6.3.16

हार गया अपने ही रण

आज वेदना मुखर हो गयी,
अनुपस्थित फिर भी कारण ।
जगत जीतने को आतुर पर,
हार गया अपने ही रण ।।

ध्येय दृष्ट्य, उत्साहित तन मन, लगन लगी थी,
पग आतुर थे, राह नापने, अनचीन्ही सी,
पथिक थके सब, गर्वित मैं कुछ और बढ़ा जाता था,
अहंकार में तृप्त, मुझे बस अपना जीवन ही भाता था ।
सीमित था मैं अपने मन में, छोड़ रहा था अपनापन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। १।।

आदर्शों और सिद्धान्तों के वाक्य बड़े रुचिकर थे,
औरों के सब तर्क विसंगत कार्य खटकते शर से,
किन्तु श्रेष्ठता के शब्दों को, जब जब अपनाता था,
जीवन से मैं अपने को, हर बार अलग पाता था ।
संवेदित, एकांत, त्यक्त जीवन का करना भार वहन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। २।।

क्लिष्ट मार्ग, मन थका, किन्तु मैं दृढ़ था,
तृष्णाओं के प्रबल वेग को रोक रहा अंकुश सा,
अमृत की थी प्यास, विषमयी पीड़ा से अकुलाता था,
स्वयं सुखों को परिभाषित कर, आगत सुख ठुकराता था ।
वशीभूत कुछ दूर चला पर, आशंकित वह आकर्षण ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। ३।। 


9 comments:

  1. जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण !!
    बेहतरीन अभिव्यक्ति ... हार्दिक मंगलकामनाएं आपको !

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  2. भाई! कृपया अपना पर्सनल मोब नं. ९४१५३४७१८६ पर एस एम् एस करने का कष्ट करें |

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (07-03-2016) को "शिव का ध्यान लगाओ" (चर्चा अंक-2274) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " खूंटा तो यहीं गडेगा - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन प्रस्तुति, महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें।

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  6. जगत-संवेदना से पूर्ण कविता। बहुत मर्मस्‍पर्शी।

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  7. धैर्य से हार की जीत सुनिश्चित है।

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