टूटने पाये न संस्कृति,
टूटने पाये न गरिमा ।
काल है यह संक्रमण का,
प्रिय सदा यह याद रखना ।।
वृहद था आधार जिसका,
वृक्ष अब वह कट रहा है ।
प्रेम का विस्तार भी अब,
स्वार्थरत हो बट रहा है ।।
चमकती थी कान्ति की
आभा सतत माँ के नयन से ।
आज फिर वह चमक सारी,
विमुख क्यों है उन्नयन से ।।
आओ माँ का रूप मित्रों,
करें गौरव से सुसज्जित।
नियम माँ के, जो सनातन,
काल चरणों में समर्पित ।।
शत्रुता अपनी भुलाकर,
रक्त का रंग संघनित हो ।
पूर्व की अवहेलना अब,
अडिग अनुशासन जनित हो ।।
आज मिल आग्रह करें,
यह चाह जीवन की बता दें,
मातृ का श्रृंगार करके,
सार्थक जीवन बिता दें ।