अकेले बैठता हूँ, तो विचारों के बवंडर, शान्त मन को घेर लेते हैं ।
मैं कितना जूझता हूँ, किन्तु फिर डूबता हूँ, मैं निराशा की नदी में ।
अगर मैं छोड़ता हूँ, स्वयं को मन के सहारे, आत्म का अस्तित्व खोता हूँ ।
कभी कुछ सोचता हूँ, शीघ्र छिप जाती समस्या, पर विवादों के प्रवाहों में ।।
करूँ क्या मैं, कहूँ कैसे, और किसको ही बता दूँ ।
और कैसे हृदय के उद्वेग को निश्चित दिशा दूँ ।।
न जाने क्यों जो स्थिर था, वही विश्वास हिलता है ।
मुझे क्यों हर तरफ ही विरह का विस्तार दिखता है ।।
इतनी व्यथा,उद्वेग,निराशा ? अवश्य विषय गंभीर है, यदि उचित जान पड़े तो अवश्य उद्वेग का कारण अवश्य बताइयेगा। शायद कुछ सार्थक मिल जाए । नारायण हरिः सरकार ।
ReplyDeleteyeha vyatha hai har uss man ki Jo apne aas paas vikrat mansikta ko karya karte hua dekh raha hai,,..
ReplyDeleteJab bahut safal vyaktiyo ko bhi uljhe hue dekhta hu to man kehta hai ki vyartha hi utkrishtata ke pagalpan me dauda ja raha hu. Samanya jeevan ko bhi santushti ke sath vyateet kar lu to safal ban jaunga. Par tabhi Geeta ke bahut sare updesho ka anayas hi smaran ho jata hai. Bhatakta hi na rah jau kahi . Uff ye chanchal man!!!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-05-2016) को "हक़ मांग मजूरा" (चर्चा अंक-2330) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्रमिक दिवस की
शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " मजदूर दिवस, बाल श्रम, आप और हम " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteविरह का विस्तार क्यों? भाभी जी घर पर हैं!!!
ReplyDeleteक्या खंकरियाल जी अच्छे भले संजीदा माहौल को.......
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