बहुधा मैं असहाय पाता हूँ स्वयं को,
खोखले दिखते मुझे उद्देश्य मेरे ।
विवश हो मैं चाहता हूँ गोद ऐसी,
तुष्ट हूँ मैं, सान्त्वना भी मिले मुझको ।।१।।
व्यथित मन में चीखता तम रिक्तता का,
जानता हूँ पर स्वयं से भागता हूँ ।
स्वयं के धोखे विकट हो काटते हैं,
प्राप्त जल पर तृप्त मैं न हो सका हूँ ।।२।।
विकल अन्तरमन उलसना चाहता है,
हर्ष का जीवन बिताना चाहता ।
व्यर्थ का दुख पा बहुत यह रो चुका है,
प्रेम का अभिराम पाना चाहता ।।३।।
waah !!
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteआपने लिखा...
कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये दिनांक 28/12/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
धन्यवाद...
न दैन्यं न पलायनम, सार्थक रहिये,ये संसार सागर है जिसमें सुख दुख सभी समाहित है.फिर नीके दिन आई हैं,बंनत लगही न बेर. शुभ कामनाएं.
ReplyDeleteआज के इन्सान की विवशता...बहुत सटीक अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteआज की स्थितियों से घिरे मनुष्य की वेदना।
ReplyDeleteयही यथार्थ है । बहुत ही सटीक रचना।
ReplyDeleteपुलक जगी ..सिहरनमयी ...
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