सकल, नित, नूतन विधा में,
दोष प्रस्तुत हो रहे क्यों ।
क्यों विचारों में उमड़ता,
रोष जो एकत्र बरसों ।।१।।
क्यों प्रदूषित भावना-नद,
तीक्ष्ण होकर उमड़ती है ।
ईर्ष्या क्यों मूर्त बनकर,
मन-पटल पर उभरती हैं ।।२।।
क्यों अभी निष्काम आशा,
लोभ निर्मित कुण्ड बनती ।
मोह में क्यों बुद्धि निर्मम,
सत्य-पथ से दूर हटती ।।३।।
और अब क्यों काम का,
उन्माद मन को भा रहा है ।
कौन है, क्यों जीवनी को,
राह से भटका रहा है ।।४।।
यही तो दुर्भाग्य है कि प्रदूषित भावना
ReplyDeleteतीक्ष्ण होकर उभरती है
लाख करलूं कोशिश मन में दबी पीड़ा
रह रह कर उभरती है
ज्यों ही भरने को आते हैं मन के घाव
एक अनजानी ईर्ष्या की सुई
न जाने कहाँ से उसमें जहर भरती है
Anupam bhav liye utkrisht lekhan....
ReplyDeleteदोष प्रस्तुत हैं क्यों कि
ReplyDeleteस्वार्थ ही जीवन बना
स्व को सत्ता न मिले तो
रोष ही मन में ठना ।
आज के परिपेक्ष्य में सटीक रचना ।
कुछ ऐसी ही जरूरत है आज के समय में...कम शब्दों का इस्तेमाल, लेकिन बात गहरी...जब कि होता उलट है. हंगामा है बहुत सा लेकिन किसी बात का कोई सिरा नहीं होता.
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी....
ReplyDeleteआप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 01/12/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगवार (01-12-2015) को "वाणी का संधान" (चर्चा अंक-2177) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छे...
ReplyDeleteऔर अब क्यों काम का,
ReplyDeleteउन्माद मन को भा रहा है ।
कौन है, क्यों जीवनी को,
राह से भटका रहा है ।।४।...............यह उद्वेलन अपेक्षित है। बहुत सुन्दर।
बङे दिनों के बाद अापकी रचना पढ़ी।सुंदर कविता मगर अापके गद्य का इंतजार रहेगा।
ReplyDelete(और अब क्यों काम का,
ReplyDeleteउन्माद मन को भा रहा है)
काम का उन्माद तो भटकायेगा ही, किन्तु कर्म का सरल बनायेगा।
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteवर्तमान परिदृश्य में मन का सटीक चित्रण। साधुवाद....
ReplyDeleteजो है सो है। विचलित होना स्वाभाविक है एक निर्मल मन का।
ReplyDeleteये कहाँ है ज्ञात रसिकों को ?
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