28.2.16

स्वयं ही समाया

समर्पण हे देवी, तुम्हें आज जीवन,
तुम्हें पा के, जीवन में सर्वस्व पाया ।
है मन आज मोदित, यह तन आज पुलकित,
मैं मरुजीव सौन्दर्य-रस में नहाया ।।१।।

खड़ा तृप्त हूँ आज शाश्वत-क्षुधित मैं,
ज्यों आ रूप-लावण्य तूने चखाया ।
विचारों के दीपक न जाने कहाँ हैं,
समग्र पन्थ केवल जो तूने दिखाया ।।२।।

मेरी जीव-नौका भँवर में फँसी थी,
तो नाविक कुशल बन तूने बचाया ।
तेरी प्रेम-धारा अपरिमित, असीमित,
समेटूँ कहाँ मैं स्वयं ही समाया ।।३।।

21.2.16

मन मेरा तू

कभी सुखों की आस दिखायी,
कभी प्रलोभन से बहलाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।

प्रभुता का आभास दिलाकर,
सेवक जग का मुझे बनाया
और दुखों के परिलक्षण को,
तूने सुख का द्वार बताया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।१।।

इन्द्रिय को सुख अर्पित करने,
तूने साधन मुझे बनाया
इसी हेतु ही मैं शरीर हूँ,
तूने भ्रम का जाल बिछाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।२।।

और सुखों के छद्म रूप में,
कलुषित जग का पंक पिलाया
इस शरीर के क्षुद्र सुखों हित,
मुझसे मेरा रूप छिपाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।३।।

मुक्त गगन मैं कैसे जाऊँ,
मेरी कारागृह यह काया
हा हा मैं भी मूढ़ बुद्धि हूँ,
कारागृह को लक्ष्य बनाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।४।।

कैसे अपनी भूल सुधारूँ,
बिता दिया जो जीवन पाया
तेरे कारण, अवसर दुर्लभ,
प्राप्त हुआ था, उसे गँवाया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।५।।

ज्योति अन्दर भी जगी थी,
और जब यह जान पाया
सत्य कहता, तभी मुझको,
स्वयं पर विश्वास आया
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर
मुझको अब तक छलता आया ।।६।।


14.2.16

भौतिक प्यास

उतर गया गहरी पर्तों में,
जीवन का चीत्कार उमड़ कर ।
गूँज गया मन में कोलाहल,
हिले तन्तु अनुनादित होकर ।।१।।

स्वार्थ पूर्ति के शब्द तुम्हारे,
गर्म द्रव्य बन उतर गये हैं ।
शंकातृप्त तुम्हारी आँखें,
मेरे मन को अकुलातीं हैं ।।२।।

देखो भौतिक प्यास तुम्हारी,
जीवन का रस ले डूबी है ।
फिर भी तेरा स्वप्न कक्ष,
जाने कब से एकान्त लग रहा ।।३।।

व्यर्थ तुम्हारे इस चिन्तन ने,
जीवन का सौन्दर्य मिटाया ।
आओ मिलकर इस जीवन मे,
सुख का सुन्दर स्रोत ढूढ़ लें ।।४।।

7.2.16

रूपसी

यादों के चित्रकार ने थे, अति मधुर चित्र तेरे खींचे,
तब हो जीवन्त कल्पना ने, ला अद्भुत रंग उसमें सींचे ।
सौन्दर्य-देव ने फिर उसमें, भर दी आकर्षण की फुहार,
मेरे जीवन की स्वप्न-तरी, चल पड़ी सहज तेरे पीछे ।।

तेरे यौवन से हो वाष्पित,
सौन्दर्यामृत का सुखद नीर ।
रस-मेघ रूप में आच्छादित,
मैं सिंचित होने को अधीर ।।

उमड़ रहे रस-मेघों को,
बरसा मन उपवन में समीर ।
चख यौवन मधुरस उत्सुक है,
मधुमय हो जाने को शरीर ।।