चेन्दू का इतिहास ३००० वर्ष से भी अधिक पुराना है। नगर में और उसके आसपास इतिहास के साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। देखने को बहुत कुछ था पर समय की बाध्यता थी। दिन भर सेमिनार में निकल जाता था, सायं का समय मिलता था चेन्दू को टटोलने के लिये। बीच में एक सप्ताहान्त था पर शनिवार का अवकाश न होने के कारण केवल रविवार का दिन ही घूमने के लिये मिल पाया। उसी को देखते हुये पर्यटन की योजना बनायी गयी और जैसा अपेक्षित था, निकट के ही स्थान दर्शनार्थ नियत किये गये।
डू फू की कुटिया, वाइड एण्ड नैरो एले, पाण्डा संरक्षण केन्द्र, टियान्फू चौक, चुन्क्सी रोड, जिनली रोड, वू हाउ मंदिर, पीपुल पार्क, क्वेंगश्वेंग पर्वत, दूजिआनयान बाँध, ये दस स्थान थे जहाँ पर हम घूमने जा सके। बाँध और पर्वत नगर में नहीं थे, उन्हें छुट्टी के दिन देखा गया। शेष नगर में ही थे, एक दूसरे के आसपास ही, इस कारण एक दिन में दो स्थान भी देखे जा सके। इसके अतिरिक्त कई ऐसे स्थान थे जहाँ पर जाने की तीव्र इच्छा के बाद भी समयाभाव के कारण नहीं देखे जा सके। इनमें लेशान के बुद्ध, लांगकुआन झील और टेराकोटा सेना प्रमुख हैं, इन तीनों को देखने के लिये आपके पास ३ दिन का अतिरिक्त समय होना चाहिये। इन स्थानों के अतिरिक्त मेरी रुचि वहाँ के स्थानीय जनजीवन में भी थी। रेल विश्वविद्यालय के पास की गलियों में, स्थानीय बाजारों में, फल फूल बिक्री के स्थानों पर और ऐसे ही कितनी निष्प्रयोजनीय भ्रमणिकायें करने हम शेष दिनों में निकले।
डू फू परिसर |
वाइड एण्ड नैरो एले |
वाइड एण्ड नैरो एले का शाब्दिक अनुवाद चौड़ी और पतली गलियाँ है। नगर के ऐतिहासिक परिवेश को इन गलियों में संरक्षित करके रखा गया है। नगरीकरण के कोलाहल को पीछे छोड़कर इन गलियों में आते ही ऐसा लगता है कि पारम्परिक चीन वहाँ पर जीवन्त हो स्वच्छन्द विचरण कर रहा है। विकास को इन गलियों से दूर रखा गया है। चीन की संस्कृति, खानपान, संगीत, जीवनशैली, भवनशैली, स्थापत्य, हस्तशिल्प आदि की विस्तृत उपस्थिति इन गलियों में दिखती है। पर्यटन की दृष्टि से इस प्रकार के स्थानों को संरक्षित करने का प्रयास चीन की सरकार ने किया है। अपने अतीत से जुड़ने के क्रम में संस्कृति और धर्म, दोनों से जुड़ना होता है। पर्यटन में जहाँ पर भी संस्कृति के हस्ताक्षर दिखे, धर्म को बड़े स्पष्ट रूप से विलग रखा है। साम्यवादी सरकारों का अविश्वास धर्म और संस्कृति पर बराबर रूप से होता है। जिस प्रकार संस्कृति के चिन्हों में धर्म अनुपस्थित मिला, यह लगा कि संस्कृति को अपनाने और धर्म को हटाने के लिये निश्चय रूप बड़ी बहस और बड़ा प्रयास करना पड़ा होगा। जो भी निष्कर्ष निकले हों, चीनी संस्कृति की पूर्ण उपस्थिति उन गलियों में दिखायी पड़ी। एक उत्सव सा वातावरण था वहाँ पर, मेले का उत्साह, कलाकारों की तन्मयता, व्यंजनों की मधुरिम सुगन्ध, बाँस और लकड़ी के बने पुराने घरों में चलह कदमी करते पर्यटक, घर के अन्दर बने उद्यानों में उड़ती चाय की महक, इतिहास के बिन्दु पर वह स्थान कालबद्ध हो गया था। वहाँ पर जाने के बाद बाहर आने का मन नहीं करेगा आपका।
बाँस खाता पाण्डा |
बड़ा पाण्डा |
परिसर की हरीतिमा |
जब हम लोग वहाँ पहुँचे, वर्षा हो चुकी थी और वातावरण अत्यन्त सुखकर था। मित्रों के साथ भ्रमण करने में बड़ा ही आनन्द आया। जिस मनोयोग से पूरे स्थान को विकसित किया गया है और उसका रखरखाव किया जा रहा है, उसके लिये वहाँ के संचालक साधुवाद के पात्र हैं। बीच में एक झील है, हंस, मछलियाँ, बतख झील का जीवन्त स्वरूप बनाये रखते हैं। पास खेलते हुये बच्चे मगन थे, झील के किनारे खाने के स्टॉल थे, कुल मिलाकर वहाँ भी उत्सव सा लग रहा था। प्रकृति, मानव, पशु, पक्षी, सब मिल उत्सव मना रहे थे। यदि आपको चेन्दू जाने को मिले और पास में ३-४ घंटे ही हों तो पाण्डा संरक्षण केन्द्र अवश्य जायें। (यह प्रसन्नता की बात है और इनके परिश्रम और लगन का ही प्रतिफल है कि पाण्डा कल ही लुप्तप्राय प्राणियों की श्रेणी से बाहर आ गया है)
शेष स्थानों के बारे में अगले ब्लॉग में।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-09-2016) को "प्रयोग बढ़ा है हिंदी का, लेकिन..." (चर्चा अंक-2462) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'