पिछले व्लॉग पर प्रश्न यह था कि भाषा की जटिलता किस प्रकार चिन्तन को प्रभावित करती है। पिछले ७०-८० वर्षों से इस विषय पर पर्याप्त शोध हुआ है। मुख्यतः दो उदाहरण दिये जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया की किसी उपभाषा में सामने, पीछे आदि शब्दों का न होना और किसी हिम प्रदेश की भाषा में हिम के लिये आवश्यकता से अधिक शब्दों का होना। एक में शब्दों की कमी है तो दूसरी में अधिकता। शब्दों की कमी या अधिकता से अभिव्यक्ति में आने वाली समस्या या सुगमता तो समझ आती है पर वर्णमाला की क्लिष्टता शब्दों की संख्या पर क्या प्रभाव डालेगी, यह तथ्य समझना आवश्यक है।
उदाहरण चीनी भाषा का ही ले लें, भाषा में हर शब्द के लिये आकृतियाँ हैं। यदि जल के लिये एक आकृति है तो उसके लिये दूसरा शब्द या आकृति नियत करने से भाषा सीखने के लिये करने वाला प्रयास बढ़ जायेगा। जब मानसिक परिश्रम का व्यय अधिक हो तो शब्दों की मितव्ययिता से ही कार्य करना सीखना होगा। भाषा का स्वरूप अपरिग्रही हो जायेगा, आवश्यकता से अधिक कुछ भी नहीं। कम शब्द, सरल चिन्तन। भाषायी क्लिष्टता मानसिक सारल्य को प्रेरित कर सकती है।
भाषा की आवश्यकता अभिव्यक्ति की आवश्यकता है, विचारों का क्षेत्र है यह। विचारों का क्षेत्र अत्यन्त जटिल है। शाब्दिक सारल्य क्या विचारों की गति या जटिलता के साथ न्याय कर पायेगा। सामाजिक जीवन में कम शब्दों से कार्य चल सकता है, जीवन के गूढ़ प्रश्नों के लिये संभवत वह पर्याप्त न हो।
वहीं दूसरी ओर संस्कृत को देखें। जल के लिये ढेरों शब्द हैं। जल के हर गुण के लिये एक शब्द। व्यक्ति के लिये जन, पुरुष, मानव आदि, हर व्यवहार के लिये एक शब्द। इस प्रकार के विस्तार के लिये संस्कृत का आधार बड़ा ही सुव्यवस्थित और सुदृढ़ तैयार किया गया है। ध्वनि पर आधारित वर्णमाला। जिन स्थानों से ध्वनि परिवर्धित हो सकती है, उन्हे एक समूह में रखना। दो हज़ार धातु रूप, सारे धातु रूप क्रिया आधारित। एक धातु रूप से सैकड़ों शब्दों के उद्भव की व्यवस्था। लम्बे समय तक गुणवत्ता और शुद्धता बनी रहे, उस हेतु व्याकरण के नियम, लगभग ४००० सूत्रों में। धातु रूप और व्याकरणीय सूत्र, कुल मिला कर ५० पन्नों में सिमटा व्याकरण। संस्कृत में शब्दकोष का प्रादुर्भाव बहुत बाद में हुआ है क्योंकि शब्दों का अर्थ उन्हें धातु रूपों में विग्रह करके निकाला जा सकता है।
भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में संस्कृत से अधिक परिपूर्ण, काल द्वारा अनापेक्षित और वैज्ञानिक भाषा कोई नहीं है। बड़े से बड़े विचारों को न्यूनतम शब्दों में व्यक्त करने की इसकी क्षमता अद्भुत है। संस्कृत का दृष्टिगत सारल्य उसकी व्याकरणीय क्लिष्टता में छिपा है। वहीं चीनी भाषा में हर वस्तु और क्रिया को एक आकृति आवंटित करने का सरलीकृत कार्य उसे जटिल सिद्धान्तों का वाहक बनने में बाधित करता है। दोनों ही भाषाओं के स्वरूप का निष्कर्ष बिन्दु सरल है। वैचारिक चिन्तन के जिन आयामों और विमाओं में संस्कृत पहुँचने में सक्षम है, चीनी भाषा उसका शतांश भी नहीं छू सकती।
चीन के समाज की चिन्तन प्रक्रिया अत्यन्त सरल और व्यवस्थित है। चिन्तन प्रक्रिया पर भाषा के प्रभाव के अतिरिक्त दो और कारक हैं जो इसे और भी सरल और व्यवस्थित बनाते हैं। दोनों ही कारक ऐतिहासिक हैं। ये हैं, बौद्ध दर्शन का प्रभाव और कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था।
चीन में ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि बौद्ध धर्म यहाँ पर समुद्र और सिल्क मार्ग से अपने प्रारम्भिक काल में ही पहुँच गया था। कन्फ़्यूशियस और बौद्धदर्शन का व्यापक प्रभाव वहाँ की जीवनशैली में है। टाओ व जेन विचारधाराओं का और कुंगफू व ताइक्वान्डो आदि विधाओं का जन्म बौद्धजीवन के संपर्कबिन्दुओं पर हुआ। ये सब चीनी समाज में संतुलन, साम्य और अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों को पुष्ट करते गये। टाओ के प्रतीक चिन्ह में यिंग और यांग के रूप में पुरुष और नारी तत्वों का संतुलन, वर्तमान में स्थिर रहने का आग्रह, श्वासों पर आवागमन पर केन्द्रित ध्यानपद्धति और जेन के प्रतिरूप न्यूनतम में भी व्यवस्थित और पूर्ण रहने की कला इन्हें बौद्धधर्म से प्राप्त हुये। आन्तरिक सारल्य को स्थापित करने में बौद्धधर्म का प्रभाव चीन पर अब भी अपनी व्यापकता में दिखता है।
घटनायें इतिहास की दिशा बदल देती हैं। चीन के भाग्य में भाषायी सारल्य और व्यवहारिक सारल्य के पश्चात वाह्य सारल्य भी लिखा था। उन विमाओं को अगले ब्लॉग में समझेंगे।
इसका पर्याय ये है कि भारतीय जरूरत से ज्यादा चिंतन करते हैं ???
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 04-08-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2424 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
प्रवीण जी मुझे लगा आप इस विषय को अधिक सरल और सुदृढ़ तरीके से समझा सकते थे। विषय बहुत विचारणीय है परंतु प्रकटीकरण में कुछ उलझ गया है। मुझे लगा, इसलिए बताना सही समझा।
ReplyDeleteदो भाषाओ के तुलनात्मक अध्ययन को सरल तरीके से प्रस्तुत किया है।
ReplyDeleteबहुत बढिया।
ReplyDeleteVery good Praveen !
ReplyDeleteचीन यात्रा पर तीन पोस्ट पढ़ ली अभी ,,, बचपन से मंडरीन भाषा की रेखाएं आकृतियां एक रहस्यमयी ही नहीं रोचक लगी, शायद कोई भाषा विशेज्ञ मिलता तो जरूर सीखती तब पर अभी तो आपकी पोस्ट ने कुछ रहस्य के परदे खोले ।। आपकी यात्रा का लाभ कुछ इस तरह पढ़ने वालों को भी हो रहा है। शुक्रिया
ReplyDeleteचीन यात्रा पर तीन पोस्ट पढ़ ली अभी ,,, बचपन से मंडरीन भाषा की रेखाएं आकृतियां एक रहस्यमयी ही नहीं रोचक लगी, शायद कोई भाषा विशेज्ञ मिलता तो जरूर सीखती तब पर अभी तो आपकी पोस्ट ने कुछ रहस्य के परदे खोले ।। आपकी यात्रा का लाभ कुछ इस तरह पढ़ने वालों को भी हो रहा है। शुक्रिया
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