वचन है यह सत्यता को,
जिस दिशा में सोचता हूँ,
उन पथों को छोड़कर मैं,
एक पग भी ना चलूँगा ।।१।।
बहुत सोचा और विचारा,
एक बस निष्कर्ष लक्षित,
उस दिशा में दृष्टिगत हो,
पंथ मेरे चल पड़ेंगे ।।२।।
अब समय के यज्ञ में,
आहुति चढ़ाता जाऊँगा मैं,
अब विगत-उपयोगिता,
चिन्तन भी करना व्यर्थ है ।।३।।
रचनात्मक अंतकरण की विवशताएं शांत प्रश्रय पा ही जाती हैं। आपकी कविता में निकले भावों को भलीभांति समझ सकता हूँ।
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