गूँजतीं हैं प्रतिध्वनियाँ,
वेद की शाश्वत ऋचायें,
अनवरत बहती रहेंगी,
वृहद संस्कृति की विधायें ।।
आज कुछ राक्षस घिनौने,
भ्रमों के आधार लेकर,
युगों के निर्मित भवन को,
ध्वस्त करना चाहते हैं ।।
यदि विचारा, यह धरातल तोड़ दोगे,
सत्य मानो कल्पना छलती तुम्हें है ।
ध्वंस का विश्वास मरकर ही रहा है,
वह जिया यदि, मात्र स्वप्नों के भवन में ।।
व्यर्थ की हठधर्मिता को,
कहीं जीवन में उतारा,
लिये हमने मातृ रक्षा के वचन हैं,
रही संचित वीरता की पूर्व गरिमा ।
रक्त का आवेश अन्दर से उठेगा,
और फूटेगा हृदय से अनल जीवट,
प्रबल विष में उफनते आघात होंगे,
जो करेंगे भस्म अनुचित गर्व तेरा ।
काल के विस्तृत पटल पर,
हैं विजय के शब्द अंकित ।
आपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 04/04/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 262 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (04-04-2016) को "कंगाल होता जनतंत्र" (चर्चा अंक-2302) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " सिरियस केस - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसत्मेव जयते।
ReplyDeletenice
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