टूटने पाये न संस्कृति,
टूटने पाये न गरिमा ।
काल है यह संक्रमण का,
प्रिय सदा यह याद रखना ।।
वृहद था आधार जिसका,
वृक्ष अब वह कट रहा है ।
प्रेम का विस्तार भी अब,
स्वार्थरत हो बट रहा है ।।
चमकती थी कान्ति की
आभा सतत माँ के नयन से ।
आज फिर वह चमक सारी,
विमुख क्यों है उन्नयन से ।।
आओ माँ का रूप मित्रों,
करें गौरव से सुसज्जित।
नियम माँ के, जो सनातन,
काल चरणों में समर्पित ।।
शत्रुता अपनी भुलाकर,
रक्त का रंग संघनित हो ।
पूर्व की अवहेलना अब,
अडिग अनुशासन जनित हो ।।
आज मिल आग्रह करें,
यह चाह जीवन की बता दें,
मातृ का श्रृंगार करके,
सार्थक जीवन बिता दें ।
Sunder kavita.
ReplyDeleteसर जी ।
ReplyDeleteनमस्कार
इस धरती माँ की रक्षा पेड़ लगा कर ही की जा सकती है । यह आज की मांग है ।
सच है सक्रमण काल ही चल रहा है ।
ReplyDeleteसुंदर शब्द सुंदर कविता
बहुत खूब...
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteआपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 26/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 284 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-04-2016) को "मुक़द्दर से लड़ाई चाहता हूँ" (चर्चा अंक-2324) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर साधना ...
ReplyDeleteअनुशासन ही जीव की परिधि है।नदियों को दूषित और वृक्षो को कटने से बचाये।
ReplyDeleteशत्रुता अपनी भुलाकर,
ReplyDeleteरक्त का रंग संघनित हो ।
पूर्व की अवहेलना अब,
अडिग अनुशासन जनित हो ।।
बहुत सुन्दर ..
टूटने पाये न संस्कृति,
ReplyDeleteटूटने पाये न गरिमा ।