पिछले वर्ष सिंगापुर और मलेशिया जाने का अवसर मिला था, रेलवे द्वारा आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में। उस समय भी मन में एक उद्विग्नता थी, उस यात्रा के बारे में लिखने की। हमारी तुलना में, हमसे बाद स्वतन्त्र हुये छोटे छोटे देश कितने व्यवस्थित और कितने विकसित हो सकते हैं, इस तथ्य की लज्जा के कारण कुछ नहीं लिख सका।
हमारे देश में गम्भीर बातों को हवा में उड़ा देने वालों का एक सम्प्रदाय है। उन्हें किसी के विकास में, किसी के परिश्रम में, किसी के उद्भव में कोई तत्व नहीं दिखता है। वे अपने कुतर्कों से किसी को भी तुच्छ सिद्ध कर सकने की क्षमता रखते हैं। छोटे देशों की प्रगति के बारे में इसी सम्प्रदाय के ही किसी विचारक ने उनकी तुलना बन्दर और भारत की तुलना हाथी से की थी। विकास को नृत्य का पर्याय मानकर यह बताया गया था कि बन्दर तो कैसे भी नृत्य कर सकता है, हाथी को वैसे नृत्य से हानि ही होगी, कष्टकारी और शरीर को पीड़ा पहुँचाने वाला होगा ऐसा नृत्य। ऐसे ही लोग दूसरे हाथी चीन के विकास को लोकतन्त्र और कठोर शासन की बातों में घुमाकर हवा में उड़ा देते हैं। यद्यपि इनके मूल में अकर्मण्यता का भाव प्रबल होता है पर उसे तर्कबल से छिपाने का उपक्रम ही उनकी एकमात्र क्रियाशीलता है। इस सम्प्रदाय की तर्क प्रक्रिया से पाठकों को आगाह करना आवश्यक था अन्यथा गम्भीरता की हवा निकालने का इनका उत्पात सदा सफल होता रहेगा।
चीन यात्रा में बुलेट ट्रेन में दो बार बैठने का सौभाग्य मिला। ३०० किमी प्रति घंटा की गति में ऐसा लग रहा था कि हवा में उड़ रही हो, दिल्ली आगरा के बीच १५० किमी प्रति घंटा की तुलना में कहीं अधिक सुखद। सन २००० में आरम्भ करते समय चीन की बुलेट ट्रेन तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। पूरी की पूरी तकनीक आयातित थी। आने वाले २ वर्षों में चीन ने तकनीक के सारे पक्षों को खोला, समझा, परखा, अपनाया और अपना मॉडल बनाया, चाहे वह ट्रैक हो, कोच हो, इंजिन हो, सिग्नल हो या संचार तन्त्र हो। बौद्धिक सम्पदा के जगत में लोग इसे नकल या चोरी भी कहते हैं। इन आक्षेपों से अविचलित चीन ने अपनायी तकनीक को और सुधारना प्रारम्भ किया, हर दो वर्ष में एक नया मॉडल, हर नये हाईस्पीड रेलमार्ग को और उन्नत बनाया। पिछले १५ वर्षों के सतत प्रयास और परिश्रम के बाद विशेषज्ञ बताते हैं कि एक तो चीन की तकनीक पूर्णतया आत्मनिर्भर है और सिग्नल के कुछ पक्षों को छोड़कर किसी से न्यून नहीं है। गुणवत्ता बढ़ाने के अतिरिक्त इस बात पर भी सतत शोध होता रहा कि किस प्रकार बुलेट ट्रेन पर होने वाला व्यय कम से कम हो जाये।
विश्व का औद्योगिक केन्द्र बनने में भी चीन ने इसी प्रक्रिया का अनुप्रयोग पूर्णता से किया है। किसी भी उत्पाद में लगने वाला व्यय कम करने में तीन कारक प्रमुख हैं, श्रमिक, माल और तकनीक। केवल श्रमिक ही अनुशासित और सस्ता मिलने से काम नहीं चल पायेगा क्योंकि कच्चे माल को बनाने के लिये चीन ले जाना और बने माल को बेचने के लिये विश्व बाजार में पहुँचाने का व्यय उत्पाद की लागत बढ़ा जायेगा। किस प्रकार उस उत्पाद में लगने वाले प्रत्येक माल को कम से कम लागत में प्राप्त करना और किस तकनीक का उपयोग कर उसे बना लेना, इन दोनों क्षेत्रों में अद्भुत शोध होता है चीन में। साइकिल को ही लें, तो उसके स्वरूप में सतत बदलाव करते करते उसमें लगने वाले धातु की मात्रा कम कर ली और उसमें लगने वाली धातु को बदल कर या उसी धातु को कम लागत में निर्माण कर उसे और सस्ता बना लिया। हर दिखने वाली वस्तु पर उनकी सरलीकृत बुद्धि और निरन्तर शोध की छाप दिखी। आप ध्यान दें तो आपको आश्चर्य ही होगा कि किस तरह चीन से आने वाली हर वस्तु इतनी सस्ती मिलने लगती है। गणेश की मूर्ति हो, दीवाली की झालर हो, हवा भरने वाले पंप हों, खिलौने हों या उड़ने वाले ड्रोन हों, चीन से भारत तक का परिवहन व्यय जोड़ने के बाद भी वे सब भारत के उत्पादों की तुलना में बहुत सस्ते बिकते हैं। सतत शोध की प्रक्रिया, हर वर्ष नया मॉडल निकालने की ललक और आगामी संभावित प्रतियोगिता की पहले से तैयारी ही उन्हें औद्योगिक उत्पादन के शीर्ष पर रखे हुये है।
उनके सामान्य रेलमार्ग लगभग रु ५० करोड़ प्रति किमी की दर से निर्मित होते हैं। इस रेलमार्ग में कोई भी समपार गेट नहीं होता है, या तो ऊपर से या नीचे से पुल बना होता है। पूरा मार्ग दोनों ओर से घिरा हुआ। इसी व्यय में दुमंजिले स्टेशनों का निर्माण भी जुड़ा है। स्टेशनों के निर्माण के भौतिक व आर्थिक स्वरूप की रोचक चर्चा आने वाले ब्लॉग में करेंगे। सामान्य रेलमार्ग और बुलेट रेलमार्गों में बस दो अन्तर प्रमुख हैं। पहला, हाईस्पीड का ट्रैक का आधार पूर्णतया कॉन्क्रीट होता है जबकि सामान्य ट्रैक गिट्टी पर डाले जाते हैं। दूसरा, हाईस्पीड के ट्रैक में घुमाव और चढ़ाव न्यूनतम होते हैं। बुलेट ट्रेन चलाने के लिये बिल्कुल सीधा और सपाट कॉन्क्रीट का रेलमार्ग चाहिये। यही कारण है कि हाईस्पीड रेलमार्ग लगभग रु २०० करोड़ के दर से निर्मित होते हैं। तुलना की जाये तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। हमारे देश में बनने वाली मेट्रो भी लगभग रु १००-१२० करोड़ प्रति किमी की दर से बन रही हैं। यह हो सकता हो कि प्रारम्भिक बुलेट रेलमार्गों पर आयातित तकनीक के कारण अधिक धन लगे, पर धीरे धीरे जब तकनीक का भारतीयकरण करने में हमें सफलता मिलेगी तभी जाकर इस लागत को हम कम कर सकेंगे।
यह तर्क भी दिया जाता है कि भारतीयों को इतनी शीघ्रता कभी नहीं रही कि वे ३६० किमी प्रति घंटे की गति पर आरूढ़ हों। तर्क आकर्षक लग सकता है। समय के महत्व को न समझना और उसे व्यर्थ करते रहना हमारी दिनचर्या है। भारत मे समस्या भले ही समय की न हो पर जनसंख्या की अवश्य है। जहाँ पूरी ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या को एक दिन में ढोने का भार हमारे कंधों पर हो तो बुलेट ट्रेन से अधिक उपयोगी और कुछ नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिये दिल्ली और चेन्नई के बीच की दूरी २१७५ किमी है, दोनों के बीच चलने वाली ट्रेनों का दैनिक औसत ५ है। तमिलनाडु एक्सप्रेस की औसत गति ६५ किमी प्रति घंटा है, यात्रा ३३ घंटे की है, प्रतिदिन चलाने के लिये कुल ४ ट्रेनें लगती हैं। यदि ३६० किमी प्रति घंटा की बुलेट ट्रेन से यात्रा की जाये तो पहुँचने में ६-७ घंटे लगेंगे। एक ट्रेन दिन में तीन फेरे लगा लेगी। ६-७ घंटे की यात्रा बैठकर की जा सकती है, अतः ७२ के स्थान पर हर कोच में ८५ यात्री चल सकते हैं। यदि गणना की जाये तो वर्तमान २० ट्रेनों के स्थान पर केवल ४ बुलेट ट्रेनें दिल्ली और चेन्नई के बीच के यात्रियों के लिये पर्याप्त है। यदि वर्तमान ट्रेनों की तुलना में बुलेट टेनें पाँच गुनी मँहगी भी हों तो भी कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ेगा। यदि हवाई यात्रा में लगने वाले पूरे समय को देखा जाये तो बुलेट ट्रेनों की यात्रा में लगने वाला समय समकक्ष ही होगा। किराये की दृष्टि से रेल और हवाई जहाज के बीच का कोई समुचित बिन्दु यात्रियों के लिये मँहगा नहीं होगा।
दिल्ली से कोलकता की दूरी बीजिंग से शंघाई की दूरी के लगभग बराबर ही है। ५ घंटे से कम में पहुँचने वाली बुलेट ट्रेन का किराया रु ५५०० है। १७ घंटे में पहुँचने वाली राजधानी का एसी २ का किराया रु ३६०० व हवाई किराया रु ७००० है। बुलेट ट्रेन का परिचालनिक व्यय निकालना वर्तमान की तुलना में कठिन कार्य नहीं होगा। उस पर से यात्रियों का कितना समय बचेगा, वह देश के लिये हितकर होगा। बुलेट ट्रेन के ट्रैक के प्रारम्भिक निर्माण के व्यय को चीन में किस प्रकार साधा जाता है, अगले ब्लॉग में।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-08-2016) को "कल स्वतंत्रता दिवस है" (चर्चा अंक-2434) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपको इन ब्लाग खण्डो को सरकारी साइट mygov.in पर भी प्रकाशित करना चाहिये।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "१४ अगस्त और खुफिया कांग्रेस रेडियो “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआपने सही लिखा है - हमारे देश में गम्भीर बातों को हवा में उड़ा देने वालों का एक सम्प्रदाय है।
ReplyDelete:)