्षा के समय ४० प्रतिशत से भी कम जल सिंचाई नहर में जाता है। साथ ही साथ पत्थर और मिट्टी भी सिचाई नहर में नहीं जा पाते हैं और सिंचित जलक्षेत्र बाढ़ के विभीषिका से मुक्त रहता है। इस व्यवस्था के साथ ही जल प्रवाह के प्रबंधन की अन्य कई उपव्यवस्थायें हैं और उसी के बल पर यह तन्त्र पिछले २२०० वर्षों से यथावत चल रहा है। इस पर कोई भी बड़ा निर्माण नहीं है और जिस प्राकृतिक विधि से जल और मिट्टी का पृथकीकरण किया गया है, आज के समय में वह स्वाभाविक व सरल लग सकती है पर उस समय के लिये यह निसंदेह एक अद्भुत उपलब्धि रही होगी।

मछली की पूँछ
जहाँ पर नदी, पर्वत, पेड़ और बादल एक साथ एकत्र हो जायें, प्रकृति अपने मद में रत हो जाती है। हम जब वहाँ पहुँचे, पानी बरस रहा था, हम लोग छाते निकाल कर चल रहे थे और प्रकृति के सुन्दर स्वरूप को निहारे जा रहे थे। यह दृश्य देखकर, दिन के प्रथम भाग में क्वेंगश्वेंग पर्वत के भ्रमण के पश्चात श्रान्त हुये तन में चेतना का पुनर्संचार हो गया। लगभग चार घंटे हम वहाँ घूमे, आनन्द आ गया। वहाँ के स्थानीय पर्यटकों के लिये यह अत्यन्त भ्रमणीय स्थल है, सब के सब अपने परिवारों के साथ यहाँ उपस्थित थे। निश्चिन्त समय बिताने के लिये यह उपयुक्त स्थान है, कहीं भी बैठ जायें और प्रकृति को निहारते रहें। युगल भी पर्याप्त संख्या में वहाँ थे, यहाँ से अधिक आकर्षक वातावरण उन्हें और कहाँ मिलेगा भला।

२०० वर्ष पुराना बोन्साई
इस स्थान को एक सांस्कृतिक स्थान के रूप में भी विकसित किया गया है। यहाँ पर कई मंदिर देखे, उसमें गये भी, पर जल के प्रवाह का प्रश्न जो मन में कुलबुला रहा था उस कारण किसी और तथ्य पर ध्यान नहीं दे पाया। २२०० वर्षों के इतिहास को वहाँ पर सजा कर रखा गया है। विस्तृत क्षेत्र में फैले १५-२० ऐसे मंदिर भवन हैं जहाँ पर घूमने जाया जा सकता है। पहाड़ों के ऊपर नदियों पर दृष्टि करते हुये कई भवन बने हुये थे। हम लोगों की बहुत इच्छा थी कि वहाँ चला जाये पर पूरा घूमने के लिये २-३ दिन और चाहिये थे। वहाँ जाने के बाद ही हम नीचे बहती उन्मुक्त नदी के प्रवाह का आलौकिक रूप देख सकते हैं।  यहाँ पर सब प्रकृतिमय लगता है, ज्ञान, विज्ञान, समाज और परिवेश। व्यक्ति को यहाँ पहुँचकर अपने मूल का आभास हो आता है। प्रकृति-पुरुष का संतुलन और प्रकृति का निश्चिन्त प्रवाह, यहाँ के हर दृश्य में व्यक्त है।


अगले ब्लॉग में चीन के बारे में शेष बातें।