लिये समय का बोझ हृदय में, संवेदित जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।।
नेह नियन्त्रित नहीं, शीघ्र ही आँखों को सरसा जाता है ।
भावों से परिपूर्ण, अपेक्षित सुख-फुहार बरसा जाता है ।।
नहीं बिखरने पाये जग में,
पर दुख जो भी आये मन में,
कोमल मन है, कष्ट बड़े घनघोर, सहज जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। १ ।।
कुटिल जगत की रीति, छिला था हृदय, अनेकों आघातों से ।
कब तक सहती, बहुधा आत्मा, चीखी भी थी संतापों से ।।
सोचा तब हुंकार कर उठूँ,
चालों का प्रत्युत्तर भी दूँ,
किन्तु स्वयं को समझाता हूँ, होठों को सीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। २ ।।
था निरीह, पाशित बन्धों में, कहता क्या, अपने जो थे ।
कई बार इच्छा होती थी, तन्तु तोड़ दूँ सम्बन्धों के ।।
नहीं किसी से कुछ भी कहता,
शान्त खड़ा शापित सा सहता,
सम्बन्धों को मधुर बनाये, दुविधा में जीता रहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ३ ।।
कैसे लब्ध आचरण छोड़ूँ, कैसे इतना गिर जाऊँ मैं ।
कैसे मान प्रतिष्ठा प्रेरित, अपने से ही फिर जाऊँ मैं ।।
नहीं ढूढ़ता हूँ अब कारण,
त्याग, तपस बन गये उदाहरण,
वही तर्क प्रस्तुत करता हूँ, वही कृष्ण-गीता कहता हूँ ।
अश्रु नहीं बन पाती पीड़ा, मन ही मन पीता रहता हूँ ।। ४ ।।