31.1.16

आत्म-परिचय

जहाँ पर मन लग गया,
मैं उस जगह का हो गया
पर सत्य परिचय खो गया ।।

बाल्यपन में पुत्र बनकर,
लड़कपन में मित्र बनकर,
और 
सम्बन्धों के भारी जाल मैं बुनता गया
पर सत्य परिचय खो गया ।।१।।

और विद्यालय में जाकर,
ज्ञान का अंबार पाया
किन्तु वह सब व्यर्थ था,
यदि सत्य परिचय नहीं पाया ।।२।।

स्वयं को ज्ञानी भी समझा,
तुच्छ अभिमानी भी समझा
किन्तु हृद में प्रश्न था जो,
नहीं फिर भी जान पाया ।।३।।

देश, जाति, घर, धर्म आधारित,
सम्बोधन थे मैने पाये
किन्तु कभी भी इन शब्दों में,
परिचय अपना दिख पाये ।।४।।

किन्तु तभी ही, मेरे प्रेम सरोवर की एक कृपा किरण से,
मैने जाना, सारे परिचय, मेरे तन पर आधारित थे
मैं अब तक इस नश्वर तन में, परिचय अपना पाता था,
मैं हूँ एक अविनाशी आत्मा, इसको भूला जाता था ।।

प्रश्न अब यह सुलझता है,
मन खुशी से मचलता है


24.1.16

ध्येय और प्रेम

आज फिर क्यों याद आयी,
नाव फिर से डगमगाई ।

ध्येय में क्या आज, अपने भी पराये हो चुके हैं,
ध्येय ही जीवन है, क्या और अब कुछ भी नहीं है ।
ध्येय की वीरानियों में, एक स्वर देता सुनाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।१।।

शुष्क धरती पर कोई, मृदुफल कभी बोता नहीं है,
साथ जल का न मिले, तो फल कोई होता नहीं है ।
प्रेम जल है, ध्येय फल है, यह सनातन रीति भाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।२।।

आज जब आराध्य को कुछ फूल अर्पित हो रहे हैं,
क्यों समुन्दर भ्रान्तियों के फिर हिलोरें ले रहे हैं ।
नयन में क्यों ध्येय-ज्योति, अश्रु बनकर डबडबाई ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।३।।

आज जब दिन का परिश्रम, रात्रि का सुख चाहता है,
शान्ति में यादों का झोंका, ध्यान सारा बाँटता है ।
रागिनी फिर आज अपने, स्वर में क्यों संताप लायी ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।४।।

ध्येय पथ में प्रेम का व्यवधान तो चिर काल से है,
किन्तु मानव की प्रतिष्ठा आज शर-सन्धान से है ।
फिर भी मैनें ध्येय-प्रतिमा प्रेम के जल से बनायी ।
आज फिर क्यों याद आयी ।।५।।


17.1.16

वियोग

मत दे वियोग सा असह्य शब्द,
यह धैर्य-बन्ध बह जायेगा ।
यह महाप्रतीक्षा का पर्वत,
बस पल भर में ढह जायेगा ।।१।।

जीवन के पथ में संदोहित,
तब भाव सभी उड़ जायेंगे ।
जीवन रस दाता मेघ सभी,
निज पंथ छोड़ मुड़ जायेंगे ।।२।।

सुख के भी सब स्रोत हमारे,
दूर दूर हो जायेंगे ।
जो लिये पात्र आशा मदिरा,
वह चूर चूर हो जायेंगे ।।३।।

हो रक्तिक आज सभी यादें,
दर्दों में जा उतरायेंगी ।
तन मन शीतलता की दात्री,
ही स्वयं अनल बन जायेगी ।।४।।

हो व्यथित विचारों की सरिता,
निज धार स्वयं ही बदलेगी ।
अमृतमय स्वप्नों की रचना,
फिर आज मुझे ही डस लेगी।।५।।

तब यौवन की तृष्णायें सब,
कर ताण्डव मन में नाचेंगी ।
जीवन की सुन्दर रागनियाँ,
कविता शोकाकुल बाँचेंगी ।।६।।

हो जड़वत आज सभी गतियाँ,
बस बीच पंथ रुक जायेंगी ।
तेरे ऊपर केन्द्रित जो थीं,
वे निष्ठायें थक जायेंगी ।।७।।

मधुरे तेरा है कार्य बड़ा,
मेरे इस जीवन-मंचन में ।
प्रतिपल, प्रतिक्षण तू आमन्त्रित,
मेरे उजड़े से उपवन में ।।८।।


10.1.16

सुख लौटा दो

शापित धन-यश नहीं चाहिये,
व्यथा-जनित रस नहीं चाहिये

त्यक्त, कुभाषित जीवन, तेरा संग पाने को अति आकुल है
तेरी फैली बाहों में छिप जाने को रग रग व्याकुल है ।।

मुझको अपने पास बुला लो,

मुझको मेरा सुख लौटा दो

3.1.16

ज्ञात होता यदि

ज्ञात होता यदि मुझे उद्देश्य मेरा,
व्यर्थ मैं व्यथा का जीवन बिताता
छोड़ देता पत्थरों के संग्रहों को,
यदि कहीं मैं सत्य का उपहार पाता ।।

किन्तु अब मैं डूबता हूँ,
दुखों की गहरी नदी है
भूत के दुस्वप्न सारे,
वेदना बन चीखते हैं ।।१।।

चाहता मन व्यक्त करना,
आज दुविधा की व्यथा को
सत्य के सम्मुख खड़ा कर,
चाहता हूँ तृप्त करना ।।२।।

नहीं वाणी बोल पाती,
शब्द भी लड़खड़ा जाते
वेदना छिप नहीं पाती,
तर्क शंका बढ़ा जाते ।।३।।

समय सारा जा चुका है,
शेष केवल विकलता है
मन पराया हो चुका है,
मात्र निष्क्रिय तन बचा है ।।४।।

किन्तु अब मैं जानता हूँ,
प्रेम पूरित रूप तेरा
मूर्खता का तिमिर हर लो,
दिखा दो निर्मल सबेरा ।।५।।