6.9.15

लोग हमारे जीवन का

लोग हमारे जीवन का आकार बनाने बैठे हैं ।
अरबी घोड़ों को टट्टू की चाल सिखाने बैठे हैं ।

जिनके अपने जीवन बीते छिछले जल के पोखर में,
सागर की गहराई का अनुमान लगाने बैठे हैं ।

मना किया किसने, अनुभव का लाभ प्राप्त हो आगत को,
जूझ रही जो लौ, उसका उपहास उड़ाने बैठे हैं ।

स्वप्न-उड़ानों हेतु तुम्हे प्रस्तुत करना था मुक्त गगन,
उड़ ना पायें पञ्छी, इस पर दाँव लगाने बैठे हैं ।

बहुधा बाधा बने राह की, अहं अधिक था, गति कम थी,
उस पर भी खुद को महती उपमान बनाने बैठे हैं ।

है साहस जिनको लड़ने का, पर विडम्बना, उनको भी,
कर्मक्षेत्र से भागे, गीता ज्ञान बताने बैठे हैं ।

चिन्तन जिनका चाटुकारिता, टिके रहो का मूल मन्त्र ले,
नयी पौध को आज लोक व्यवहार सिखाने बैठे हैं ।

सजा दिये हैं आडम्बरयुत, क्रम हैं और अधिक उपक्रम,
इसे व्यवस्था कहते, तृण को ताड़ बताने बैठे हैं ।

8 comments:

  1. जिनके अपने जीवन बीते छिछले जल के पोखर में,
    सागर की गहराई का अनुमान लगाने बैठे हैं ।

    बहुत खूब लिखा है !

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  2. दिनांक 07/09/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
    चर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
    आप भी आयेगा....
    धन्यवाद...

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  3. सब ओर झूठ और प्रपंच व्याप्त है।

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  4. यथार्थ व्यक्त करती रचना

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  5. G azab!!

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  6. G azab!!

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  7. G azab!!

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