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टेराकोटा सेना |
दिन एक था और विकल्प ढेरों। बहस इस बात पर चली कि छुट्टी के दिन कहाँ चला जाये? बहुतों की इच्छा जियान स्थित टेराकोटा सेना देखने की थी। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के एक राजा ने अपनी मृत्यु के बाद अपनी रक्षा के लिये मिट्टी की सेना बनवायी थी। ८००० सैनिक, १३० रथ, ५२० घोड़े और १५० घुड़सवारों से सज्ज यह स्थान पिछले वर्ष भारतीय प्रधानमंत्री की चीन यात्रा के समय चर्चा में आया था। चेन्दू और जियान के बीच कोई बुलेट ट्रेन नहीं चलती है। अन्य ट्रेन से जाने में समय सीमा का उल्लंघन हो रहा था और हवाई यात्रा में धन बहुत अधिक लग रहा था। अन्य व्यवस्थाओं को जोड़कर पूरी यात्रा में लगभग बीस हजार रुपये का व्यय आ रहा था। इसके अतिरिक्त वहाँ पर भी पूरा समय दौड़भाग में ही बीतना था। एक तिहाई समूह फिर भी उत्साहित था पर सबका साथ नहीं होने और अन्य विकल्प होने के कारण आग्रह छोड़ दिया गया।
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लेशान के बुद्ध |
दूसरा विकल्प लेशान के बुद्ध का था। तीन नदियों के संगम किनारे एक खड़ी चट्टान पर ७१ मीटर की बुद्ध प्रतिमा उनके मैत्रेय रूप को दर्शाती है। आना और जाना बुलेट ट्रेन से था। यात्रा पूरे एक दिन की थी। बताया गया कि मूर्ति के नीचे से ऊपर तक जाने में बहुत घूमकर जाना पड़ता है। मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है, पर औद्योगिक प्रदूषण और सरकार की उपेक्षा के कारण अच्छी स्थिति में नहीं है। तीसरा विकल्प लांगकुआन झील का था। यह चेन्दू से ३८ किमी दूर है और बहुत बड़े क्षेत्र में फैली है। इसके बीच में कई टापू हैं और इसका प्राकृतिक सौन्दर्य मन मोह लेता है। यहाँ पर भी पूरा दिन लग जाता है। चौथा विकल्प दो स्थानों का था, दिन के प्रथम भाग में क्वेंगश्वेंग पर्वत और दूसरे भाग में दूजिआनयान बाँध को देखने का। दोनों ही चेन्दू के पास ही हैं और सुबह शीघ्र प्रारम्भ करके सायं तक देखे जा सकते थे। दो स्थानों का लोभ अन्य तीन विकल्पों से अधिक उपयोगी लगा, पर यदि समय मिलता तो मैं सारे स्थान देखता। इसके लिये आपके पास ४ अतिरिक्त दिन होने चाहिये।
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लांगकुआन झील |
हम लोग सुबह ही निकल गये। क्वेंगश्वेंग पर्वत चेन्दू से ६६ किमी है और दूजिआनयान बाँध वहाँ से १५ किमी है। हम बस से गये, हमारी गाइड का नाम जॉय हान था, उसने क्वेंगश्वेंग पर्वत पहुँचने तक के समय में चीन के कई महत्वपूर्ण तथ्य बतलाये। अंग्रेजी का उच्चारण कठिनता से होने के बाद भी संवाद स्पष्ट था। पानी बरस रहा था और वातावरण सुहावना था, हम लोग कब वहाँ पहुँच गये पता ही नहीं लगा। बीच में खेतों और मानव निर्मित जंगल की कतारें थीं, एक इंच भूमि भी रिक्त नहीं थी। हमारे देश में खेतों के बीच की मेड़ों में ही इतना स्थान छोड़ दिया जाता है कि जिसमें किसी छोटे देश के लिये अन्न की व्यवस्था हो जाये।
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सहज प्राकृतिक सौन्दर्य |
क्वेंगश्वेंग पर्वत टाओ का प्रमुख केन्द्र है, उसका उद्भव स्थान है। यहाँ पर कई बौद्ध स्थल भी हैं। पर्वत के दो भाग हैं, सामने का और पीछे का। सामने का भाग सांस्कृतिक और प्राकृतिक दृष्टि से घूमने योग्य है, हम लोग वहीं पर ही गये। पीछे का भाग पूर्णतया मनोरंजन और प्रकृतिप्रेमियों के लिये है, समयाभाव के कारण हम वहाँ नहीं जा पाये। चोटी तक पहुँचने के लिये हमने परिवहन के सारे संभावित साधनों का प्रयोग किया। बस से वहाँ पहुँचने के बाद हमें इलेक्ट्रिक कार से अन्दर तक ले जाया गया। वहाँ से हम सीढ़ियों से पहाड़ों पर चढ़े। वहाँ से एक नाव से आगे के स्थान पर पहुँचे और अन्त में रोपवे के माध्यम से ऊपर तक गये। पुनः पैदल चल कर टाओ के मंदिर पहुँच सके। इस प्रकार की व्यवस्था में पर्वत का मौलिक स्वरूप और वन को संरक्षित रखा गया है। बीच में शांगक्विंग महल है, ऊपर शैंक्विंग मंदिर है, मार्ग के चारो ओर घना जंगल और बीच बीच में विश्राम करने के सुविधाजनक स्थान। पहाड़ों पर चढ़ाई के समय दृश्यों के आनन्द ने हमारी थकान को दूर रखा।
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झील के सम्मुख |
पर्वत के नीचे समतल भाग में पुष्पों और पौधों को सौन्दर्यपूर्ण ढंग से व्यवस्थित किया गया है। प्रकृति स्वयं में ही बहुत सुन्दर होती है, उसे यदि उत्कृष्ट मानवीय संयोजन मिल जाये तो वह स्वयं प्रसन्न हो जाती है और अपने प्रभावक्षेत्र में आने वाले हर जीवजन्तु और मानव को अह्लाद से भर देती है। प्रकृति के बीच आकर लगता है कि अपने ही घर आ गये हैं। सदियों बाद जब मानव औद्योगिकीकरण का निष्पक्ष विश्लेषण करने बैठेगा तो प्रकृति की घनघोर उपेक्षा और कृत्रिमता का आलिंगन उसे अंदर तक कचोटेगा। अनियन्त्रित जंगल में भी एक लय है और तथाकथित नियन्त्रित कांक्रीट के आकार रुक्षता भरे दिखते हैं। प्रत्यक्ष को प्रमाण माना जाय तो इस यात्रा के अपने चित्रों को मैं स्वयं ही पहचान नहीं पाया। स्वयं का इतना प्रसन्न और आनन्दमय कहीं नहीं पाया था, तनावमुक्त और संतुष्ट।
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उत्साही समूह |
पहाड़ पर चढ़ाई प्रारम्भ करने के पहले एक बड़ा ही उत्साही समूह मिला, पर्यटन में आकण्ठ आनन्दमग्न, संभवतः प्रकृति ने उनके परिवार में एक ऊर्जा भर दी हो। उनके उत्साह और ऊर्जा ने हमें भी प्रभावित किया। सीढ़ियों पर चढ़ते समय हम लोग हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का सस्वर पाठ कर रहे थे, जिसको जो भी याद था। आस पास से निकलने वालों को आश्चर्य भी हो रहा था और अच्छा भी लग रहा था। आश्चर्य तो हम सबको भी हो रहा था क्योंकि इस प्रकार का प्रस्फुटन सामान्य परिस्थितियों में होना संभव नहीं है। पहली बार यह भी ज्ञात हुआ कि हम सबको अभी तक कितना कुछ याद है। कामायनी, उर्वशी, रश्मिरथी, शिवस्त्रोत, हिमाद्रि तुंग श्रृंग से और न जाने क्या क्या। प्रकृति यहाँ एकान्त बैठ निज रूप सँवारति, पल पल पलटति भेष, छनिक छवि छनि छनि धारति। निराला, दिनकर, प्रसाद अपनी अपनी छायाओं से बाहर आ गये थे। अपने मित्रों का साहित्यिक पक्ष जानकर सुखद आश्चर्य हुआ और सीढ़ियाँ कब पार हो गयीं, पता ही नहीं चला।
बीच रास्ते में एक मनोरंजक दृश्य दिखा। किसी बात को लेकर एक पत्नी अपने पति को जी भर के हड़का रही थी। कारण तो समझ में नहीं आया पर पति चुपचाप खड़ा सुन रहा था, एक हाथ में झोला पकड़े, दूसरे में बच्चे को। यह समझ नहीं आ रहा था कि किस बात पर डाँट पड़ रही है, पर जिस तरह से पति खड़ा निर्विकार भाव से सब सह रहा था, उससे तो वह सिद्धपुरुष सा दिख रहा था। कृष्ण की अर्जुन को सहन करने की सलाह “तांस्तितिक्षस्व भारत” या टाओ का अकर्म “वू वाई”, इन दोनों में से किसी एक तत्व का ज्ञाता होगा वह पति, भारतीय पतियों की तरह ही।
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यिन यांग |
टाओ दर्शन सिद्धान्त की दृष्टि से अत्यन्त ही सहज है, इसकी व्यापकता व्यवहार में है। आपको हर क्षेत्र में टाओ को अपनाना होता है तब आप वह हो जाते हो। भारतीयों के लिये यह समझना कठिन नहीं है क्योंकि टाओ के हर सिद्धान्त या व्यवहार के लिये आप गीता, उपनिषद, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों से पाँच उद्धरण सामने रख देंगे। कम शब्दों में कहें तो सरलता, सत्यता और प्रकृतिलयता से टाओ परिभाषित होता है। टाओ के प्रमुख तीन सिद्धान्त हैं। पहला सिद्धान्त है एकात्मता का, ब्रह्मन् जैसा, सब आपस में संबद्ध। दूसरा सिद्धान्त है यिन यांग का, विपरीतों में संतुलन, द्वन्द्व जैसा। तीसरा सिद्धान्त है वू वाई का, अकर्मता का, प्रकृति की लय को न छेड़ने का, पानी की तरह बह जाने का, व्यवहार का सहज मार्ग विकसित करने का। इन सिद्धान्तों को गहराई से समझें तो टाओ और बौद्ध में अन्तर करना कठिन हो जाता है।
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टाओ |
वू वाई के सिद्धान्त पर जब एक साधक से पूछा कि आप फिर भी इतने कर्मशील क्यों हो, इतने श्रमशील क्यों हों, किसके लिये इतने उपक्रम विकसित कर रहे हो? उत्तर सुनकर हृदय अंदर तक तृप्त हो गया। साधक ने बताया कि मैं अपने कर्म को औरों की सेवा के रूप में देखता हूँ, जुड़ता भी हूँ, संतुलन भी रहता है और अकर्मता का भी बोध होता है, “कर्मण्येवाधिकारस्ते”। मन में विचार आया कि कहीं कृष्ण महाराज एक आधा अध्याय इनको भी तो नहीं सिखा गये, जाने के पहले। इस यात्रा के बाद तन श्रान्त था, मन शान्त था, आत्मा प्रफुल्लित थी, अस्तित्व संतुष्ट था।
अगले ब्ल़ॉग में दूजिआनयान बाँध के बारे में।