ज्ञात होता यदि मुझे उद्देश्य मेरा,
व्यर्थ न मैं व्यथा का जीवन बिताता ।
छोड़ देता पत्थरों के संग्रहों को,
यदि कहीं मैं सत्य का उपहार पाता ।।
किन्तु अब मैं डूबता हूँ,
दुखों की गहरी नदी है ।
भूत के दुस्वप्न सारे,
वेदना बन चीखते हैं ।।१।।
चाहता मन व्यक्त करना,
आज दुविधा की व्यथा को ।
सत्य के सम्मुख खड़ा कर,
चाहता हूँ तृप्त करना ।।२।।
नहीं वाणी बोल पाती,
शब्द भी लड़खड़ा जाते ।
वेदना छिप नहीं पाती,
तर्क शंका बढ़ा जाते ।।३।।
समय सारा जा चुका है,
शेष केवल विकलता है ।
मन पराया हो चुका है,
मात्र निष्क्रिय तन बचा है ।।४।।
किन्तु अब मैं जानता हूँ,
प्रेम पूरित रूप तेरा ।
मूर्खता का तिमिर हर लो,
दिखा दो निर्मल सबेरा ।।५।।
इतना हो ज्ञात अगर ,
ReplyDeleteकि अज्ञात क्या ,
रातें सारी जाग लीं ,
फिर सुबह क्या ,
दुश्मन भी हॅंस दिए ,
फिर दोस्त क्या ,
मिथ्या यह शरीर ,
फिर जगत क्या ,
ताकता तो है न ,
वह प्यार से ,
फिर गूढ़ क्या ,
और अवसान क्या ।
जय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 04/01/2016 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
अभी तो प्रदूषण बहुत है निर्मल सवेरे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 04 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteचाहता मन व्यक्त करना,
ReplyDeleteआज दुविधा की व्यथा को ।
सत्य के सम्मुख खड़ा कर,
चाहता हूँ तृप्त करना
बहुत खूब...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सियाचिन के परमवीर - नायब सूबेदार बाना सिंह - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना , ऐसा सभी महसूस करते हैं किसी ना किसी मोड़ पर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर। आज ऐसी ही वेदनाओं से घिरे हैं आप-हम। बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआमीन!! उम्दा रचना!!
ReplyDeleteसमरूपा... वेदना..
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