समय के सोपान पर जब, एक निश्चित जगह आकर,
बुद्धि विकसित, तथ्य दर्शित स्वयं ही होने लगे ।
निज करों में जीवनी की बागडोरें, मैं सम्हाले,
बढ़ चला, जब लोग मुझ पर नियन्त्रण खोने लगे ।।१।।
एक पुस्तक सी खुली थी, कभी जो दुनिया छिपी थी,
जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।
खोल आँखें, सामने तो, दीखती राहें अनेकों,
दृश्य मुझको रोकते थे, खींचते थे, सोहते थे ।।२।।
मनस में आनन्द की मदमस्त कोयल कूजती थी,
सकल जीवन के सुहाने स्वप्न दिन में दीखते थे ।
खड़ा मैं स्वच्छन्दता के भाव में कुछ और गर्वित,
हर तरफ अधिकार के विस्तार ही दिखने लगे थे ।।३।।
अनुभवों के कोष को मैं व्यग्र हो भरने लगा था ।
और अपने निर्णयों को स्वयं ही करने लगा था ।।
(वर्षों पहले लिखी थी, वह भाव पता नहीं, कहाँ चला गया?)
बुद्धि विकसित, तथ्य दर्शित स्वयं ही होने लगे ।
निज करों में जीवनी की बागडोरें, मैं सम्हाले,
बढ़ चला, जब लोग मुझ पर नियन्त्रण खोने लगे ।।१।।
एक पुस्तक सी खुली थी, कभी जो दुनिया छिपी थी,
जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।
खोल आँखें, सामने तो, दीखती राहें अनेकों,
दृश्य मुझको रोकते थे, खींचते थे, सोहते थे ।।२।।
मनस में आनन्द की मदमस्त कोयल कूजती थी,
सकल जीवन के सुहाने स्वप्न दिन में दीखते थे ।
खड़ा मैं स्वच्छन्दता के भाव में कुछ और गर्वित,
हर तरफ अधिकार के विस्तार ही दिखने लगे थे ।।३।।
अनुभवों के कोष को मैं व्यग्र हो भरने लगा था ।
और अपने निर्णयों को स्वयं ही करने लगा था ।।
(वर्षों पहले लिखी थी, वह भाव पता नहीं, कहाँ चला गया?)
दिनांक 27/07/2015 को आप की इस रचना का लिंक होगा...
ReplyDeleteचर्चा मंच[कुलदीप ठाकुर द्वारा प्रस्तुत चर्चा] पर...
आप भी आयेगा....
बहुत बढ़िया ! आपका नया आर्टिकल बहुत अच्छा लगा www.gyanipandit.com की और से शुभकामनाये !
ReplyDeleteबढिया है...आज भी सामयिक है सो भाव यथावत हैं.
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसही कहा आपने स्वयं ही पांडे जी -- भाव अस्पष्ट एवं अति-दूरस्थ हैं ----और बाँटे जोहते थे , ये बाँटें...क्या है ।
ReplyDelete"जहाँ व्यक्तित्वों भरे अध्याय बाँटे जोहते थे ।" बाँटे से क्या अभिप्राय है? यदि अभिप्राय मार्ग से है तो सिर्फ वाट शब्द का प्रय़ोग और अध्याय के बाद (,) अर्द्धविराम की आवश्यकता होगी।
ReplyDeleteभावों से भरी, आज के संदर्भ में भी सही है
ReplyDeleteसामयिक / सुन्दर
ReplyDelete< a href = "http://www.viralfactsindia.com"> viralFactsIndia < / a>
ReplyDeleteआज के परिवेश में ये कविता बिलकुल फिट बैठती है| सामयिक मनोस्थिति को आपने कविता में अच्छे से पिरोया
निश्चय ही किसी भी सफल व्यक्ति का आधार है, बस मन में विश्वास हो की बस मुझे करना है
ReplyDeleteआपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा,आपकी रचना बहुत अच्छी और यहाँ आकर मुझे एक अच्छे ब्लॉग को फॉलो करने का अवसर मिला. मैं भी ब्लॉग लिखता हूँ, और हमेशा अच्छा लिखने की कोशिश करता हूँ. कृपया मेरे ब्लॉग http://www.fly2catcher.com पर भी आये और मेरा मार्गदर्शन करें
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