बहुधा मैं असहाय पाता हूँ स्वयं को,
खोखले दिखते मुझे उद्देश्य मेरे ।
विवश हो मैं चाहता हूँ गोद ऐसी,
तुष्ट हूँ मैं, सान्त्वना भी मिले मुझको ।।१।।
व्यथित मन में चीखता तम रिक्तता का,
जानता हूँ पर स्वयं से भागता हूँ ।
स्वयं के धोखे विकट हो काटते हैं,
प्राप्त जल पर तृप्त मैं न हो सका हूँ ।।२।।
विकल अन्तरमन उलसना चाहता है,
हर्ष का जीवन बिताना चाहता ।
व्यर्थ का दुख पा बहुत यह रो चुका है,
प्रेम का अभिराम पाना चाहता ।।३।।