25.10.15

उलझन

जीवन के इस समय सिन्धु में,  कुछ पल ऐसे आते होंगे,
जब मन-वीणा के तारों में,  एक अनसुलझी उलझन होगी ।
कर्कश स्वर तब इस वीणा के, वाणी से जा मिलते होंगे,
तब सकल अतल मन सागर में, तूफानों सी हलचल होगी ।।

मानव शरीर के यन्त्र सभी, तब भलीभाँति चलते होंगे,
यन्त्रों की कार्यिक क्षमता भी, संदेह रहित उत्तम होगी ।
मानव जीवन की प्रगति हेतु, निर्मित मानक तत्पर होंगे,
लेकिन भीषण मनवेगों से, अध्यात्म प्रगति स्थिर होगी ।।

मत हो अशान्त, एकात्म रहो,
निज धारा में चुपचाप बहो,
इस कालकर्म को शान्त सहो,
बस शान्ति तत्व के साथ रहो ।

जीवन जितना ही सादा हो,
सुलझाव भी उतना होता है,
उलझन का कोई प्रश्न नहीं,
मन विचरण सीमित होता है ।

यदि मानव फिर भी उलझ गये, तो तोड़ व्यथा के तारों को,
जो पीड़ा है वह सत्य नहीं, तू छोड़ असत्‌ व्यवहारों को ।
बढ़ स्वयं विचारों के पथ पर, मुख मोड़ वाह्य संसारों से,
तू दिगदिगन्त को गुञ्जित कर, ब्रह्मास्मि अहम्‌ ललकारों से ।।

18.10.15

तुम समर्थ हो

यदि कष्टों की धार बहे अनियन्त्रित,
नष्ट करो तुम उस कारण का स्रोतस्थल ।
व्यर्थ कष्ट क्यों सहो,मनुज तुम श्रेष्ठ सबल हो,
प्रभुसत्ता स्थापित कर दो तुम विरोध में ।।

डरा कोई हो, पुरुष नहीं था,
पौरुष तो निर्भयता में है ।
मृत्यु कभी भी अन्त नहीं है,
भय जीवन का सतत व्यर्थ है ।।

हो कोई बलशाली, तुम भी आत्मबली हो,
हों नियमों के शास्त्र, तुम्हे लभ ज्ञानशस्त्र हैं ।
यदि समाज जीवन तेरा कुंठित करता हो,
तुम अपने ही नियम बनाओ, तुम समर्थ हो ।।

नहीं दीखती राह, बढ़ो तुम,
प्रथम कदम में झलके दृढ़ता ।
भाग्य तुम्हारा मित्र बनेगा,
शेष राह भी आप खुलेगी ।।

11.10.15

संवाद

पूछती थी प्रश्न यदि, उत्तर नहीं मैं दे सका तो,
भूलती थी प्रश्न दुष्कर, नयी बातें बोलती थी ।
किन्तु अब तुम पूछती हो प्रश्न जो उत्तर रहित हैं,
शान्त हूँ मैं और तुमको उत्तरों की है प्रतीक्षा ।
राह जिसमें चल रहा मैं, नहीं दर्शन दे सकेगी,
तुम्हे पर राहें अनेकों, आत्म के आलोक से रत ।
किन्तु हृद के स्वार्थ से उपजी हुयी एक प्रार्थना है,
नहीं उत्तर दे सकूँ पर, पूछती तुम प्रश्न रहना ।
कृपा करना, प्रेम का संवाद न अवसान पाये,
रहे उत्तर की प्रतीक्षा, जीवनी यदि बीत जाये ।

4.10.15

नयन प्यारे

होंठ कपते लाज मारे, किन्तु आँखों के सहारे,
पूछती कुछ प्रश्न और अध्याय कहती प्रेम के ।।१।।

हठी मन के भाव सारे, सौंप बैठे बिन विचारे,
हृदय के सब स्वप्न तेरी झील आँखों में दिखें ।।२।।

समूचा अस्तित्व हारे, पा तुम्हारे नयन प्यारे,
द्रवित हूँ, उन्माद में मन, बहा जाता बिन रुके ।।३।।