कभी सुखों की आस दिखायी,
कभी प्रलोभन से बहलाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।
प्रभुता का आभास दिलाकर,
सेवक जग का मुझे बनाया ।
और दुखों के परिलक्षण को,
तूने सुख का द्वार बताया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।१।।
इन्द्रिय को सुख अर्पित करने,
तूने साधन मुझे बनाया ।
इसी हेतु ही मैं शरीर हूँ,
तूने भ्रम का जाल बिछाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।२।।
और सुखों के छद्म रूप में,
कलुषित जग का पंक पिलाया ।
इस शरीर के क्षुद्र सुखों हित,
मुझसे मेरा रूप छिपाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।३।।
मुक्त गगन मैं कैसे जाऊँ,
मेरी कारागृह यह काया ।
हा हा मैं भी मूढ़ बुद्धि हूँ,
कारागृह को लक्ष्य बनाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।४।।
कैसे अपनी भूल सुधारूँ,
बिता दिया जो जीवन पाया ।
तेरे कारण, अवसर दुर्लभ,
प्राप्त हुआ था, उसे गँवाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।५।।
ज्योति अन्दर भी जगी थी,
और जब यह जान पाया ।
सत्य कहता, तभी मुझको,
स्वयं पर विश्वास आया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।६।।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर..
ReplyDeletebeautifully you've said it Sir. This constant inner struggle is always there.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22-02-2016) को "जिन खोजा तीन पाइया" (चर्चा अंक-2260) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मन है कि मानता नहीं .....
ReplyDeleteचंचल मन चितवन।
ReplyDeleteमुक्त गगन मैं कैसे जाऊँ,
ReplyDeleteमेरी कारागृह यह काया ।
हा हा मैं भी मूढ़ बुद्धि हूँ,
कारागृह को लक्ष्य बनाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ...
बहुत खूब ... लाजवाब है ये छंद ... मन तो घूमता है चंचल है पकड़ना होता है बांधना होता है ...
बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है अपनी विवशता को। बहुत सुंदर कविता।
ReplyDeletewaah anupam rachna man tu mujhse chhalta aaya vivasta ko khubsurti se ukera hai.....
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति ....
ReplyDeleteमन है ना ..छलेगा ही
ReplyDeleteमन माया सा ....
ReplyDeleteज्योति अन्दर भी जगी थी,
ReplyDeleteऔर जब यह जान पाया ।
सत्य कहता, तभी मुझको,
स्वयं पर विश्वास आया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया
मन ही शत्रु , मन ही मित्र... शब्दों के साथ ही बेहतरीन भाव संयोजन।
उदयवीर सिंह
APKI YE KAVITA MERE DIL KO CHU GAI HAI. APNE ISSE BAHUT SUNDER DHANG SE PYARSTUT KIYA HAI. :)
ReplyDeletehttp://sapfullform.com/inspirational-motivational-quotes-for-students-in-hindi-language/
Ati uttam sarvshreshth
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