पिछले ८ माह से लखनऊ में हूँ और भारतीय यातायात सेवा के प्रशिक्षु अधिकारियों के प्रशिक्षण का दायित्व वहन कर रहा हूँ। एक प्रश्न सतत ही उठता रहा है कि यातायात सेवा जैसी विशिष्ट सेवा में सक्षम अधिकारियों को तैयार करने में प्रशिक्षण का अधिक महत्व है या अनुभव का? साथ ही साथ इस पर भी अन्वेषण और चिन्तन चलता रहा कि किस प्रकार प्रशिक्षण को और प्रभावी बनाया जा सकता है? चर्चायें इस तथ्य पर भी हुयी कि अन्य किन सेवाओं में प्रशिक्षण एक सुदृढ़ आधार के रूप में देखा जाता है।
प्रतियोगी परीक्षायें अधिक योग्य व्यक्ति का चयन तो सुनिश्चित कर लेती हैं पर योग्यता के मापदण्ड उस सेवा के लिये कितने सहायक होंगे इस पर संभवतः किसी का घ्यान नहीं जाता है। शीर्षस्थ सेवाओं से लेकर साधारण सेवाओं तक न जाने कितने उदाहरण हैं जिसमें चयनित व्यक्ति की योग्यता किसी एक क्षेत्र में है और आवश्यकता किसी दूसरे क्षेत्र में। इस पर अधिक चर्चा न करते हुये और सबको समान अवसर देने के लोकतान्त्रिक कर्तव्यों को निभाते हुये हम प्रशिक्षण को प्रथम दिशा देने वाला कार्य मान लेते हैं। प्रशिक्षण का कार्य तब और भी बढ़ जाता है जब आपके सामने हर संभावित विविधता हो और आपसे कहा जाये कि सबको ही यातायात सेवा जैसे विशिष्ट कार्य में निपुण कर के निकालना है, वह भी डेढ़ वर्ष में।
प्रशिक्षकों का कार्य दिये हुये समय और समूह में प्रशिक्षुओं का सर्वश्रेष्ठ तत्व निकालना है। वह तत्व उद्भाषित करना है जो सेवा में सहायक हो। यह तथ्य मेरे लिये तब तक महत्वपूर्ण नहीं था जब तक मैं मंडलों में सीधा परिचालन या वाणिज्य का कार्य कर रहा था। सीखे हुये कार्य को किस प्रकार सबको सिखाना है, किस प्रकार २० वर्षों के कार्य के अनुभव को डेढ़ वर्षों में सान्ध्रित करना है, और किस प्रकार प्रशिक्षण के तत्वों को समावेशित करना है, जिससे मंडलों में कार्य करने हेतु सर्वश्रेष्ठ अधिकारी तैयार किये जा सकें।
प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण की विधि, यह दोनों ही विषय रोचक हैं। जो विषय जितना सरल होता है उसके लिये उतने ही कम प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। कार्य जितना विशिष्ट होता है, पाठ्यक्रम और विधि उतने ही जटिल हो जाते हैं। पाठ्यक्रम सभी संगठनों में नियत ही रहता है। अन्तर प्रशिक्षण की विधियों से आता है। पिछले ८ माह के प्रत्यक्ष और २० वर्षों के परोक्ष अनुभव से दो तत्व निकल कर आये हैं। ये दोनों तत्व दो विभिन्न सेवाओं से निकले हैं। विश्लेषण से तत्व स्वतः सुलझते जायेंगे।
दो क्षेत्र हैं, सेना और चिकित्सा। सेना प्रदत्त तत्व है, हर संभावित घटना और संकट के लिये तन, मन को सुदृढ़ बनाना। चिकित्सा प्रदत्त तत्व है, आने वाले परिवेश में ही प्रशिक्षण करना। इन दोनों क्षेत्रों का ज्ञान सैद्धान्तिक नहीं, वरन अमुभवजन्य। अभी कुछ दिन पहले ही मेडिकल कॉलेज से संबद्ध एक सरकारी अस्पताल में पूरी रात बितायी है और प्रशिक्षणरत कनिष्ठ डॉक्टरों को निकटता से कार्य करते हुये देखा है। सेना के प्रशिक्षण को भी समग्रता से समझा और परखा है। जब इन दो तत्वों के संदर्भ में प्रशिक्षण को देखता हूँ तो सारे अनुत्तरित प्रश्न अपना उत्तर पाते हुये से प्रतीत होते हैं। प्रशिक्षण की आधारभूत संरचना में इन दो तत्वों का होना अत्यावश्यक है। ये दोनों तत्व पाठ्यक्रम से नहीं, विधि से संबंधित हैं।
हर सेवा में, सेना की भाँति, कठिन परिस्थितियाँ आती हैं। उन परिस्थितियों को दृढ़ता से निभा ले जाना प्राप्त प्रशिक्षण का परिचायक है। सामान्य परिस्थितियों की कार्यप्रणाली में अधिकारियों के हस्तक्षेप की आवश्यकता न्यूनतम होती है। २० वर्षों की सेवा में इस तरह की कई परिस्थितियों से साक्षात्कार हुआ है और अनुभव के आधार पर यह पाया है कि कठिन परिस्थियों के संदर्भ में संगठन की तैयारी कितनी है, यह दो बातों पर निर्भर करता है। पहला कि कठिन परिस्थिति से कितनी शीघ्रता से निपटा गया, दूसरा कि पुनः सामान्य परिस्थिति में वापस आने में कितना समय लगा। कठिन परिस्थितियाँ हो सकती हैं, कठिन स्थान हो सकते हैं, कठिन सहयोगी हो सकते हैं। कठिन को सामान्य बनाने की क्षमता न केवल उत्तरोत्तर बढ़ती रहनी चाहिये, वरन उसका प्रारम्भ प्रशिक्षण से ही हो जाना चाहिये। सेना की प्रशिक्षण शैली इस उद्देश्य के लिये स्वयंसिद्ध है।
चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षण की कालावधि में ही प्रशिक्षुओं को उन परिस्थितियों में उतार दिया जाता है जो उनके कार्यजीवन में आने वाली होती हैं। इससे न केवल प्रशिक्षण गहन होता है, वरन उपयोगी भी हो जाता है। कक्षाओं में पढ़े हुये सिद्धान्त बिस्तर पर कराहते हुये रोगी को ठीक करने के प्रयत्न में सिद्ध हो जाते हैं। कई क्षेत्रों में प्रशिक्षण सैद्दान्तिक अधिक और उपयोगी कम होता है। पहले दिन से जिन परिस्थितियों में कार्य करना है, उसका व्यवहारिक ज्ञान प्रशिक्षण को कहीं अधिक रुचिकर बना देता है। साथ ही साथ प्रशिक्षुओं की संवेदना उन व्यक्तियों के प्रति जागृत होती है जिनकी सेवा उन्हें आने वाले समय में करनी है। जन से जुड़ाव तो करना ही होगा, अंग्रेजी साहिबी से देश का भला अब होने से रहा। जिस समाज से आये हैं, उसे तो सँवारना ही होगा।
जितनी भी सरकारी नौकरियाँ हैं सबके प्रशिक्षण में ये दो तत्व सप्रयास डाले जायें। यदि अभी नहीं हैं तो उन्हें ढूढ़ा जाये और संबद्ध किया जाये। और भी अच्छा होगा कि प्रतियोगी परीक्षा की योग्यता इन दो तत्वों के आधार पर परखी जाये। इन दो तत्वों का अभाव अच्छे से अच्छे प्रशिक्षण पाठ्यक्रम को धूल धूसरित करने में सक्षम है। योग्य अधिकारी बिना इनके अपनी सार्थकता स्थापित नहीं कर पायेंगे। मैं भी इन तत्वों को अपने प्रशिक्षुओं में उभारना चाहता हूँ। वे शारीरिक और मानसिक रूप से सुदृढ़ हों, कठिन परिस्थियों को सामान्य बनाने में सक्षम हो, यात्रियों से जुड़ें, उनके साथ यात्रा करें, उनसे बाते करें, उनकी आवश्यकताओं को समझें। जब सारे विकल्प समाप्तप्राय हो जायें, प्रशिक्षण की सघनता उस समय तक भी प्रेरक रहे।