(विचारों का प्रवाह न काव्यरूप में होता है और न ही गद्यरूप में। वह तो अपनी लय में बहता है, उसे उसकी लय में समझ पाना और लिख पाना कठिन है, फिर भी निर्मम आत्मचिन्तन के शब्दों को आकार देने का प्रयास किया है।)
जीवन का दुख परिभाषाआें के परे चला गया ।
सुख का शून्य दुख के कोहरे में बदल गया ।
व्यक्ति की पिपासा स्वयं व्यक्ति को ही पी जायेगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।
विचारों का तारतम्य शान्त जल की तरह व्यवस्थित था,
उसमें वेदना की तरंग जीवन का क्रम बिगाड़ देगी,
ऐसा नहीं सोचा था ।
लेकिन जल कब तक शान्त रहेगा ?
कभी न कभी कोई वाह्य या आन्तरिक तत्व,
उसमें अस्थिरता उत्पन्न करेगा ।
व्यथाआें के घेरे में मनुष्य कब तक खुशियों की आशा करेगा ?
मन का अह्लाद टिक नहीं सकता,
कभी न कभी वह आँसू बनकर निकल ही जायेगा ।
कितना समेटा जीवन के क्रियाकलापों को पंक्तिबद्ध करने के लिये,
लेकिन ।
जीवन को बहने के लिये छोड़ दिया समाज की निष्ठुर धार में,
लेकिन ।
तथाकथित सुखी मनुष्यों के पदचिन्हों पर चलने का प्रयत्न किया,
लेकिन ।
लेकिन क्या मिल पाया, जो मुझे चाहिये था ?
क्या मिल पायी वह शान्ति, जो अभिलाषित थी ?
क्या मिल पाया उन रागों को सुर,
जो जा रहे हैं जीवन से,
और आँखों में क्यों का प्रश्न लिये हैं ।
मुझे लगता है, मैं रो पड़ूँगा,
और रोता ही रहूँगा ।
क्या सोचता हूँ मैं और क्यों सोचता हूँ मैं ?
जहाँ भी सोचा है, पता नहीं क्या सोचा है ?
जो भी किया है, पता नहीं क्या किया है ?
या कहूँ कि अभी तक कुछ सोचा ही नहीं ।
या कहूँ कि अभी तक कुछ किया ही नहीं ।
भविष्य की चौखट पर पैर रखने से घबरा रहा हूँ ।
कहीं काल पूछ न दे कि किया क्या अब तक ?