भौतिकता में क्यों अटका है?
मार्ग जटिल ही क्यों तकता है?
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब,
झेल चुका, अब बहुत हो गया,
जागृत संचितधर्म सो गया ।
जीवन के हर द्वारे द्वारे,
जयद्रथ जैसे शत्रु आज सब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।
पार्थ-पुत्र तू नहीं प्रलयंकर,
प्राप्त नहीं हैं तुझे विजयशर ।
अस्तित्वों के युद्ध निरन्तर,
खीखें व्यूह भेदना हम कब ।
चक्रव्यूह अनुकूल नहीं अब ।।
अन्दर सुख है शेष व्यर्थ है,
अन्तरतम की बलि निरर्थ है ।
चक्रव्यूह के अग्निकुण्ड में,
भौतिकता ही दान करो अब ।
स्वप्निल मनवा जागेगा कब?
प्रवीण जी बहुत ही सुंदर व रोचक रचना......आपने इस रचना के माध्यम से लोगों को चक्रव्यूह में न पड़ने के लिए एक नई राह दी है......ऐसी ही उत्साहवर्धक रचनाएं अब आप शब्दनगरी
ReplyDeleteके माध्यम से भी लिखकर व जुड़ कर एक नया अनुभव ले सकतें हैं....
बहुत सुंदर रचना......
ReplyDeleteOh great,sir I am a regular reader of your poems and love to read them,all are eqally brillainat.
ReplyDeletegood post..
Deleteanmol vachan in hindi