27.3.16

तेरा जीवन

तूने अपना जीवन यदि,
शब्दों में डाला, निष्फल है ।
जीवन तो तेरा वह होगा,
जो शब्दों की उत्पत्ति बने ।।१।।

आदर्शों की राह पकड़ कर,
चलते जाना कठिन नहीं है ।
लेकिन तेरे पदचिन्हों से,
यदि राह बने तो बात बने ।।२।।

प्राणार्पण भी श्रेयस्कर है,
निर्भरता यदि आधार बने ।
तेजयुक्त जीवन तेरा,
अर्जित सुख का आधार बने ।।३।।

20.3.16

चकित हूँ

घिर रहे आनन्द के कुछ मेघ नूतन,
सकल वातावरण शीतल हो रहा था
पक्षियों के कलरवों का मधुर गुञ्जन,
अत्यधिक उत्साह उत्सुक हो रहा था ।।

खिल रही थीं आस की नव-कोपलें,
वायु में स्नेह मधुरिम बह रहा था
प्रकृति में मेरी समाया अनवरत जो,
हृदय का आनन्द मुख पर खिल रहा था ।।

किन्तु

काल का झोंका कुटिल हा ! पुन आया,
ले गया सब बादलों को संग अपने
दुखों का सर्वत्र भीषण अनल छाया,
भूत संचित हृदय में बन व्यग्र सपने ।।

किन्तु सोते मनुज को यह ज्ञान भी है ?
काल का आवेग, ताण्डव नृत्य क्या है ?
बँधा है, असहाय जीवन जी रहा है,
काटने का बन्धनों को कृत्य क्या है ।।

दुख भीषण है, जगत में क्षणिक सुख है,
चकित हूँ, क्योंकि, 
मनुज तो बँधा रहना चाहता है ।।

13.3.16

जीवन - अब तक

(विचारों का प्रवाह न काव्यरूप में होता है और न ही गद्यरूप में। वह तो अपनी लय में बहता है, उसे उसकी लय में समझ पाना और लिख पाना कठिन है, फिर भी निर्मम आत्मचिन्तन के शब्दों को आकार देने का प्रयास किया है।)

जीवन का दुख परिभाषाआें के परे चला गया ।
सुख का शून्य दुख के कोहरे में बदल गया ।
व्यक्ति की पिपासा स्वयं व्यक्ति को ही पी जायेगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।
विचारों का तारतम्य शान्त जल की तरह व्यवस्थित था,
उसमें वेदना की तरंग जीवन का क्रम बिगाड़ देगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।

लेकिन जल कब तक शान्त रहेगा ?
कभी न कभी कोई वाह्य या आन्तरिक तत्व,
उसमें अस्थिरता उत्पन्न करेगा ।
व्यथाआें के घेरे में मनुष्य कब तक खुशियों की आशा करेगा ?
मन का अह्लाद टिक नहीं सकता,
कभी न कभी वह आँसू बनकर निकल ही जायेगा ।

कितना समेटा जीवन के क्रियाकलापों को पंक्तिबद्ध करने के लिये,
लेकिन ।
जीवन को बहने के लिये छोड़ दिया समाज की निष्ठुर धार में,
लेकिन ।
तथाकथित सुखी मनुष्यों के पदचिन्हों पर चलने का प्रयत्न किया,
लेकिन ।

लेकिन क्या मिल पाया, जो मुझे चाहिये था ?
क्या मिल पायी वह शान्ति, जो अभिलाषित थी ?
क्या मिल पाया उन रागों को सुर,
जो जा रहे हैं जीवन से,
और आँखों में क्यों का प्रश्न लिये हैं ।

मुझे लगता है, मैं रो पड़ूँगा,
और रोता ही रहूँगा ।

क्या सोचता हूँ मैं और क्यों सोचता हूँ मैं ?
जहाँ भी सोचा है, पता नहीं क्या सोचा है ?
जो भी किया है, पता नहीं क्या किया है ?
या कहूँ कि अभी तक कुछ सोचा ही नहीं ।
या कहूँ कि अभी तक कुछ किया ही नहीं ।

भविष्य की चौखट पर पैर रखने से घबरा रहा हूँ ।
कहीं काल पूछ न दे कि किया क्या अब तक ?

6.3.16

हार गया अपने ही रण

आज वेदना मुखर हो गयी,
अनुपस्थित फिर भी कारण ।
जगत जीतने को आतुर पर,
हार गया अपने ही रण ।।

ध्येय दृष्ट्य, उत्साहित तन मन, लगन लगी थी,
पग आतुर थे, राह नापने, अनचीन्ही सी,
पथिक थके सब, गर्वित मैं कुछ और बढ़ा जाता था,
अहंकार में तृप्त, मुझे बस अपना जीवन ही भाता था ।
सीमित था मैं अपने मन में, छोड़ रहा था अपनापन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। १।।

आदर्शों और सिद्धान्तों के वाक्य बड़े रुचिकर थे,
औरों के सब तर्क विसंगत कार्य खटकते शर से,
किन्तु श्रेष्ठता के शब्दों को, जब जब अपनाता था,
जीवन से मैं अपने को, हर बार अलग पाता था ।
संवेदित, एकांत, त्यक्त जीवन का करना भार वहन ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। २।।

क्लिष्ट मार्ग, मन थका, किन्तु मैं दृढ़ था,
तृष्णाओं के प्रबल वेग को रोक रहा अंकुश सा,
अमृत की थी प्यास, विषमयी पीड़ा से अकुलाता था,
स्वयं सुखों को परिभाषित कर, आगत सुख ठुकराता था ।
वशीभूत कुछ दूर चला पर, आशंकित वह आकर्षण ।
जगत जीतने को आतुर पर, हार गया अपने ही रण ।। ३।।