समर्पण हे देवी, तुम्हें आज जीवन,
तुम्हें पा के, जीवन में सर्वस्व पाया ।
है मन आज मोदित, यह तन आज पुलकित,
मैं मरुजीव सौन्दर्य-रस में नहाया ।।१।।
खड़ा तृप्त हूँ आज शाश्वत-क्षुधित मैं,
ज्यों आ रूप-लावण्य तूने चखाया ।
विचारों के दीपक न जाने कहाँ हैं,
समग्र पन्थ केवल जो तूने दिखाया ।।२।।
मेरी जीव-नौका भँवर में फँसी थी,
तो नाविक कुशल बन तूने बचाया ।
तेरी प्रेम-धारा अपरिमित, असीमित,
समेटूँ कहाँ मैं स्वयं ही समाया ।।३।।
तेरी प्रेम-धारा अपरिमित, असीमित,
ReplyDeleteसमेटूँ कहाँ मैं स्वयं ही समाया ।।३।।
वाह , खूबसूरत अभिव्यक्ति ...
मेरी जीव -नौका भंवर में फंसी थी,
ReplyDeleteतो नाविक कुशल बन तूने बचाया ...
शानदार और मजेदार अभिव्यक्ति को सर आपने शब्दों में पिरोया ..
Waaah anupam bhaaaav
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (29-02-2016) को "हम देख-देख ललचाते हैं" (चर्चा अंक-2267) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती...." " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत सुंदर
ReplyDeleteनाविक ने बचा लिया इतना ही पर्याप्त है।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर।
ReplyDeleteक्या बात है ! बेहद खूबसूरत रचना....
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