18.10.15

तुम समर्थ हो

यदि कष्टों की धार बहे अनियन्त्रित,
नष्ट करो तुम उस कारण का स्रोतस्थल ।
व्यर्थ कष्ट क्यों सहो,मनुज तुम श्रेष्ठ सबल हो,
प्रभुसत्ता स्थापित कर दो तुम विरोध में ।।

डरा कोई हो, पुरुष नहीं था,
पौरुष तो निर्भयता में है ।
मृत्यु कभी भी अन्त नहीं है,
भय जीवन का सतत व्यर्थ है ।।

हो कोई बलशाली, तुम भी आत्मबली हो,
हों नियमों के शास्त्र, तुम्हे लभ ज्ञानशस्त्र हैं ।
यदि समाज जीवन तेरा कुंठित करता हो,
तुम अपने ही नियम बनाओ, तुम समर्थ हो ।।

नहीं दीखती राह, बढ़ो तुम,
प्रथम कदम में झलके दृढ़ता ।
भाग्य तुम्हारा मित्र बनेगा,
शेष राह भी आप खुलेगी ।।

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश...

    ReplyDelete
  2. तुम अपने ही नियम बनाओ , तुम समर्थ हो ..... अच्छी सीख

    ReplyDelete
  3. आशावादी दृष्टिकोण , सुन्दर - रचना ।

    ReplyDelete
  4. शुभ लाभ ।Seetamni. blogspot. in

    ReplyDelete