घिर रहे आनन्द के कुछ मेघ नूतन,
सकल वातावरण शीतल हो रहा था ।
पक्षियों के कलरवों का मधुर गुञ्जन,
अत्यधिक उत्साह उत्सुक हो रहा था ।।
खिल रही थीं आस की नव-कोपलें,
वायु में स्नेह मधुरिम बह रहा था ।
प्रकृति में मेरी समाया अनवरत जो,
हृदय का आनन्द मुख पर खिल रहा था ।।
किन्तु
काल का झोंका कुटिल हा ! पुन आया,
ले गया सब बादलों को संग अपने ।
दुखों का सर्वत्र भीषण अनल छाया,
भूत संचित हृदय में बन व्यग्र सपने ।।
किन्तु सोते मनुज को यह ज्ञान भी है ?
काल का आवेग, ताण्डव नृत्य क्या है ?
बँधा है, असहाय जीवन जी रहा है,
काटने का बन्धनों को कृत्य क्या है ।।
दुख भीषण है, जगत में क्षणिक सुख है,
चकित हूँ, क्योंकि,
मनुज तो बँधा रहना चाहता है ।।
मनुज तो बँधा रहना चाहता है ।।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-03-2016) को "शिकवे-गिले मिटायें होली में" (चर्चा अंक - 2289) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रंगों के महापर्व होली की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 22/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 249 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
जिन्दगी...
ReplyDeleteकैसी है पहेली हाए
कभी तो हँसाये, कभी ये रुलाये...
बहुत सुन्दर दर्शन भाव।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteयदि बन्धनो से मुक्त मनुष्य हो जाय तो वह स्वयं ईश्वरीय तुल्य हो जायेगा। इसीलिये वह मनुष्य है बन्धनो सहित।
ReplyDeleteहोली की शुभकामनायें।
ReplyDeleteबढ़िया अभिव्यक्ति , मंगलकामनाएं एवं होली मुबारक !!
ReplyDeleteबहुत खूब...
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