कभी सुखों की आस दिखायी,
कभी प्रलोभन से बहलाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।
प्रभुता का आभास दिलाकर,
सेवक जग का मुझे बनाया ।
और दुखों के परिलक्षण को,
तूने सुख का द्वार बताया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।१।।
इन्द्रिय को सुख अर्पित करने,
तूने साधन मुझे बनाया ।
इसी हेतु ही मैं शरीर हूँ,
तूने भ्रम का जाल बिछाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।२।।
और सुखों के छद्म रूप में,
कलुषित जग का पंक पिलाया ।
इस शरीर के क्षुद्र सुखों हित,
मुझसे मेरा रूप छिपाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।३।।
मुक्त गगन मैं कैसे जाऊँ,
मेरी कारागृह यह काया ।
हा हा मैं भी मूढ़ बुद्धि हूँ,
कारागृह को लक्ष्य बनाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।४।।
कैसे अपनी भूल सुधारूँ,
बिता दिया जो जीवन पाया ।
तेरे कारण, अवसर दुर्लभ,
प्राप्त हुआ था, उसे गँवाया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।५।।
ज्योति अन्दर भी जगी थी,
और जब यह जान पाया ।
सत्य कहता, तभी मुझको,
स्वयं पर विश्वास आया ।
मन मेरा तू शत्रु निरन्तर,
मुझको अब तक छलता आया ।।६।।