27.9.15

वाक्य गूँजता

हर रात के बाद,
बरसात के बाद,
दिन उभरेगा,
तिमिर छटेगा,
फूल रंग में इठलायेंगे,
कर्षण पूरा, मन भायेंगे,
पैर बँधे ढेरों झंझावत,
पग टूटेंगे, रहे रुद्ध पथ,
बरसायेंगे शब्द क्रूरतम,
बहुविधि उखड़ेगा जीवनक्रम,
दिन की भेंट निगल जाने को,
संभावित गति हथियाने को,
यत्न पूर्णतः कर डालेंगे,
संशय भरसक भर डालेंगे,
खींच खींच कर उन बातों में,
अँधियारी काली रातों में,
ले जाने को फिर आयेंगे,
रह रह तुमको उकसायेंगे।

निर्मम हो एक साँस पूर्ण सी भर लो मन में,
जीवन का आवेश चढ़ाकर, भर लो तन में,
गूँजे भर भर, सतत एक स्वर दिग दिगन्त में,
नहीं दैन्यता और पलायन, इस जीवन में ।

20.9.15

जीना ही होगा

तुझे जीना ही होगा

अनुकूल बात, हो न हो,
कार्यान्त रात, हो न हो,
न्यूनतम व्याप्त, विषयगत आस , हो न हो।

हृदय-तम अब हटाना है,
उन्हें यह सच बताना है,
नहीं उनसे विश्व पालित,
यहाँ सबका ठिकाना है।

नहीं अमृत का कलश है,
प्राप्ति में श्वेदान्त रस है,
उपेक्षा का अर्क, पीना ही होगा,
तुझे जीना ही होगा।

13.9.15

पंथ प्रथम है

आँखों से क्यों खींच रही हो,
आकर्षण-तरु सींच रही हो,
नहीं शक्ति, आमन्त्रण तज दूँ,
उद्वेलित हूँ, नहीं सहज हूँ,
साँसों का आवेग विषम है,
आशंकित हूँ, पंथ प्रथम है ।

प्रेम तुम्हारा, आधी रचना,
आधा जगना, आधा सपना,
नहीं सूझता है कुछ मन को,
कैसे रोकूँ आज समय को,
सुख, व्याकुलता मिश्रित क्रम है,
आशंकित हूँ, पंथ प्रथम है ।

6.9.15

लोग हमारे जीवन का

लोग हमारे जीवन का आकार बनाने बैठे हैं ।
अरबी घोड़ों को टट्टू की चाल सिखाने बैठे हैं ।

जिनके अपने जीवन बीते छिछले जल के पोखर में,
सागर की गहराई का अनुमान लगाने बैठे हैं ।

मना किया किसने, अनुभव का लाभ प्राप्त हो आगत को,
जूझ रही जो लौ, उसका उपहास उड़ाने बैठे हैं ।

स्वप्न-उड़ानों हेतु तुम्हे प्रस्तुत करना था मुक्त गगन,
उड़ ना पायें पञ्छी, इस पर दाँव लगाने बैठे हैं ।

बहुधा बाधा बने राह की, अहं अधिक था, गति कम थी,
उस पर भी खुद को महती उपमान बनाने बैठे हैं ।

है साहस जिनको लड़ने का, पर विडम्बना, उनको भी,
कर्मक्षेत्र से भागे, गीता ज्ञान बताने बैठे हैं ।

चिन्तन जिनका चाटुकारिता, टिके रहो का मूल मन्त्र ले,
नयी पौध को आज लोक व्यवहार सिखाने बैठे हैं ।

सजा दिये हैं आडम्बरयुत, क्रम हैं और अधिक उपक्रम,
इसे व्यवस्था कहते, तृण को ताड़ बताने बैठे हैं ।