जहाँ पर मन लग गया,
मैं उस जगह का हो गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।
बाल्यपन में पुत्र बनकर,
लड़कपन में मित्र बनकर,
और
सम्बन्धों के भारी जाल मैं बुनता गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।१।।
और विद्यालय में जाकर,
ज्ञान का अंबार पाया ।
किन्तु वह सब व्यर्थ था,
यदि सत्य परिचय नहीं पाया ।।२।।
स्वयं को ज्ञानी भी समझा,
तुच्छ अभिमानी भी समझा ।
किन्तु हृद में प्रश्न था जो,
नहीं फिर भी जान पाया ।।३।।
देश, जाति, घर, धर्म आधारित,
सम्बोधन थे मैने पाये ।
किन्तु कभी भी इन शब्दों में,
परिचय अपना दिख न पाये ।।४।।
किन्तु तभी ही, मेरे प्रेम सरोवर की एक कृपा किरण से,
मैने जाना, सारे परिचय, मेरे तन पर आधारित थे ।
मैं अब तक इस नश्वर तन में, परिचय अपना पाता था,
मैं हूँ एक अविनाशी आत्मा, इसको भूला जाता था ।।
प्रश्न अब यह सुलझता है,
मन खुशी से मचलता है ।
Aapko Saadar Pranaaam...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (01-02-2016) को "छद्म आधुनिकता" (चर्चा अंक-2239) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
परिचय खो जाता है!!
ReplyDeleteबुद्ध की बेचैनी .....
ReplyDeleteअनूठी रचना !
सत्य परिचय |सुंदर रचना |
ReplyDeleteप्रवीण जी बहुत-बहुत बधाई इस तरह एक सत्यज्ञानी ह्रदय को इतने अनुपम तरीके से प्रस्तुत करने के लिए। अत्यंत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteआपकी यह कविता आत्मा का परिचय ही है आज की परिस्थितियों में और एक व्यक्ति के जीवन की परिस्थितियों में। बहुत स्पष्ट और वास्तविक।
Deleteचेति सकै तो चेति .
ReplyDeleteअध्यात्म की ओर अग्रसर रचना।
ReplyDeleteस्वयं से परिचय हो जाए तो सब से हो जाता है ... सुन्दर भावपूर्ण रचना ...
ReplyDeleteअद्भुत..... आभार!!
ReplyDeleteअद्भुत..... आभार!!
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ReplyDeleteजहाँ पर मन लग गया,
ReplyDeleteमैं उस जगह का हो गया ।
पर सत्य परिचय खो गया
ग़ज़ल की जान हैं ये लाइन, पूर्ण सच
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