जहाँ पर मन लग गया,
मैं उस जगह का हो गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।
बाल्यपन में पुत्र बनकर,
लड़कपन में मित्र बनकर,
और
सम्बन्धों के भारी जाल मैं बुनता गया ।
पर सत्य परिचय खो गया ।।१।।
और विद्यालय में जाकर,
ज्ञान का अंबार पाया ।
किन्तु वह सब व्यर्थ था,
यदि सत्य परिचय नहीं पाया ।।२।।
स्वयं को ज्ञानी भी समझा,
तुच्छ अभिमानी भी समझा ।
किन्तु हृद में प्रश्न था जो,
नहीं फिर भी जान पाया ।।३।।
देश, जाति, घर, धर्म आधारित,
सम्बोधन थे मैने पाये ।
किन्तु कभी भी इन शब्दों में,
परिचय अपना दिख न पाये ।।४।।
किन्तु तभी ही, मेरे प्रेम सरोवर की एक कृपा किरण से,
मैने जाना, सारे परिचय, मेरे तन पर आधारित थे ।
मैं अब तक इस नश्वर तन में, परिचय अपना पाता था,
मैं हूँ एक अविनाशी आत्मा, इसको भूला जाता था ।।
प्रश्न अब यह सुलझता है,
मन खुशी से मचलता है ।