लिये समय का बोझ हृदय में, संवेदित जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।।
नेह नियन्त्रित नहीं, शीघ्र ही आँखों को सरसा जाता है ।
भावों से परिपूर्ण, अपेक्षित सुख-फुहार बरसा जाता है ।।
नहीं बिखरने पाये जग में,
पर दुख जो भी आये मन में,
कोमल मन है, कष्ट बड़े घनघोर, सहज जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। १ ।।
कुटिल जगत की रीति, छिला था हृदय, अनेकों आघातों से ।
कब तक सहती, बहुधा आत्मा, चीखी भी थी संतापों से ।।
सोचा तब हुंकार कर उठूँ,
चालों का प्रत्युत्तर भी दूँ,
किन्तु स्वयं को समझाता हूँ, होठों को सीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। २ ।।
था निरीह, पाशित बन्धों में, कहता क्या, अपने जो थे ।
कई बार इच्छा होती थी, तन्तु तोड़ दूँ सम्बन्धों के ।।
नहीं किसी से कुछ भी कहता,
शान्त खड़ा शापित सा सहता,
सम्बन्धों को मधुर बनाये, दुविधा में जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ३ ।।
कैसे लब्ध आचरण छोड़ूँ, कैसे इतना गिर जाऊँ मैं ।
कैसे मान प्रतिष्ठा प्रेरित, अपने से ही फिर जाऊँ मैं ।।
नहीं ढूढ़ता हूँ अब कारण,
त्याग, तपस बन गये उदाहरण,
वही तर्क प्रस्तुत करता हूँ, वही कृष्ण-गीता कहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ४ ।।
जय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 09/11/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर... लिंक की जा रही है...
इस चर्चा में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-11-2015) को आतिशबाजी का नहीं, दीपों का त्यौहार--चर्चा अंक 2155 (चर्चा अंक 2153) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सर इतनी सुन्दर रचना मन झकझोर देती हे
ReplyDeleteलगता हे बस ये मेरे अपने दिल की बात कहती हे।
समझ नही पा रहा हूं कि जीवन मे सचमुच ऐसा ही तो नही घट रहा??? झकझोरती है कविता।
ReplyDeleteआह !
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