जीवन के इस समय सिन्धु में, कुछ पल ऐसे आते होंगे,
जब मन-वीणा के तारों में, एक अनसुलझी उलझन होगी ।
कर्कश स्वर तब इस वीणा के, वाणी से जा मिलते होंगे,
तब सकल अतल मन सागर में, तूफानों सी हलचल होगी ।।
मानव शरीर के यन्त्र सभी, तब भलीभाँति चलते होंगे,
यन्त्रों की कार्यिक क्षमता भी, संदेह रहित उत्तम होगी ।
मानव जीवन की प्रगति हेतु, निर्मित मानक तत्पर होंगे,
लेकिन भीषण मनवेगों से, अध्यात्म प्रगति स्थिर होगी ।।
मत हो अशान्त, एकात्म रहो,
निज धारा में चुपचाप बहो,
इस कालकर्म को शान्त सहो,
बस शान्ति तत्व के साथ रहो ।
जीवन जितना ही सादा हो,
सुलझाव भी उतना होता है,
उलझन का कोई प्रश्न नहीं,
मन विचरण सीमित होता है ।
यदि मानव फिर भी उलझ गये, तो तोड़ व्यथा के तारों को,
जो पीड़ा है वह सत्य नहीं, तू छोड़ असत् व्यवहारों को ।
बढ़ स्वयं विचारों के पथ पर, मुख मोड़ वाह्य संसारों से,
तू दिगदिगन्त को गुञ्जित कर, ब्रह्मास्मि अहम् ललकारों से ।।
जब मन-वीणा के तारों में, एक अनसुलझी उलझन होगी ।
कर्कश स्वर तब इस वीणा के, वाणी से जा मिलते होंगे,
तब सकल अतल मन सागर में, तूफानों सी हलचल होगी ।।
मानव शरीर के यन्त्र सभी, तब भलीभाँति चलते होंगे,
यन्त्रों की कार्यिक क्षमता भी, संदेह रहित उत्तम होगी ।
मानव जीवन की प्रगति हेतु, निर्मित मानक तत्पर होंगे,
लेकिन भीषण मनवेगों से, अध्यात्म प्रगति स्थिर होगी ।।
मत हो अशान्त, एकात्म रहो,
निज धारा में चुपचाप बहो,
इस कालकर्म को शान्त सहो,
बस शान्ति तत्व के साथ रहो ।
जीवन जितना ही सादा हो,
सुलझाव भी उतना होता है,
उलझन का कोई प्रश्न नहीं,
मन विचरण सीमित होता है ।
यदि मानव फिर भी उलझ गये, तो तोड़ व्यथा के तारों को,
जो पीड़ा है वह सत्य नहीं, तू छोड़ असत् व्यवहारों को ।
बढ़ स्वयं विचारों के पथ पर, मुख मोड़ वाह्य संसारों से,
तू दिगदिगन्त को गुञ्जित कर, ब्रह्मास्मि अहम् ललकारों से ।।
"ब्रह्मास्मि अहम् ललकारों से"सबको चुनौती दे डालो।
ReplyDeleteuljaan jevan ki
ReplyDeleteलेकिन भीषण मनवेगों से, अध्यात्म प्रगति स्थिर होगी ।।
ReplyDeleteअति सुन्दर
सुन्दर ........
ReplyDeleteकाव्य - धारा बहाये लिए जा रही है .
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