31.8.16

चीन यात्रा - १०

पर्यटकों को थियानमेन चौक से १ किमी पहले ही बस से उतार दिया गया। थियानमेन चौक के चारों ओर बने पथ पर किसी भी वाहन को रुकने की अनुमति नहीं थी। थियानमेन चौक और उसके चारों ओर के क्षेत्र को छावनी सा स्वरूप दिया था, सैकड़ों की संख्या में सैनिक, सबको शंका की दृष्टि से घूरते सीसीटीवी कैमरे, दो दो बार तलाशी, पासपोर्ट की चेकिंग, लगा कि १९८९ की क्रान्ति के दुस्वप्न वहाँ के शासकों को आज भी आते होंगे। यदि इतनी सुरक्षा व्यवस्था न होती तो संभवतः हमें भी वह नरसंहार की घटना इतनी गंभीरता और प्रचुरता से याद न आती। ४ जून १९८९ की यह घटना उस समय हम छात्रों को अन्दर तक झकझोर गयी थी। युवा मन में ऐसी घटनायें गहरे पैठ जाती हैं। मन में गम्भीरता, उत्कण्ठा, उत्सुकता, क्षोभ, न जाने कितना कुछ चल रहा था।

थियानमेन द्वार
थियानमेन चौक पर हर १०० मी पर एक नया रंगरूट सावधान की मुद्रा में डटा था, चिलचिलाती दुपहरी में अविचलित। कोई पर्यटक जब उनकी ओर देखकर फोटो खीचना चाहता था तो वह कदम ताल करता हुआ १५-२० मीटर चहल कदमी कर आता। यही दृश्य दूतावासों के बाहर भी दिखा, वहाँ भी एकदम नये रंगरूट। यह समझने में कठिनाई बो रही थी कि यह उनके प्रशिक्षण का अंग था या उन्हें किसी दण्ड स्वरूप वहाँ खड़ा किया गया था। वहाँ पर्यटक बहुत थे,  स्थानीय और विदेशी, दोनो ही। हमारी गाइड हरे रंग की झण्डी लिये आगे चल रही थी, समूह से न बिछड़ने में यह छोटी सी झण्डी पूरी यात्रा में बड़ी सहायक रही। बांग्लादेश के एक समूह से बिछड़ी एक लड़की को हमने उनके समूह से मिलाने में सहायता भी की। दुर्भाग्य से उस दिन धूप अधिक थी, इतने तामझाम और पैदल चलने के बाद लम्बे चौड़े थियानमेन चौक देखने में ही हम सब आधे थक चुके थे। उस समय तक हमें इस बात का आभास नहीं था कि सामने स्थित फॉरबिडेन सिटी कितना बड़ा है।

फॉरबिडेन सिटी का मानचित्र
फॉरबिडेन सिटी बीजिंग के केन्द्र में है। मंगोलशासित युआन राजवंश के पतन के बाद मिंग राजवंश राजधानी को नानजिंग से बीजिंग ले आये। फॉरबिडेन सिटी का निर्माण सत्ता के नये केन्द्र के रूप में किया गया। मिंग राजवंश के पश्चात यह क्विंग राजवंश का भी केन्द्र रहा। ई १४०६ से १४२० तक निर्मित इस आयाताकार परिसर का आकार ९६१ मी x ७५३ मी है, लगभग १८० एकड़। पूरा परिसर २६ फीट ऊँची दीवार और उसके पश्चात २० फीट गहरी और १७० फीट चौड़ी खाई से सुरक्षित है। चार दिशाओं में द्वार हैं और चारों कोनों में सुरक्षा टॉवर हैं। दक्षिणस्थित थियानमेन द्वार मुख्य द्वार है, पहले वाह्य परिसर और उत्तरोत्तर अन्तः परिसर, राजभवन, राज-उद्यान व उत्तरी द्वार हैं। १९११ में राजवंशों की समाप्ति के बाद से इस परिसर का उपयोग राजवंशीय संग्रहालय के रूप में किया जा रहा है, १९८७ में इसे यूनेस्को ने वैश्विक धरोहर घोषित किया है।

गाइड ने बताया कि इसमें कुल ९९९९ कक्ष हैं। सैनिक क्षेत्र, साहित्य क्षेत्र, पवित्र क्षेत्र, बौद्धिक क्षेत्र और शान्त क्षेत्र में बँटे हुये पूरे परिसर में ९८० भवन हैं। सारे भवनों का स्थापत्य लगभग एक जैसा ही था, आकार, क्षेत्र और छतों के रंग के आधार पर उनके उपयोगकर्ता निर्धारित होते थे। पीला रंग राजा का, हरा रंग राजकुमारों का, काला रंग पुस्तकालय का, सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार। विभिन्न आकार के आन्तरिक द्वार व सभाकक्ष भव्य औऱ व्यवस्थित योजना से आबद्ध थे। टाओ, कन्फ्यूसियस और बुद्ध शैलियों के रहस्यों से भरे कई भवनों की कथा हमारे गाइड ने सुनायी। वहाँ के दरवाजों में ९x९ के कुल ८१ कुण्डे लगे थे जिनका अभिप्राय हमें समझ नहीं आया। यहाँ पर लकड़ी, पत्थरों, धातुओं आदि से बनी जितनी कलाकृतियाँ रखी हैं उसके ठीक से देखने के लिये ४-५ घंटे का समय चाहिये। हमारे पास २ घंटे ही थे। एक अधिकारी जो वहाँ एक बार आ चुके थे, उनकी सहायता से हमने चुने हुये भवन, कक्ष और कलाकृतियाँ देखीं।   

चीन की दीवार पर एक टॉवर
अगले दिन चीन की दीवार पर जाना हुआ। उत्तर दिशा से होने वाले मंगोलों और मांचुओं के आक्रमणों से बचने के लिये चीन की दीवार का निर्माण सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से ही प्रारम्भ हो गया था और इसके नवीनतम खण्ड चौदहवीं शताब्दी तक बने। इस प्रकार कई कालखण्डों में बनी यह दीवार रक्षापंक्ति की कई परतों में बनी। निर्माण की दृष्टि से भी इसमें मिट्टी ठोंक कर बनायी गयी दीवार से लेकर पत्थर की विशाल दीवार तक मिलती है।  चीन के आधिकारिक आकड़ों के अनुसार इसकी लम्बाई ८८०० किमी  है। बीजिंग के उत्तर में जो दीवार देखने हम गये वह इसका नवीनतम खण्ड है और १४वीं शताब्दी में मिंग शासकों द्वारा निर्मित है, प्रचलित चित्रों में इसी दीवार को दिखलाया जाता है। इस दीवार ने २०० वर्षों तक बीजिंग को मंगोलों से बचाये रखा। साथ ही ई १६०० से प्रारम्भ हुये मांचुओं के आक्रमण से भी सतत रक्षा की। १६४४ में जब आन्तरिक विद्रोहियों ने बीजिंग पर अधिकार कर लिया तो मिंग सेनापति ने मांचुओं से समझौता करके इस दीवार का शन्हाई द्वार खोल दिया। मांचुओं ने विद्रोहियों और मिंग सेना को समाप्त कर क्विंग राजवंश की स्थापना की। क्विंग राजवंश ने दीवार के उत्तर में अपने साम्राज्य का विस्तार किया अतः उनके लिये दीवार बनाने और उसे संरक्षित करने का कोई सामरिक औचित्य नहीं रह गया।

यह एक विडम्बना ही है कि जिनसे बचने के लिये चीन की दीवार का निर्माण कराया गया उनके दो राजवंश, मंगोलों के युआन और मांचुओं के क्विंग राजवंशों ने चीन पर ४०० वर्षों से अधिक शासन किया। परिहास में लोग कहते हैं कि जिन्हें रोकने के लिये यह दीवार बनायी गयी थी, उन्हें तो नहीं रोक पायी पर जो नागरिक आक्राताओं के आतंक से बचकर भागना चाहते थे, उनके भागने में यह बाधक बनी रही। इस दीवार ने रेशम मार्ग को भी आक्रमणों से बचाये रखा। मंगोल राजवंशों के समय में इस व्यापारिक मार्ग को सर्वाधिक प्रश्रय मिला। 

चीन की दीवार पर चढ़ाई
दीवार देखने का आनन्द उस पर ऊपर तक चढ़ना था। चारों ओर पहाड़ों पर विस्तृत फैले दृश्य देखने का आनन्द चढ़कर ही आता है। कई स्थानों पर खड़ी सीढियाँ, कहीं पर सँकरे मोड़, बीच में तनिक विश्राम करने के लिये टॉवर। दीवार के साथ साथ पहाड़ के सबसे ऊपरी भाग में पहुँचने के क्रम में मनोरंजन के साथ पूरा श्रम हो गया। कपड़े स्वेद में नहा गये पर ऊपर बढ़ते रहने का आकर्षण किसी विश्वविजय से कम नहीं लग रहा था। हजारों सीढियाँ और डेढ़ घंटे चढ़ने के बाद जब ऊपर पहुँचे तो पूरा पहाड़ चारों दिशाओं से दिख रहा था। संभवतः ऐसे ही सैनिक दूर से आती सेनाओं को देखते होंगे।

सुरक्षा की भावना कितनी गहरी होती है कि ८००० किमी से भी बड़ी दीवार बना दी जाती है। काश रेशम मार्ग पर स्थित खाइबर दर्रे पर भारत ने कोई ऐसी ही दीवार बनाई होती तो भारत का इतिहास इतना क्रन्दनीय नहीं होता। ५३ किमी लम्बाई के इस दर्रे की चौड़ाई ५०-१०० मी के बीच ही है। सिकन्दर, तैमूरलंग, गजनी, गौरी, चंगेजखान, बाबर, नादिरशाह आदि सारे आक्रमण इसी दर्रे से हुये। चीन की दीवार अब विशुद्ध पर्यटन का कार्य करती है, पाकिस्तान के अधिकार में इस खाइबर दर्रे में अभी भी हथियारों की तस्करी चल रही है। पता नहीं, इतिहास क्या परिहास करता है।


बीजिंग के शेष स्थानों पर अगले ब्लॉग में।

27.8.16

चीन यात्रा - ९

बीजिंग को पेकिंग भी कहा जाता है। शब्द एक होने के बाद भी उसका उच्चारण मान्डरिन में बीजिंग और कैन्टॉनीस में पेकिंग है। गुआन्झो को कैन्टॉन के नाम से जाना जाता था और वहाँ की भाषा को कैन्टॉनीस। साम्यवादी सरकार ने कई वर्षों के लिये चीन का संबंध शेष विश्व से तोड़ दिया था और जब उसे धीरे धीरे खोला तो विदेशियों का आगमन गुआन्झो से ही सीमित रखा। यही कारण है कि पेकिंग भी बीजिंग का उतना ही प्रचलित नाम रहा है। यद्यपि अब उसका उपयोग न्यून हो गया है पर फिर भी कुछ व्यापारिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों में यह नाम दिख जाता है।

हमें बताया गया कि बीजिंग में मुख्यतः ५ स्थान दर्शनीय हैं, चीन की दीवार, फॉरबिडेन सिटी, हुटांग, टेंपल ऑफ हैवेन और सिल्क मार्केट। हमारी सूची में थियानमेन चौक भी था पर सर्वज्ञात कारणों से हमारे गाइड ने उसकी चर्चा नहीं की। चीन की दीवार वैसे तो ८८०० किमी लम्बी है जो कि कई सदियों, कई चरणों में और कई परतों में निर्मित हुयी पर बीजिंग के निकट उसका नवीनतम और सर्वाधिक संरक्षित खण्ड है। फॉरबिडेन सिटी चीन के राजवंश के महल परिसर का नाम है, टेंपल ऑफ हैवेन राजवंश के सास्कृतिक समारोहों का स्थल और हुटांग सामान्य जन के रहने का स्थान। थियानमेन फॉरबिडेन सिटी के मुख्य द्वार का नाम है, उसके सामने के मैदान पर १९८९ में लोकतन्त्र का आन्दोलन हुआ था जो कि बड़ी निर्दयता से कुचल दिया गया।  थियानमेन चौक की तीन अन्य दिशाओं में संसद, सरकार का प्रशासनिक भवन और राष्ट्रीय संग्रहालय है। सिल्क मार्केट एक बाजार है जहाँ पर हर ब्रान्ड के डुप्लीकेट मिल जाते हैं और यहाँ मोल भाव बहुत होता है।

बीजिंग चीन की राजनैतिक व सांस्कृतिक राजधानी है जब कि शंघाई चीन का औद्योगिक व आर्थिक केन्द्र। बीजिंग में वायु प्रदूषण और जनसंख्या विस्तार के कारण समस्त औद्योगिक ईकाईयों को या तो बन्द कर दिया गया या नगर से बहुत दूर विस्थापित कर दिया गया। सरकार से समन्वय और अन्य प्रशासनिक कारणों से बड़ी कम्पनियों के मुख्य भवन भले ही यहाँ पर हैं पर सारा व्यापारिक कार्य शंघाई से ही संचालित होता है। बीजिंग और शंघाई १२०० किमी दूर होने पर भी बुलेट ट्रेन से जुड़े हैं। यात्रा की अवधि मात्र ४-५ घंटे होने के कारण समन्वय का कार्य अत्यन्त सुविधाजनक हो जाता है। 

५ रिंग रोड में बसे इस नगर के केन्द्र में सांस्कृतिक और प्रशासनिक भवन हैं। कहते हैं कि ऐतिहासिक भवनों का पुरातन भाव बनाये रखने के लिये क्रमशः रिंग रोडों पर भवनों की ऊँचाई मिर्धारित कर दी गयी है ताकि ऐतिहासिक भवनों के आकाशदृश्य आधुनिक न लगें। तीसरी रिंग रोड के बाद ही व्यापारिक प्रतिष्ठान और ऊँची अट्टालिकायें दिखनी प्रारम्भ होती हैं। बीजिंग का एयरपोर्ट विश्व के व्यस्ततम एयरपोर्टों में एक है और प्रतिदिन लगभग २००० उड़ानें यहाँ पर आती हैं। इसे वड़े ही सुन्दर, विस्तृत और भव्य रूप में विकसित किया गया है। नगर के केन्द्र से ३० किमी दूर यह परिसर ३५ वर्ग किमी में फैला हुआ है। बाहर निकलते ही हरियाली की लम्बी कतारें अच्छी लगती हैं। 

वायु प्रदूषण से नगर को बचाये रखने के लिये सारे मोटर साइकिल या स्कूटर इलेक्ट्रिक होना अनिवार्य हैं। प्रदूषण मानकों पर पुरानी कारें प्रतिबन्धित हैं और नयी कारों के पंजीकरण में पर्यावरण कर के रूप में बहुत अधिक धन देना पड़ता है, लगभग कार की कीमत का एक चौथाई। वहाँ पर वाहनों के लिये सम विषम पद्धति नहीं है पर हर दिन किन्हीं दो अंकों में समाप्त होने वाले वाहन प्रतिबन्धित रहते हैं। ५ दिन के कार्यकारी सप्ताह में आप निजी वाहन दो दिन नहीं निकाल सकते हैं। सप्ताहान्त में कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता है। सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्थायें सर्वोत्तम हैं। बस, मेट्रो, टैक्सी आदि से पूरा नगर आवृत्त है। नगरीय बसों के लिये भी सड़कों के ऊपर बिजली के तार लगे हुये हैं। इस व्यवस्था ने भले ही प्रदूषण कम कर दिया हो पर नगर के सौन्दर्य को बाधित कर रखा है। साइकिलों का भी उपयोग पर्याप्त मात्रा में दिखायी पड़ा।

हर चौराहे पर फ्लाईओवर और हर स्थान पर उद्यान व पेड़ होने से यातायात न्यूनतम बाधित और पर्यावरण प्राणवान लगता है। जो भी धुँआ निकलता होगा उसका पर्याप्त भाग ये पेड़ पौधे अवश्य सोख लेते होंगे। नगरीय दृश्यों में एक व्यवस्था, क्रमबद्धता, औदार्य और संतुलन दिखता है। नगर के योजनाकारों और विकसित करने वालों ने संकुचन, भीड़ अव्यवस्था को बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से समझा और निराकरण किया होगा। देखकर लगता है कि कम से कम स्थान में अधिक से अधिक कार्यक्षमता कैसे निकाली जा सकती है। सार्वजनिक स्थान पर्याप्त बड़े और सुन्दर दिखे और निश्चय ही उनका भरपूर आनन्द वहाँ के निवासी उठाते होंगे। कई झीलों के चारों ओर के उत्सवीय वातावरण में वहाँ के सामुदायिक जीवन का आनन्द स्पष्टता से परिलक्षित था।


नगरीय परिवहन जितना विस्तृत था, नगरीय व्यवस्थायें भी उतनी ही सहजता से उपलब्ध। हर आधे किमी पर जनसुविधायें, स्वच्छता व्यवस्था उच्चकोटि की। हर सायं हम पैदल, बस से, मेट्रो से इतना घूमे पर कहीं पर भी रंच मात्र की असुविधा नहीं हुयी। हर संभावित स्थान पर सूचना बोर्ड लगा था कि कौन सी जनसुविधायें कितनी दूर हैं। गाइड द्वारा प्रस्तावित ५ स्थानों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर घूमने की उत्सुकता ने वहाँ की जीवनशैली के अन्य पक्षों से हमें अवगत कराया, उसका वर्णन अगले ब्लॉगों में। 

24.8.16

चीन यात्रा - ८

पिछले एक ब्लॉग में धीरू सिंह जी ने टिप्पणी की थी “चीन को कभी अफीमचियों का देश कहा जाता था, आज कमाल है।”  सच है क्योंकि अफीम ने वहाँ के युवा को एक शताब्दी से भी अधिक समय के लिये निष्क्रिय रखा और यह भी सच है कि विकास के लिये जितना प्रयास चीन ने किया उससे कहीं अधिक प्रयास अफीम के अन्धतम से बाहर आने के लिये किया गया।

कितने ही गौरव से पूरित रहे हों, पर इतिहास के पन्ने एक टीस छोड़ जाते हैं। संभवतः यह कालखण्ड चीन के इतिहास में निम्नतम बिन्दुओं में से एक होगा, भुलाने योग्य और पुनरावृत्ति न होने देने योग्य। इस कथा की व्यथा के कुछ अध्याय भारत में भी आकर ठहरते हैं, कथा के खलनायक के रूप में नहीं वरन सहभुक्तभोगियों के रूप में, सहयात्री के रूप में।

प्रारम्भ दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से होता है। चीन से रेशम, कागज, चाय आदि का व्यापार “रेशम मार्ग” से होता हुआ यूरोप के पश्चिमी क्षेत्र तक पहुँचता है। मध्य एशिया और भारत भी लगभग ७००० किमी लम्बे इस मार्ग से जुड़ते हैं। मंगोलिया और मंचूरिया की ओर से होने वाले आक्रमणों से राज्य को बचाने के लिये कई चरणों में व कई परतों में चीन की दीवार का निर्माण भी होने लगता है। इस दीवार ने रेशम मार्ग को भी आक्रमणों से बचाये रखा। रेशम मार्ग में वस्तुओं के व्यापार के साथ साथ संस्कृतियों और विचारों का भी वृहद आदान प्रदान हुआ।

भारत और चीन सम्मिलित रूप से विश्व व्यापार का साठ प्रतिशत नियन्त्रित करते थे। भारत से मसालों, चाय, रेशम, सूती, हस्तकारी आदि की माँग विश्व के अन्य भागों में व्यापक थी। रेशम मार्ग का समुद्री भाग हिन्द महासागर से होकर निकलता था। उस समय किसी मुद्रा का चलन नहीं था और इन वस्तुओं के स्थान पर पश्चिमी देश सोना, चाँदी और रत्नादि दे जाते थे। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता कि जिस भारत में सोने की केवल एक खान कोलार में है वहाँ के मंदिरों और घरों में कुन्तलों सोना कहाँ से पड़ा रहता था। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, देश ऐश्वर्य में परिपोषित था। ज्ञान और शक्ति के उपासक जब अपना सारा सामर्थ्य धनक्रम में लगा देते हैं तब समाज असंतुलित हो जाता है, विघटन के बीज पनपने लगते हैं, समाज की व्यवस्था चरमराने लगती है। सदियों से भारत के वैभव पर आँख गड़ाये लुटेरों को मौका मिल जाता है, आक्रमण, लूटमार और ध्वंस का सतत क्रम सदियों की पराधीनता ले आता है।

तब प्रादुर्भाव होता है, विशुद्ध व्यापारिक लुटेरों का, कुटिल, निर्मम और विध्वंसक अंग्रेजों का। इनकी विशेष उपलब्धि यह थी कि अर्थव्यवस्था को जो क्षति इनके पूर्ववर्ती लुटेरे ६०० वर्ष में नहीं पहुँचा सके, उसकी सहस्रगुना क्षति मात्र २०० वर्षों में अंग्रेजों ने पहुँचा दी। इनके साम्राज्य का एकल उद्देश्य लूटमार था और व्यवस्था के जितने भी तन्त्र इन्होंने बनाये, वह उस लूटमार को अत्यन्त सरल और निष्कंट बनाने के लिये थे। इस विषय पर विस्तृत और व्यापक चर्चा फिर कभी होगी। यही कार्य अंग्रेजों ने चीन के साथ भी किया। निष्कर्ष यह हुआ कि विश्व व्यापार में भारत और चीन का सम्मिलित योगदान १८०० ई में ५० प्रतिशत से घटकर १९५० में मात्र १० प्रतिशत रह गया, दोनों का ही घटकर ५ प्रतिशत हो गया। सम्प्रति भारत का विश्व व्यापार में योगदान अभी भी ७ प्रतिशत ही है जबकि चीन ने इसे १७ प्रतिशत तक पहुँचा दिया है।

ईस्ट इंडिया कंपनी १७५७ में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद ही अपने लक्षण दिखाने लगी। भारत की अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि आधारित थी। मुगलों ने भले ही ६०० वर्षों तक भारत के एक भूभाग में शासन किया हो पर उन्होंने कृषि को हानि कभी नहीं पहुँचायी। अंग्रेजों ने कृषि को ही तोड़ना प्रारम्भ किया, बाद में समाज को तोड़ा, संस्कृति को तोड़ा और अंत में देश तोड़कर चले गये। बंगाल में चावल बहुतायत से उत्पन्न होता था और देश के अन्य भागों में भी भेजा जाता था। वहाँ के किसानों से बलात अफीम और नील की खेती करायी गयी, लगान ५० प्रतिशत तक कर दिया। यही अफीम चीन भेजी गयी और वहाँ के युवाओं को उसकी लत लगवायी गयी। प्लासी युद्ध के मात्र २० वर्ष बाद ही बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। कभी धान की प्रचुरता में जीने वाला समाज चावल के एक एक दाने को तरस गया। इतिहासकार बताते हैं कि अंग्रेजों के राज में लगभग ३ करोड़ भारतीयों की मृत्यु केवल भुखमरी से हुयी, भारत की जनसंख्या का १० प्रतिशत। अपनी सफेद चमड़ी को सभ्यता का उत्कर्ष बताने वालों ने हर दस में से एक भारतीय को भूख से तड़पाकर मार डाला। 

यह अंग्रेजों के बस की ही बात थी कि जहाँ एक ओर अफीम की खेती से उन्होंने भारत की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था चौपट की वहीं दूसरी ओर उसी अफीम से चीन के पूरे युवा समाज को १०० वर्षों तक नशे में डुबोये रखा। चीन के साथ व्यापार में ब्रिटेन को अपनी चाँदी देनी पड़ती थी। इस अफीम ने उस चाँदी का स्थान ले लिया और व्यापार अंग्रेजों के पक्ष में होने लगा। मुख्यतः तस्करी के माध्यम से किये गये अफीम के व्यापार का योगदान ब्रिटेन की कुल आय में २० प्रतिशत था।

बीजिंग यात्रा में उन गलियों में जाने को मिला जिनमें वहाँ के अफीमची निष्क्रिय पड़े रहते थे। इन गलियों को हुटांग कहा जाता है। जहाँ एक ओर बीजिंग में गगनचुम्बी अट्टालिकायें दिखायी पड़ीं, वहीं संभवतः ऐतिहासिक कारणों से राजाओं के परिसर के अत्यन्त निकट इन गलियों का स्वरूप अब तक नहीं बदला गया है। कल्पना कीजिये कि राजाओं के इतने निकट और इतने व्यापक रूप से नशा फैला हो तो वहाँ के समाज की क्या चेतना रही होगी। सर्वत्र हाहाकार मचा औऱ राजा ने अफीम के व्यापार को बन्द कराने व अफीम को नष्ट कराने के आदेश दे दिये। १८३८ में गुआन्झो में वहाँ के गवर्नर ने अंग्रेजों के गोदाम में छापा मारकर आज की तुलना में करोड़ों की अफीम जला दी। इस भयंकर आर्थिक हानि को अंग्रेज पचा नहीं पाये और १८३९ में चीन पर आक्रमण कर दिया, इसे पहला अफीम युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में चीन की हार हुयी और प्लासी के युद्ध की तरह उनके भी दुर्दिन प्रारम्भ हो गये। जीत स्वरूप अंग्रेजों ने हांगकांग हड़प लिया, साथ ही शंघाई सहित ५ पत्तनों पर अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिये।

इस पर ही अंग्रेज संतुष्ट नहीं हुये और पुनः आक्रमण का कोई न कोई कारण थोपने लगे। १८५६ से १८६० तक द्वितीय अफीम युद्ध हुआ। इसी समय भारत में भी प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम चल रहा था, अंग्रेजों की सेनायें उसमें व्यस्त थीं पर फ्रांसीसियों द्वारा युद्ध में सहायता करने से अंग्रेजों ने वह युद्ध भी जीत लिया, जिसके बाद अंग्रेजों ने अफीम के व्यापार को पूरे चीन में आधिकारिक कर लिया। १८७९ में चीन में ६७०० टन अफीम आयात होता था। चीन में अफीम की खेती प्रारम्भ करने से १९०६ तक चीन में विश्व की अफीम का ८५ प्रतिशत उत्पादित होने लगा, लगभग ३५००० टन अफीम। वयस्क जनसंख्या का २७ प्रतिशत चीन अफीम के नशे में डूब चुका था।

चीन की साम्यवादी सरकार को अफीम का अन्धतम मिटाने का श्रेय जाता है। १९५० के दशक में एक करोड़ से भी अधिक नशेड़ियों को सुधार गृह में भेजा गया, तस्करों को मृत्युदण्ड दिया गया, अफीम की खेती के स्थान पर अन्न उत्पादन कराया गया और शेष खेती को दक्षिण चीन में स्थानान्तरित कर दिया गया। १९७१ के समय वियतनाम युद्ध में इसी अफीम की लत २० प्रतिशत अमेरिकी सैनिकों को लग गयी थी। २००३ तक भी चीन में नशेड़ियों की संख्या १० लाख के आस पास थी। कई वर्ष पहले मंदसौर में अफीम की खेती देखी थी। दो वर्ष पहले गाजीपुर में अफीम की फैक्ट्री देखी। लोगों ने बताया कि अभी भी वहाँ के युवा अफीम दबाये निष्क्रिय पड़े रहते हैं। मैं धीरू सिंह जी से पूर्णतया सहमत हूँ। यह चीन का कमाल ही है कि एक पूरी शताब्दी तक नशे में डूबे रहने के बाद भी इतना विकास कर दिखाया।


चीनी जनजीवन के कई अन्य पक्ष अगले ब्लॉग में।

20.8.16

चीन यात्रा - ७

प्रश्न अब इस बात का नहीं रहा कि बुलेट ट्रेन हमारे लिये लाभदायक है या नहीं, प्रश्न अब यह है कि हमें किस गति से आगे बढ़ना है। चीन की तरह ही १५ वर्ष लगाकर और उसी गति से सीखते हुये या चीन व अन्य विकसित देशों के १५ वर्ष के प्राप्त अनुभव को प्रारम्भिक बिन्दु मानकर। इस समय हमारे पास तकनीक नहीं है अतः हमें तकनीक आयातित करनी पड़ेगी। पर कितनी शीघ्रता से हम उसे अपने अनुरूप ढालें और उसका विस्तार पूरे भारत में करें, निर्णय इसका लेना है। भारत के भौगोलिक क्षेत्रफल में बुलेट ट्रेन का विस्तार करने के लिये वर्तमान सामान्य ट्रैक के बराबर ही हमें हाईस्पीड ट्रैक का निर्माण करना होगा। किस तरह उसमें लगने वाला व्यय न्यूनतम हो, इस बात पर अध्ययन और शोध शीघ्रातिशीघ्र प्रारम्भ हो जाना चाहिये। फ्रेट कॉरीडोर की तरह ही बुलेट कॉरीडोर पर आगामी योजना तैयार हो जानी चाहिये, इसका निर्धारण भी होना चाहिये कि किस आर्थिक मॉडल के अनुरूप हमें आगे बढ़ना है।

उत्कृष्ट कोटि के शोध और सटीक योजना के मूल में एक पूर्णकालिक समर्पण रहता है। इसी तरह रेलवे के तन्त्र का परिचालन भी एक पूर्णकालिक कार्य है। परिचालन में डूबा व्यक्ति अपनी दैनिक समस्याओं से ऊपर नहीं उठ पाता है। उसका समय दिये गये संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करने में निकल जाता है और यही उसका कर्तव्य भी है। उसे अपनी कार्यशैली से मोह हो जाता है, उसे तन्त्र की कमियों से एक भावनात्मक लगाव हो जाता है। उन्हें उजागर कर वह भला कैसे अपनी परिश्रमरतता की अवमानना करेगा। जो रेलवे के परिचालन में लगे हैं, उनसे यह आशा करना कि वे परिचालन के साथ शोध और योजना में अपना योगदान देंगे, यह तनिक कठिन लगता है। 

शोध और योजना में उत्कृष्टता को लिये जहाँ एक ओर रेलक्षेत्र में कार्य के अनुभव का लाभ लेना चाहिये वहीं दूसरी ओर रेलवे से इतर और पूर्णतः शोध में जुटे लोगों को भी जोड़ना चाहिये। आर्थिक तथ्यों और प्रकल्पों को साधने के लिये भी विशेषज्ञ आवश्यक हैं। आर्थिक औचित्य के लिये आँकड़े आवश्यक होते हैं, बिना लाभ के कोई भी इन योजनाओं में धन लगाने से हिचकेगा। आँकड़े किसी भी प्रकल्प को समझने और समझाने के लिये एक पारदर्शी वातावरण बनाते हैं। जब किसी को पहले से यह ज्ञात ही न हो कि किसी स्टेशन पर कितने व्यक्तियों के आने की संभावना है, तो वह अपने व्यवसाय का आर्थिक मॉडल किस आधार पर बनायेगा। सर्वेक्षण संस्थानों की यही उपयोगिता उन्हें परिवहन के क्षेत्र में इतना महत्वपूर्ण बना देती है। चीन में सर्वेक्षण संस्थान हों या  रेल विश्वविद्यालय, वहाँ के प्रत्येक प्रोफेसर अपने क्षेत्र में सिद्धहस्त है। उनके क्षेत्र में आधुनिकतम क्या चल रहा है, उन्हें ज्ञात है। वे दैनिक परिचालन में व्यस्त नहीं हैं और शान्ति और निष्पक्षता से बैठकर तकनीक और अर्थ की दिशा और दशा समझ सकते हैं। भारत में रेलवे के क्षेत्र में इस गहनता और गहराई का आभाव है। आईआईटी और आईआईएम जैसे उच्च संस्थानों में रेल संबंधित शोधों और आँकड़ों की संख्या बहुत कम है। इस प्रकार के शोधों और आँकड़ों को योजना और निर्माण का आधार बनाने के लिये रेल विश्वविद्यालयों और सर्वेक्षण संस्थानों का यथाशीघ्र स्थापित होना अत्यन्त आवश्यक है।

चीन में रेल विश्वविद्यालयों और सर्वेक्षण संस्थानों का उपयोग लम्बी दूरी के बुलेट या सामान्य रेलमार्गों की योजना, निर्माण और परिचालन के लिये तो किया ही जाता है, उनका उपयोग नगरीय यातायात की परियोजनाओं में भी व्यापक है। मेट्रो, नगरीय बस, बीआरटी आदि सभी साधनों की योजना भी सर्वेक्षण संस्थानों के आँकड़ों से ही प्रारम्भ होती है। आर्थिक, सामाजिक, यातायात के साधन, कार्य, मनोरंजन, विद्यालय और व्यापार के स्थानों से संबंधित आँकड़ों के आधार पर मेट्रो आदि की रूपरेखा को सुनिश्चित किया जाता है। नगर की संरचना का प्रभाव नगरीय यातायात के साधनों पर भी पड़ता है। यदि सारे व्यापारिक प्रतिष्ठान, कार्यालय, विद्यालय आदि नगर के केन्द्र में हों तो यातायात अत्यन्त दुरूह हो जायेगा। सारी भीड़ एक स्थान पर ही न हो जाये, इस बात का समुचित ध्यान नगरीय संरचना में रखा जाता है। कभी कभी यातायात को सरल बनाने के लिये नगरीय संरचना में सकारात्मक परिवर्तन भी किये जाते है। 

चीन के दो बड़े नगर देखे, दोनों ही ३००० वर्ष से अधिक पुराने नगर हैं, दोनों में ही इतने लम्बे कालखण्ड में अनियन्त्रित विकास हुआ होगा। फिर भी बीजिंग और चेन्दू की नगर संरचना ने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया। चीन के मुख्य नगर रिंगरोडों में विभाजित हैं। चेन्दू में ४ रिंग रोड और बीजिंग में रिंगरोडों की संख्या ६ है। जब भी विकास की आवश्कता होती है, एक रिंग रोड और बढ़ जाती है, पुराने नगर को बिना छेड़े। रिंग रोड को यदि साइकिल का पहिया माने तो साइकिल की तीलियों की तरह १२ सड़कें केन्द्र से बाहर की ओर निकलती हैं। जहाँ पर भी ये सड़कें रिंग रोड को काटती हैं वहाँ पर हर दिशा में जाने के लिये विधिवत फ्लाईओवर। ये सारी सड़कें १४ लेन की दिखीं, एक दिशा में ७, ४ लेन सीधे जाने वालों के लिये, २ लेन आगे से मुड़ने वालों के लिये और एक लेन साइकिल मार्ग के लिये। सड़कों के किनारे दुकानें और व्यापारिक प्रतिष्ठान, पर दुकानों के बाहर पैदल चलने वालों के लिये २०-३० मीटर चौड़े रास्ते। इसी यातायात व्यवस्था के सामानान्तर भूमिगत मेट्रो की लाइनें भी बिछी हैं। 

यह मेरे लिये बड़े ही आश्चर्य का विषय था क्योंकि पुराने नगरों में इतनी चौड़ी सड़क बना पाना असम्भव है। सारे मकान कहाँ गये, यह प्रश्न स्वाभाविक था। सारे मकान दुकानों के बाद में थे, कॉलोनी रूप में, २४ तल की एक अट्टालिका, १२० मकानों की एक अट्टालिका, बड़ी कॉलोनी में ऐसी २० अट्टालिकायें, २४०० परिवारों या १०००० जनसंख्या की एक कॉलोनी। एक तल का कोई भी मकान चेन्दू और बीजिंग की नगरीय सीमा में नहीं दिखा। स्पष्ट है कि नगरीय संसाधनों और सुविधाओं के लिये स्थान निकालने के लिये भूमि की तीसरी विमा का उपयोग किया गया, बिना किसी को उनके मूल स्थान से विस्थापित किये हुये। कोई भी भूमि का छूटा टुकड़ा नहीं दिखायी पड़ा जहाँ पर पेड़ न लगें हों, जिस पर हरियाली या उद्यान न हों। प्रक्रिया बड़ी सुस्पष्ट है, मेट्रो के स्टेशन के लिये एक कॉलोनी को तोड़ना था, पास में ही एक दूसरी कॉलोनी बनायी गयी, सारे परिवारों को उसमें संस्थापित किया गया और मेट्रो निर्माण का कार्य प्रारम्भ। कोई मुआवजा नहीं, मकान के बदले मकान, मकानों की गुणवत्ता पहले से कहीं अच्छी क्योंकि भ्रष्टाचार के लिये मृत्युदण्ड है वहाँ।

इस परिदृश्य में नये नगरों और बुलेट रेलमार्गो के निर्माण को आपस में जोड़ना आवश्यक हो जाता हो। दिल्ली से चेन्नई के बीच हर ५० किमी पर नये नगरों का निर्माण करने से लगभग ४० नये नगर अस्तित्व में आ जायेंगे। इसी प्रकार पूर्वी और चार महानगरों को जोड़ने के क्रम में ५ और बुलेट रेलमार्ग और १६० नये नगर अस्तित्व में आ जायेंगे। अच्छा हो कि ये नगर अत्यन्त छोटे कस्बों के पास आयें जिससे भूमि आदि के अधिग्रहण में समस्या न हो, यदि हो तो भूमि की तीसरी विमा का उपयोग कर उसे साधा जाये और यथासंभव कृषियोग्य भूमि को बचाया जाये। इससे विकास का भौगोलिक विस्तार भी होगा। नगरों की कल्पना विश्व भर से प्राप्त अनुभवों के आधार पर आधुनिकतम और श्रेष्ठतम हो। ऊँचे भवन, निजी वाहनों के स्थान पर नगरीय सेवाओं का प्रयोग, पेट्रोलियम के स्थान पर सौर ऊर्जा और बिजली का प्रयोग, हरे भरे उद्यान, चौड़ी सड़कें, एक किमी के घेरे में प्राप्त सारी जनसुविधायें। वर्तमान नगरों की समस्याओं से त्रस्त नागरिकों को एक नया स्वप्न देगी यह योजना। आईटी के आने से वैसे ही बहुत सी सेवायें अपनी स्थानबद्धता से मुक्त हो गयी हैं। नये नगरों का निर्माण और उन्हें बुलेट ट्रेन से जोड़ने का उपक्रम भारतीय जनमानस को अपने जीवन को विश्वस्तरीय बनाने का एक अनूठा अवसर देगा।


चीन के जीवन के अन्य पक्ष अगले ब्लॉग में।

17.8.16

चीन यात्रा - ६

चीन में हाईस्पीड रेलमार्गों के निर्माण की प्रक्रिया समझने के पहले वहाँ के स्टेशनों का स्वरूप समझ लेना आवश्यक है। स्टेशनों का वाह्य स्वरूप अलग अलग हो सकता है पर कार्यात्मक दृष्टि से उनमें एकरूपता है। स्टेशनों में कम से कम दो तल होते हैं। कई स्टेशनों में तीन से चार तक तल होते हैं। ये तल प्लेटपार्म तक सीमित नहीं होते हैं, वरन पूरे के पूरे स्टेशन के ऊपर होते हैं। ऊपर के तल में एक ओर नगरीय बस और दूसरी ओर मेट्रो के संपर्क द्वार होते हैं, नीचे के तल में प्लेटफॉर्म व रेलवे की लाइनें होती हैं। पहले तल में पहुँच कर एयरपोर्ट जैसी ही सुरक्षा जाँच होती है, बस टिकटधारक ही अन्दर जा सकते हैं। अन्दर एक बहुत बड़ा सा प्रतीक्षालय होता है, पूरा खुला हुआ। उस प्रतीक्षालय के चारों ओर दुकानें रहती हैं।  ट्रेन आने के दस मिनट पहले ही यात्रियों को स्वचलित सीढियों के माध्यम से नीचे वाले तल में जाने को मिलता है। यात्रियों को उनके पूर्वनिश्चित कोच में बैठाने के लिये एक सहायक साथ जाती है। प्लेटफार्म में यात्रियों के अतिरिक्त कोई और व्यक्ति नहीं, कोई दुकान नहीं, कोई खंभे नहीं। प्लेटफार्म पर जाने वालों और वहाँ से निकलने वालों के लिये पृथक मार्ग।

प्रथम तल को यात्री सुविधाओं के लिये विकसित करने में ही आर्थिक बुद्धिमत्ता छिपी है। वाणिज्य की दृष्टिकोण से देखा जाये तो किसी भी स्टेशन पर जितनी दुकानें आ सकती हैं, उसकी दस गुनी से अधिक दुकानें प्रथम तल में समाहित की जा सकती हैं। यदि लखनऊ स्टेशन के ऊपर का पूरा क्षेत्रफल को वाणिज्यिक रूप से विकसित किया जाये तो स्टेशन के  अन्दर और आसपास की सारी दुकाने और सुविधायें उसमें आ जायेंगी। किसी मॉल से कम नहीं दिखे वहाँ के प्रथम तल। यात्रियों के लिये जनसुविधायें, दुकानों के लिये ग्राहक और प्लेटफार्म सब प्रकार के अवरोधों से मुक्त। भारत में भी इस दिशा में कार्य प्रारम्भ किया जा चुका है और स्टेशन विकास के लिये एक कार्पोरेशन का गठन किया जा चुका है।

चीन में कोई भी रेल परियोजना केन्द्र और प्रदेश के बराबर सहयोग से बनती है। यात्रियों को रेल परिवहन की व्यवस्था करना इन सरकारों का सामाजिक दायित्व है, इसे आर्थिक बोझ के रूप में कोई नहीं लेता है। किन्तु ऐसा भी नहीं है कि रेलमार्ग कहीं भी बन जाये और सरकारें आँख बन्द कर पूरा धन लगा दें। विभिन्न स्थानों पर यातायात की कितनी माँग है, इसका निर्धारण यातायात सर्वे के लिये बने ५ संस्थानों में निरन्तर किया जाता रहता है। यही संस्थान सारे आँकड़े उपलब्ध कराते हैं। भविष्य में बढ़ने वाली माँग को भी इसमें सम्मिलित किया जाता है। औद्योगिकीकरण, नये नगरों का निर्माण, जनसंख्या का स्थानान्तरण आदि अनेकों कारकों का वैज्ञानिक विधि से आकलन एवं आँकड़ों का यथारूप संकलन किया जाता है। किन नगरों को परस्पर जोड़ने की योजना होगी, वह किन स्थानों से होकर निकलेगी, ये सब निर्णय बिना स्थानीय राजनीति के लिये जाते हैं। रेलमार्ग का निर्धारण होने पर उसके आसपास की भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित करना राज्य सरकारों का कार्य होता है। यह बताया कि पारदर्शी प्रक्रिया और कठोर शासन का भय, इन दो तथ्यों के कारण रेलवे के लिये किये गये भूमि अधिग्रहण में कभी कोई समस्या नहीं आती है।

पहला व्यय भूमि का है। राज्य सरकारों के लिये भूमि उपलब्ध कराना अन्ततः लाभदायक होता है। पहले तो उनके राज्य के लोगों को यातायात की सुविधा मिलती है, यातायात के साधनों का विकास होने से आर्थिक गतिविधि बढ़ती है और सबसे बड़ा लाभ होता है, नगरीकरण। बुलेट मार्ग में बीजिंग से शंधाई के बीच २२ स्टेशन हैं, लगभग ६० किमी पर एक। इन सभी स्टेशनों का सम्पर्क बीजिंग और शंघाई जैसे स्टेशनों से ३-४ घंटे की दूरी पर हो जाने के कारण, इनके विकास की संभावनायें अपार हो गयी हैं। बुलेट मार्ग में आने वाले सभी स्टेशनों के आस पास लोग रहना चाहेंगे, अपने उद्योग लगाना चाहेंगे, विश्वविद्यालय, अस्पताल, कार्यालय आदि स्थापित करना चाहेंगे। नगरीकरण की यह प्रक्रिया राज्य सरकार के लिये अत्यन्त लाभकारी है। इससे न केवल क्षेत्र का आर्थिक विकास होता है, वरन कर के रूप में राज्य की आय भी होती है। तीन वर्ष पहले बंगलोर की उपनगरीय सेवाओं के विस्तार के बारे में राज्य सरकार से विचार विमर्श हो रहा था और राज्य सरकार विस्तार का व्यय वहन करने को तैयार बैठी थी। उत्सुकतावश जब उनसे पूछा कि आर्थिक रूप से आपको क्या लाभ होगा, तो उत्तर था कि यह व्यय तो भूमि की बढ़ी कीमतों के कारण रजिस्ठ्री भर से ही निकल आयेगा। यह प्रत्यक्ष लाभ हम बहुधा रेल परियोजनाओं के आकलन में आँकड़ों के रूप में नहीं रख पाते हैं। यदि रख पाते तो संभवतः रेल परियोजनायें इतनी मँहगी न लगतीं।

दूसरा बड़ा व्यय निर्माण का है। इसके लिये वहाँ के स्टेशनों के स्वरूप और उसके आर्थिक संदोहन की प्रक्रिया महत्व रखती है। जैसे ही परियोजना में रेलमार्ग के स्टेशनों को स्पष्ट निर्धारण होता है, उसमें आने वाले यात्रियों की संख्या के आधार पर उस पर वाणिज्यिक क्षेत्रफल का भी निर्धारण हो जाया है। उसके अधिकार नीलामी के माध्यम से पहले ही बेच दिये जाते हैं। निर्माण प्रारम्भ करने के लिये उसी पूँजी का उपयोग किया जाता है। जिन रेलमार्गों का आर्थिक औचित्य नहीं होता है तो उनका निर्माण व्यय वहाँ की सरकारें वहन करती हैं। २०१२ में बीजिंग में हुये ओलम्पिक में भी यही प्रक्रिया अपनायी गयी थी। खेलग्राम बनाने के पहले ही उनकी नीलामी कर दी गयी और पूरा का पूरा पैसा निर्माण कार्य में लग गया था। निर्माण हुआ, सफल खेल का आयोजन हुआ और उसके बाद घरों का आवंटन हुआ। भारत में यह मॉडल कितना सफल होगा, इस पर प्रयोग होना शेष है, पर बुलेट स्टेशन के प्रथम तल पर बनने वाले मॉल में लोग अपना व्यवसाय अवश्य स्थापित करना चाहेंगे। यही नहीं, अभी के स्टेशनों के प्रथम तल का स्वरूप बनाकर उसके वाणिज्यिक क्षेत्रफल की नीलामी से इतना धन आ जायेगा कि निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया जा सके।

तीसरा व्यय बुलेट ट्रेनों के परिचालन का है। उसका धन ट्रेन के किराये से आता है। यदि निर्माण का पूरा धन वाणिज्यिक गतिविधि से न आ पाये तो सरकार यह निर्धारण कर सकती है कि उसका कितना भाग वह स्वयं वहन करेगी और कितना भाग यात्रियों पर डालेगी। परिचालन और रखरखाव के लिये दो अलग विभाग रहते हैं जिनके बीच यह समझौता होता है कि उस रेलमार्ग में गाड़ियों के परिचालन के लिये कितना धन दिया जाये।  यह दर प्रति ट्रेन प्रति किमी निर्धारित की जाती है। चीन में यह दर एक ट्रेन के लिये रू ५०० प्रतिकिमी है। इस दृष्टि से दिल्ली और चेन्नई के बीच २१६५ किमी की दूरी में बुलेट ट्रेन चलाने का परिचालनिक व्यय लगभग रु ११ लाख होगा। अधिक लाभ के लिये परिचालन विभाग अधिक ट्रेनें चलायेगा और रख रखाव वाला विभाग भी अपना कार्य शीघ्रता से करेगा, यह संतुलन संसाधनों का अधिकतम संदोहन करता है।


रेल परियोजना के निर्माण और परिचालन का अर्थशास्त्र अत्यत्न सरल दिखता है यदि तीनों व्ययों को आपस में गड्डमड्ड न किया जाये। यदि भूमि और निर्माण के सारे व्यय का बोझ यात्रियों पर डाला जाता है तो आर्थिक रूप से परियोजना असाध्य हो जायेगी। प्रक्रिया के तीन चरण हैं और प्रयास इस बात का रहता है कि एक चरण का प्रभाव दूसरे चरण पर न्यूनतम हो। यह सुनिश्चित करने के लिये योजना और उसका चरणबद्ध क्रियान्वयन अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। इस निर्णय प्रक्रिया को सुदृढ़ आधार देने में वहाँ के रेल विश्वविद्यालयों और सर्वे संस्थानों की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। हम इसे किस तरह अपना सकते हैं, इससे संबंधित अन्य तथ्य अगले ब्लॉग में।

13.8.16

चीन यात्रा - ५

पिछले वर्ष सिंगापुर और मलेशिया जाने का अवसर मिला था, रेलवे द्वारा आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में। उस समय भी मन में एक उद्विग्नता थी, उस यात्रा के बारे में लिखने की। हमारी तुलना में, हमसे बाद स्वतन्त्र हुये छोटे छोटे देश कितने व्यवस्थित और कितने विकसित हो सकते हैं, इस तथ्य की लज्जा के कारण कुछ नहीं लिख सका।

हमारे देश में गम्भीर बातों को हवा में उड़ा देने वालों का एक सम्प्रदाय है। उन्हें किसी के विकास में, किसी के परिश्रम में, किसी के उद्भव में कोई तत्व नहीं दिखता है। वे अपने कुतर्कों से किसी को भी तुच्छ सिद्ध कर सकने की क्षमता रखते हैं। छोटे देशों की प्रगति के बारे में इसी सम्प्रदाय के ही किसी विचारक ने उनकी तुलना बन्दर और भारत की तुलना हाथी से की थी। विकास को नृत्य का पर्याय मानकर यह बताया गया था कि बन्दर तो कैसे भी नृत्य कर सकता है, हाथी को वैसे नृत्य से हानि ही होगी, कष्टकारी और शरीर को पीड़ा पहुँचाने वाला होगा ऐसा नृत्य। ऐसे ही लोग दूसरे हाथी चीन के विकास को लोकतन्त्र और कठोर शासन की बातों में घुमाकर हवा में उड़ा देते हैं। यद्यपि इनके मूल में अकर्मण्यता का भाव प्रबल होता है पर उसे तर्कबल से छिपाने का उपक्रम ही उनकी एकमात्र क्रियाशीलता है।  इस सम्प्रदाय की तर्क प्रक्रिया से पाठकों को आगाह करना आवश्यक था अन्यथा गम्भीरता की हवा निकालने का इनका उत्पात सदा सफल होता रहेगा।

चीन यात्रा में बुलेट ट्रेन में दो बार बैठने का सौभाग्य मिला। ३०० किमी प्रति घंटा की गति में ऐसा लग रहा था कि हवा में उड़ रही हो, दिल्ली आगरा के बीच १५० किमी प्रति घंटा की तुलना में कहीं अधिक सुखद। सन २००० में आरम्भ करते समय चीन की बुलेट ट्रेन तकनीक इतनी विकसित नहीं थी। पूरी की पूरी तकनीक आयातित थी। आने वाले २ वर्षों में चीन ने तकनीक के सारे पक्षों को खोला, समझा, परखा, अपनाया और अपना मॉडल बनाया, चाहे वह ट्रैक हो,  कोच हो, इंजिन हो, सिग्नल हो या संचार तन्त्र हो। बौद्धिक सम्पदा के जगत में लोग इसे नकल या चोरी भी कहते हैं। इन आक्षेपों से अविचलित चीन ने अपनायी तकनीक को और सुधारना प्रारम्भ किया, हर दो वर्ष में एक नया मॉडल, हर नये हाईस्पीड रेलमार्ग को और उन्नत बनाया। पिछले १५ वर्षों के सतत प्रयास और परिश्रम के बाद विशेषज्ञ बताते हैं कि एक तो चीन की तकनीक पूर्णतया आत्मनिर्भर है और सिग्नल के कुछ पक्षों को छोड़कर किसी से न्यून नहीं है। गुणवत्ता बढ़ाने के अतिरिक्त इस बात पर भी सतत शोध होता रहा कि किस प्रकार बुलेट ट्रेन पर होने वाला व्यय कम से कम हो जाये।

विश्व का औद्योगिक केन्द्र बनने में भी चीन ने इसी प्रक्रिया का अनुप्रयोग पूर्णता से किया है। किसी भी उत्पाद में लगने वाला व्यय कम करने में तीन कारक प्रमुख हैं, श्रमिक, माल और तकनीक। केवल श्रमिक ही अनुशासित और सस्ता मिलने से काम नहीं चल पायेगा क्योंकि कच्चे माल को बनाने के लिये चीन ले जाना और बने माल को बेचने के लिये विश्व बाजार में पहुँचाने का व्यय उत्पाद की लागत बढ़ा जायेगा। किस प्रकार उस उत्पाद में लगने वाले प्रत्येक माल को कम से कम लागत में प्राप्त करना और किस तकनीक का उपयोग कर उसे बना लेना, इन दोनों क्षेत्रों में अद्भुत शोध होता है चीन में। साइकिल को ही लें, तो उसके स्वरूप में सतत बदलाव करते करते उसमें लगने वाले धातु की मात्रा कम कर ली और उसमें लगने वाली धातु को बदल कर या उसी धातु को कम लागत में निर्माण कर उसे और सस्ता बना लिया। हर दिखने वाली वस्तु पर उनकी सरलीकृत बुद्धि और निरन्तर शोध की छाप दिखी। आप ध्यान दें तो आपको आश्चर्य ही होगा कि किस तरह चीन से आने वाली हर वस्तु इतनी सस्ती मिलने लगती है। गणेश की मूर्ति हो, दीवाली की झालर हो, हवा भरने वाले पंप हों, खिलौने हों या उड़ने वाले ड्रोन हों, चीन से भारत तक का परिवहन व्यय जोड़ने के बाद भी वे सब भारत के उत्पादों की तुलना में बहुत सस्ते बिकते हैं। सतत शोध की प्रक्रिया, हर वर्ष नया मॉडल निकालने की ललक और आगामी संभावित प्रतियोगिता की पहले से तैयारी ही उन्हें औद्योगिक उत्पादन के शीर्ष पर रखे हुये है।

उनके सामान्य रेलमार्ग लगभग रु ५० करोड़ प्रति किमी की दर से निर्मित होते हैं। इस रेलमार्ग में कोई भी समपार गेट नहीं होता है, या तो ऊपर से या नीचे से पुल बना होता है। पूरा मार्ग दोनों ओर से घिरा हुआ। इसी व्यय में दुमंजिले स्टेशनों का निर्माण भी जुड़ा है। स्टेशनों के निर्माण के भौतिक व आर्थिक स्वरूप की रोचक चर्चा आने वाले ब्लॉग में करेंगे। सामान्य रेलमार्ग और बुलेट रेलमार्गों में बस दो अन्तर प्रमुख हैं। पहला, हाईस्पीड का ट्रैक का आधार पूर्णतया कॉन्क्रीट होता है जबकि सामान्य ट्रैक गिट्टी पर डाले जाते हैं। दूसरा, हाईस्पीड के ट्रैक में घुमाव और चढ़ाव न्यूनतम होते हैं। बुलेट ट्रेन चलाने के लिये बिल्कुल सीधा और सपाट कॉन्क्रीट का रेलमार्ग चाहिये। यही कारण है कि हाईस्पीड रेलमार्ग लगभग रु २०० करोड़ के दर से निर्मित होते हैं। तुलना की जाये तो यह राशि बहुत अधिक नहीं है। हमारे देश में बनने वाली मेट्रो भी लगभग रु १००-१२० करोड़ प्रति किमी की दर से बन रही हैं। यह हो सकता हो कि प्रारम्भिक बुलेट रेलमार्गों पर आयातित तकनीक के कारण अधिक धन लगे, पर धीरे धीरे जब तकनीक का भारतीयकरण करने में हमें सफलता मिलेगी तभी जाकर इस लागत को हम कम कर सकेंगे।

यह तर्क भी दिया जाता है कि भारतीयों को इतनी शीघ्रता कभी नहीं रही कि वे ३६० किमी प्रति घंटे की गति पर आरूढ़ हों। तर्क आकर्षक लग सकता है। समय के महत्व को न समझना और उसे व्यर्थ करते रहना हमारी दिनचर्या है। भारत मे समस्या भले ही समय की न हो पर जनसंख्या की अवश्य है। जहाँ पूरी ऑस्ट्रेलिया की जनसंख्या को एक दिन में ढोने का भार हमारे कंधों पर हो तो बुलेट ट्रेन से अधिक उपयोगी और कुछ नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिये दिल्ली और चेन्नई के बीच की दूरी २१७५ किमी है, दोनों के बीच चलने वाली ट्रेनों का दैनिक औसत ५ है। तमिलनाडु एक्सप्रेस की औसत गति ६५ किमी प्रति घंटा है, यात्रा ३३ घंटे की है, प्रतिदिन चलाने के लिये कुल ४ ट्रेनें लगती हैं। यदि ३६० किमी प्रति घंटा की बुलेट ट्रेन से यात्रा की जाये तो पहुँचने में ६-७ घंटे लगेंगे। एक ट्रेन दिन में तीन फेरे लगा लेगी। ६-७ घंटे की यात्रा बैठकर की जा सकती है, अतः ७२ के स्थान पर हर कोच में ८५ यात्री चल सकते हैं। यदि गणना की जाये तो वर्तमान २० ट्रेनों के स्थान पर केवल ४ बुलेट ट्रेनें दिल्ली और चेन्नई के बीच के यात्रियों के लिये पर्याप्त है। यदि वर्तमान ट्रेनों की तुलना में बुलेट टेनें पाँच गुनी मँहगी भी हों तो भी कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ेगा। यदि हवाई यात्रा में लगने वाले पूरे समय को देखा जाये तो बुलेट ट्रेनों की यात्रा में लगने वाला समय समकक्ष ही होगा। किराये की दृष्टि से रेल और हवाई जहाज के बीच का कोई समुचित बिन्दु यात्रियों के लिये मँहगा नहीं होगा।


दिल्ली से कोलकता की दूरी बीजिंग से शंघाई की दूरी के लगभग बराबर ही है। ५ घंटे से कम में पहुँचने वाली बुलेट ट्रेन का किराया रु ५५०० है। १७ घंटे में पहुँचने वाली राजधानी का एसी २ का किराया रु ३६०० व हवाई किराया रु ७००० है। बुलेट ट्रेन का परिचालनिक व्यय निकालना वर्तमान की तुलना में कठिन कार्य नहीं होगा। उस पर से यात्रियों का कितना समय बचेगा, वह देश के लिये हितकर होगा। बुलेट ट्रेन के ट्रैक के प्रारम्भिक निर्माण के व्यय को चीन में किस प्रकार साधा जाता है, अगले ब्लॉग में।

10.8.16

चीन यात्रा - ४

दिल्ली से दोपहर बारह बजे की उड़ान, गुआन्झो के लिये, साढ़े पाँच घंटे की। एयरपोर्ट पर उतारने का स्थान नहीं होने के कारण, हवाई जहाज गुआन्झो के ऊपर ही घंटे भर मँडराता रहा। हांगकांग से लगभग २०० किमी दूर, गुआन्झो में २०१० के एशियाई खेल हुये थे। चीन और भारत के समय में ढाई घंटे का अन्तर है। वहाँ के समयानुसार रात को नौ बजे हम गुआन्झो पहुँचे। वहाँ से चेन्दू की फ्लाईट तीन घंटे से अधिक देरी से थी, रात को एक बजे वहाँ से निकल कर रात को साढ़े तीन बजे हम चेन्दू पहुँच सके। परिवहन विश्वविद्यालय के होटल पहुँच कर सोने में रात का चार बज गया था।

साउथ वेस्टर्न जियोटॉन यूनिवर्सिटी (SWJTU), चीन की चार रेलवे यूनीवर्सिटी में से एक है। जियोटॉन का शाब्दिक अर्थ परिवहन या संचार होता है। इस विश्वविद्यालय में रेलवे संबंधित प्रशिक्षण, शोध व मानकीकरण होता है। इसके अतिरिक्त देश भर में ५ केन्द्र हैं जो परिवहन संबंधी आँकड़ों को एकत्र करते हैं। ये दोनों संस्थान रेलवे की आधारभूत निर्णय प्रक्रिया के स्तंभ हैं। किन्ही दो स्थानों के बीच किस प्रकार का रेल तन्त्र आयेगा, वह किन स्थानों से होकर निकलेगा, किस तकनीक से उसे बनाया जायेगा, कैसे इंजन और कोच उसमें प्रयुक्त होंगे और उसका संचालन कैसे होगा, इसकी विस्तृत रूपरेखा तैयार करने में इन संस्थानों का महत योगदान रहता है। भारतीय रेल बजट में घोषित रेल विश्वविद्यालयों का आगामी स्वरूप कैसा होगा, उसकी समग्र संभावना चीन के परिवहन विश्वविद्यालय में दिखायी पड़ी।

तीन सौ तैंतीस एकड़ में फैला यह विश्वविद्यालय १८९६ में स्थापित हुआ था। सारे संबद्ध विद्यालयों को मिलाकर यहाँ चालीस हजार विद्यार्थी, तीन हजार अध्यापक और लगभग हजार अन्य सहायक हैं।  स्वागत कार्यक्रम में वहाँ के डीन ने सेमिनार की विस्तृत रूपरेखा बतायी।  उनके उद्बोधन चीनी में थे, अनुवादक उसे अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे थे। सेमिनार में रेलवे निर्माण, योजना, यात्री सुविधा और परिचालन के ऊपर विस्तृत चर्चा हुयी। चीन ने रेलवे विस्तार और संचालन में जिन उन्नत सिद्धान्तों को अपनाया है उनका भारत के साथ तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक हो जाता है। 

यदि आपके मन रेलवे के क्षेत्र में चीन की प्रगति के बारे में कोई संशय है तो उन्हें आँकड़ों के माध्यम से दूर किया जा सकता है। एक और तर्क से चीन से अपनी तुलना न करने का बहाना ढूढ़ा जाता रहा है। आप कह सकते हैं कि वहाँ पर शासन व्यवस्था कठोर है, विरोध करने वालों को दण्डित किया जाता है, इस प्रकार वे कुछ भी कर सकने में सक्षम हैं। वे जो सोच लेते हैं, कर सकते हैं। हमारे देश में लोकतन्त्र हैं, यहाँ पर सबको अपनी बातें कहने का अधिकार है, इसीलिये हम विकास के क्षेत्र में मन्दगति धारण किये हैं। इस तर्क के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन का तत्काल पटाक्षेप किया जा सकता है, पर यह तर्क अधिकांश भारतीयों को स्वीकार नहीं होगा। यद्यपि लोकतन्त्र है, सबको साथ लेकर चलने में समय लग सकता है, पर हमारी तार्किक शक्ति इतनी भी अशक्त नहीं है कि हमें अच्छी बात भी समझ न आये। संस्कृति के अध्यायों में हमारी सभ्यता ज्ञान और उन्नति के शिखर स्तम्भों में विद्यमान रही है। सदियों की पराधीनता के कारण हम पिछड़ अवश्य गये हैं, पर प्रतियोगिता से बाहर नहीं हुये हैं। हमारा अस्तित्व हमें रह रहकर झकझोरता है, विश्वगुरु के रूप में पुनर्स्थापित होने के लिये।

अधिक पीछे न जायें, १९४७ में हमारे पास ५४००० किमी रेलमार्ग था, चीन के पास उसका अाधा अर्थात २७००० किमी। पिछले ६९ वर्षों में हम मात्र ११००० किमी जोड़ पाये, जबकि चीन ने हमसे १० गुना अधिक अर्थात ११०००० रेलमार्ग बिछा दिया।  बीस वर्ष पहले तक दोनों के रेलमार्गों की लम्बाई बराबर थी, इस समय चीन में भारत का दुगना रेलमार्ग है। यही नहीं, यदि उनकी योजना के अनुसार उनका कार्य होता गया, जो कि समय से आगे चल रही हैं, तो २०३० तक चीन के पास दो लाख से अधिक रेलमार्ग होगा, भारत के वर्तमान रेलमार्ग से तिगुना।  हमारे लिये पिछले ६९ वर्ष अपने गौरव को भुलाकर पश्चिम की नकल उतारने में चले गये, अपनों को समझाने मनाने में बीत गये, राजनीति करने में निकल गये, चीन अथक परिश्रम करता गया और हमसे इतना आगे निकल गया कि जिसे छू पाने की कल्पना भी हमें स्वेदसिंधु में डुबो जाती है।

बुलेट ट्रेन को लेकर जहाँ एक ओर हमारे तथाकथित चर्चाकार उसके लाभहानि की विवेचना मे उन्मत रहते हैं, वहीं चीन ने पिछले १५ वर्षों में २०००० किमी का हाईस्पीड रेलमार्ग निर्मित कर लिया। बुलेट ट्रेनें केवल उच्च तकनीक का प्रदर्शन ही नहीं, वरन उनकी उपयोगिता अत्यधिक है। वर्तमान में जितने यात्री सामान्य गाड़ियों मे नहीं बैठते हैं, उससे कहीं अधिक बुलेट ट्रेन में यात्रा करते हैं। वर्तमान में बुलेट ट्रेनों की अधिकतम गति ३६० किमी प्रति घंटा की है, पर उन्हें ५०० किमी प्रति घंटा पहुँचने की ललक है। उनकी योजना २०३० तक ६०००० किमी हाईस्पीड रेलमार्ग और निर्माण करने की है। 

चार दिन पहले ही चीन के पूर्वी समुद्री तट से चलकर पहली मालगाड़ी तेहरान पहुँची  है। चीन जिस तरह समुद्र द्वारा लम्बे और धीरे मार्ग की निर्भरता समाप्त कर रेलमार्ग से यूरेशिया के पश्चिमी सिरों को जोड़ रहा है, उससे वह वस्तुओं के परिवहन व्यय को अधिकाधिक कम कर देगा और निकट भविष्य में सस्ता माल भेज कर अपना व्यापारिक आधिपत्य स्थापित कर लेगा। यही नहीं, मंगोलिया, तजाकिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, वर्मा और थाईलैंड को हाईस्पीड रेलमार्ग से जोड़ने की उसकी विस्तारवादी योजना इस महाद्वीप के यातायात परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन कर देगी। तिब्बत तक का रेलमार्ग संभवतः पर्याप्त नहीं था, ऑक्टोपस की तरह चीन के रेलमार्ग की पहुँच भारत के चारों ओर अपनी उपस्थिति दिखायेगी।

विकल्प तुलना करने या न करने का नहीं है। काल के भाल पर बस दो विकल्प स्पष्ट हैं, या तो हम उद्धत हों और विकास में लग जायें, या आरोपो प्रत्यारोपों के मकडजाल में पड़े रहें और भविष्य के ग्रास में विलीन हो जायें।


कुछ और तथ्य अगले ब्लॉग में।

6.8.16

चीन यात्रा - ३

यदि बौद्धधर्म को कर्मकाण्डों और प्रतीकों के परे देखें तो निष्कर्ष रूप में टाओ और जेन विशुद्ध दर्शन हैं। कोई भी शासन व्यवस्था हो, टाओ और जेन को व्यवहार में लाया जा सकता है। परिवेश की स्थिरता में दर्शन पनपता है। कौन सी स्थिर शासन व्यवस्था अधिक अनुकूल हो सकती है, पूँजीवाद या साम्यवाद, यह बड़ा ही रोचक विषय है। एक ओर जापान,  दूसरी ओर चीन है। बौद्धधर्म चीन के रास्ते ही जापान पहुँचा है। जापान में लोकतन्त्र और पूँजीवाद की स्थिरता विकास को  प्रेरणा देती है, वहीं चीन में कठोर अनुशासन और साम्यवाद समाज को सरलता की ओर ले जाते से दिखते हैं। भौतिकता और आध्यात्मिकता की विमायें भी ले आयेंगे तो विषय और जटिल हो जायेगा। सारांश में यह मानकर चलें कि जब भौतिक विमा बाधित हो जाती है, अध्यात्म सरलता की राह पकड़ लेता है।

लगता है, चीन में भी यही हुआ। १९११ की क्रान्ति के बाद वहाँ साम्यवाद का उदय हुआ, राजनैतिक परिवर्तन के द्वारा शासन व्यवस्था बदली। धार्मिक अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगे, राज्य का कोई धर्म नहीं रहा। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकारक्षेत्र अत्यन्त सीमित कर दिया गया। सामाजिक और आर्थिक जीवन के सारे पक्ष साम्यवाद में समतल होने लगे। प्रतिभा की प्रतिष्ठा का आधार पूँजी नहीं रह गया। जन को जीवनशैली चुनने का कोई विकल्प नहीं। जब जन से उसका धर्म छीन लिया होगा, उसके कर्मकाण्डों और प्रतीकों से वंचित कर दिया होगा तो सांस्कृतिक विरह के उस कालखण्ड में धर्म से संबद्ध दर्शन, मान्यतायें और गाढ़ी और स्थायी हो गयी होंगी। कहते हैं कि जब इस्लाम पूर्व की ओर बढ़ा, बौद्ध विहारों को नष्ट कर दिया गया, बुत(बुद्ध) तोड़े गये, व्यापक नरसंहार हुआ। कई बौद्धों ने अपने प्राण बचाने हेतु इस्लाम अपना तो लिया, पर बौद्ध धर्म की मान्यताओं से स्वयं को विलग न कर पाये। वही सूफी हो गये। यह आश्चर्य नहीं कि अपने स्थान पर गोल गोल घूमते हुये ध्यानस्थ हो जाने की पद्धति सूफी और तिब्बत के बौद्धों में किसी पुराने संपर्क को दर्शाती है। ऐसे ही न जाने कितने अनसुलझे तथ्य सांस्कृतिक विरह के प्रतीक हों।

साम्यवाद का नाम आते ही हमारे मन में दो चित्र उभरते हैं, एक विघटित होता रूस, दूसरा हड़ताल, अव्यवस्था और उत्पात में डूबता समृद्ध पश्चिम बंगाल। ये दोनों ही तथ्य साम्यवाद के सत्य हैं, एक उसके अवरोह का सत्य है एक उसके आरोह के तथाकथित प्रयासों का। चीन का साम्यवाद इन दोनों ही लक्षणों से पृथक है। चीन का साम्यवाद १९११ में ही अपने आरोह पर पहुँच गया था तथा अवरोह के क्रम में रूस के विघटन और थियानमान चौक की घटनाओं से सीख लेते हुये अपनी दिशा बदल चुका है। चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को सीमित रूप से खोलना प्रारम्भ कर दिया, पूँजीवादियों की तरह। अपने जनबल और अनुशासन का भरपूर लाभ लेते हुये औद्योगिक निर्माण के विश्वव्यापी केन्द्र के रूप में स्वयं को स्थापित कर लिया। जुटायी हुयी उस पूँजी का उपयोग देश की आधारभूत संरचना खड़ा करने में किया। शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि जैसे मानवीय आवश्कताओं के अतिरिक्त नगरीय योजना, सड़क, रेल, मेट्रो, पोर्ट, एयरपोर्ट आदि सभी क्षेत्रों में विश्वस्तरीय संरचना का निर्माण किया। इस परिवर्धित प्रक्रिया को यदि पूँजीवाद पोषित साम्यवाद कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नागरिकों को यह सब जितना ही शीघ्र मिल जाये, उनका जीवन अतना ही सुविधाजनक और सरल हो चलेगा। यदि सामान्य जन का जीवन अपने अस्तित्व के लिये जूझने में ही बीते तो जीवन में सरलता की कल्पना करना भी अन्याय  है।

चीन के समाज और जीवनशैली में सरलता की चार विमायें हैं, भाषायी,  बौद्धजनित, सांस्कृतिक विरह तत्व और शासन प्रदत्त। उसका प्रभाव हर ओर दिखायी पड़ा। टीवी पर टुनिऊ नामक चीन की पर्यटन की कम्पनी के बारे में देख रहा था। ३१०० करोड़ रुपये की कम्पनी के ४० वर्षीय मालिक से जब उनकी सामान्य सी दिखने वाली व्यक्तिगत जीवनशैली के बारे में पूछा गया तो वह मुस्करा कर टाल गये। सरल मानव मन अपने धन का दम्भ नहीं भरता है। चीन के नगरीय जीवन में एक व्यवस्था और अनुशासन दिखायी पड़ा। कहीं कोई किसी से झगड़ता नहीं दिखा, बस, ट्रेन और सेवाओं के लिये पंक्तिबद्ध प्रतीक्षा, टैक्सी आदि के किरायों में कोई छल नहीं, सब के सब अपने कार्यों में रत।

प्रत्यक्ष देखने से धारणाओं का भ्रम टूटता है। चीन आने के पहले चीन के बारे में निर्मित धारणायें उतनी सकारात्मक नहीं थीं। सोचता था कि देश के नेतृत्व की उग्रता और विस्तारवादी सोच की झलक वहाँ के सामान्य जन में दिखेगी, जो कि नहीं दिखी। सोचता था कि भारतीयों के प्रति वहाँ के जनमानस में एक तटस्थ या शत्रुभाव होगा, जो कि नहीं दिखा। सोचता था कि अपनी संस्कृति के प्रति क्षोभ और नवविकास का दम्भ उनके व्यवहार में परिलक्षित होगा, जो कि नहीं हुआ। इन सब धारणाओं के परे वहाँ का समाज अत्यन्त जीवन्त है। भारतीयों को वे इन्डू के नाम से पुकारते हैं। वहाँ के प्रौढ़ों और वृद्धों में भारत के प्रति सम्मान का भाव है।  नव वैश्विक परिवेश के कारण वहाँ का युवा वर्ग पश्चिम से अधिक प्रभावित है। जिस बस में हम लोगों के आने जाने की व्यवस्था थी, उस बस का ड्राइवर राजकपूर का दीवाना था। उसने हम लोगों को 'आवारा हूँ' गा कर सुनाया।


अगले ब्लॉग में वहाँ के अन्य पक्ष।

3.8.16

चीन यात्रा - २

पिछले व्लॉग पर प्रश्न यह था कि भाषा की जटिलता किस प्रकार चिन्तन को प्रभावित करती है। पिछले ७०-८० वर्षों से इस विषय पर पर्याप्त शोध हुआ है। मुख्यतः दो उदाहरण दिये जाते हैं, ऑस्ट्रेलिया की किसी उपभाषा में सामने, पीछे आदि शब्दों का न होना और किसी हिम प्रदेश की भाषा में हिम के लिये आवश्यकता से अधिक शब्दों का होना। एक में शब्दों की कमी है तो दूसरी में अधिकता। शब्दों की कमी या अधिकता से अभिव्यक्ति में आने वाली समस्या या सुगमता तो समझ आती है पर वर्णमाला की क्लिष्टता शब्दों की संख्या पर क्या प्रभाव डालेगी, यह तथ्य समझना आवश्यक है।

उदाहरण चीनी भाषा का ही ले लें, भाषा में हर शब्द के लिये आकृतियाँ हैं। यदि जल के लिये एक आकृति है तो उसके लिये दूसरा शब्द या आकृति नियत करने से भाषा सीखने के लिये करने वाला प्रयास बढ़ जायेगा। जब मानसिक परिश्रम का व्यय अधिक हो तो शब्दों की मितव्ययिता से ही कार्य करना सीखना होगा। भाषा का स्वरूप अपरिग्रही हो जायेगा, आवश्यकता से अधिक कुछ भी नहीं। कम शब्द, सरल चिन्तन। भाषायी क्लिष्टता मानसिक सारल्य को प्रेरित कर सकती है।

भाषा की आवश्यकता अभिव्यक्ति की आवश्यकता है, विचारों का क्षेत्र है यह। विचारों का क्षेत्र अत्यन्त जटिल है। शाब्दिक सारल्य क्या विचारों की गति या जटिलता के साथ न्याय कर पायेगा। सामाजिक जीवन में कम शब्दों से कार्य चल सकता है, जीवन के गूढ़ प्रश्नों के लिये संभवत वह पर्याप्त न हो।

वहीं दूसरी ओर संस्कृत को देखें। जल के लिये ढेरों शब्द हैं। जल के हर गुण के लिये एक शब्द। व्यक्ति के लिये जन, पुरुष, मानव आदि, हर व्यवहार के लिये एक शब्द। इस प्रकार के विस्तार के लिये संस्कृत का आधार बड़ा ही सुव्यवस्थित और सुदृढ़ तैयार किया गया है। ध्वनि पर आधारित वर्णमाला। जिन स्थानों से ध्वनि परिवर्धित हो सकती है, उन्हे एक समूह में रखना। दो हज़ार धातु रूप, सारे धातु रूप क्रिया आधारित। एक धातु रूप से सैकड़ों शब्दों के उद्भव की व्यवस्था। लम्बे समय तक गुणवत्ता और शुद्धता बनी रहे, उस हेतु व्याकरण के नियम, लगभग ४००० सूत्रों में। धातु रूप और व्याकरणीय सूत्र, कुल मिला कर ५० पन्नों में सिमटा व्याकरण। संस्कृत में शब्दकोष का प्रादुर्भाव बहुत बाद में हुआ है क्योंकि शब्दों का अर्थ उन्हें धातु रूपों में विग्रह करके निकाला जा सकता है।

भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में संस्कृत से अधिक परिपूर्ण, काल द्वारा अनापेक्षित और वैज्ञानिक भाषा कोई नहीं है। बड़े से बड़े विचारों को न्यूनतम शब्दों में व्यक्त करने की इसकी क्षमता अद्भुत है। संस्कृत का दृष्टिगत सारल्य उसकी व्याकरणीय क्लिष्टता में छिपा है। वहीं चीनी भाषा में हर वस्तु और क्रिया को एक आकृति आवंटित करने का सरलीकृत कार्य उसे जटिल सिद्धान्तों का वाहक बनने में बाधित करता है। दोनों ही भाषाओं के स्वरूप का निष्कर्ष बिन्दु सरल है। वैचारिक चिन्तन के जिन आयामों और विमाओं में संस्कृत पहुँचने में सक्षम है, चीनी भाषा उसका शतांश भी नहीं छू सकती।

चीन के समाज की चिन्तन प्रक्रिया अत्यन्त सरल और व्यवस्थित है। चिन्तन प्रक्रिया पर भाषा के प्रभाव के अतिरिक्त दो और कारक हैं जो इसे और भी सरल और व्यवस्थित बनाते हैं। दोनों ही कारक ऐतिहासिक हैं। ये हैं, बौद्ध दर्शन का प्रभाव और कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था।

चीन में ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि बौद्ध धर्म यहाँ पर समुद्र और सिल्क मार्ग से अपने प्रारम्भिक काल में ही पहुँच गया था। कन्फ़्यूशियस और बौद्धदर्शन का व्यापक प्रभाव वहाँ की जीवनशैली में है। टाओ व जेन विचारधाराओं का और कुंगफू व ताइक्वान्डो आदि विधाओं का जन्म बौद्धजीवन के संपर्कबिन्दुओं पर हुआ। ये सब चीनी समाज में संतुलन, साम्य और अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तों को पुष्ट करते गये। टाओ के प्रतीक चिन्ह में यिंग और यांग के रूप में पुरुष और नारी तत्वों का संतुलन, वर्तमान में स्थिर रहने का आग्रह, श्वासों पर आवागमन पर केन्द्रित ध्यानपद्धति और जेन के प्रतिरूप न्यूनतम में भी व्यवस्थित और पूर्ण रहने की कला इन्हें बौद्धधर्म से प्राप्त हुये। आन्तरिक सारल्य को स्थापित करने में बौद्धधर्म का प्रभाव चीन पर अब भी अपनी व्यापकता में दिखता है।


घटनायें इतिहास की दिशा बदल देती हैं। चीन के भाग्य में भाषायी सारल्य और व्यवहारिक सारल्य के पश्चात वाह्य सारल्य भी लिखा था। उन विमाओं को अगले ब्लॉग में समझेंगे।