(विचारों का प्रवाह न काव्यरूप में होता है और न ही गद्यरूप में। वह तो अपनी लय में बहता है, उसे उसकी लय में समझ पाना और लिख पाना कठिन है, फिर भी निर्मम आत्मचिन्तन के शब्दों को आकार देने का प्रयास किया है।)
जीवन का दुख परिभाषाआें के परे चला गया ।
सुख का शून्य दुख के कोहरे में बदल गया ।
व्यक्ति की पिपासा स्वयं व्यक्ति को ही पी जायेगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।
विचारों का तारतम्य शान्त जल की तरह व्यवस्थित था,
उसमें वेदना की तरंग जीवन का क्रम बिगाड़ देगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।
लेकिन जल कब तक शान्त रहेगा ?
कभी न कभी कोई वाह्य या आन्तरिक तत्व,
उसमें अस्थिरता उत्पन्न करेगा ।
व्यथाआें के घेरे में मनुष्य कब तक खुशियों की आशा करेगा ?
मन का अह्लाद टिक नहीं सकता,
कभी न कभी वह आँसू बनकर निकल ही जायेगा ।
कितना समेटा जीवन के क्रियाकलापों को पंक्तिबद्ध करने के लिये,
लेकिन ।
जीवन को बहने के लिये छोड़ दिया समाज की निष्ठुर धार में,
लेकिन ।
तथाकथित सुखी मनुष्यों के पदचिन्हों पर चलने का प्रयत्न किया,
लेकिन ।
लेकिन क्या मिल पाया, जो मुझे चाहिये था ?
क्या मिल पायी वह शान्ति, जो अभिलाषित थी ?
क्या मिल पाया उन रागों को सुर,
जो जा रहे हैं जीवन से,
और आँखों में क्यों का प्रश्न लिये हैं ।
मुझे लगता है, मैं रो पड़ूँगा,
और रोता ही रहूँगा ।
क्या सोचता हूँ मैं और क्यों सोचता हूँ मैं ?
जहाँ भी सोचा है, पता नहीं क्या सोचा है ?
जो भी किया है, पता नहीं क्या किया है ?
या कहूँ कि अभी तक कुछ सोचा ही नहीं ।
या कहूँ कि अभी तक कुछ किया ही नहीं ।
भविष्य की चौखट पर पैर रखने से घबरा रहा हूँ ।
कहीं काल पूछ न दे कि किया क्या अब तक ?
गहरे भाव ... समय पूछता भी है .... क्या किया अब तक ?
ReplyDeleteयह भय सभी के मन में बसता है
आज का समय कवि हृदय के अनुकूल नहीं है .... समय शायद ही बदले क्यों न कवि ही बदलने का प्रयास करें !!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-03-2016) को "एक और ईनाम की बलि" (चर्चा अंक-2281) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भविष्य की चौखट पर पैर रखने से घबरा रहा हूँ ।
ReplyDeleteकहीं काल पूछ न दे कि किया क्या अब तक ?
बहुत बढिया।
BHut badhiya likha hai ane,
ReplyDeleteis line ko book convert krke Publish krna chahte hai to apni request send kre editor.onlinegatha@gmail.com
सच में एक अजीब फांस है चारों तरफ जो कहीं भी चैन से टिकने नहीं देती।
ReplyDeleteसुन्दर कविता गहरे भावों को व्यक्त करती हुई। हर एक के जीवन में एक समय ऐसा जरूर आता है कि वो खुद से पूछता है कि मैने इस जीवन में क्या पाया।
ReplyDeleteकाल के प्रशनो के उत्तर तो सभी को देने ही पड़ेगे।
ReplyDeleteवाह. समय का साक्षत्कार करती कविता।
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