हरे रंग के शुभ्र वस्त्र से बना हुआ धरती का आँचल,
सकल मेघ हैं दिखा रहे आनन्द रूप निज बदल बदल ।
खड़े हुये सब वृक्ष शान से, देख रहे यह रूप निरन्तर,
छोटे छोटे पंख हिला खग, भ्रमण कर रहे शाख शाख पर ।।१।।
अन्तर में जीवन-दीप लिये, जा मिली बूँद सोंधी मिट्टी से,
छोटे छोटे हाथ खोल तृण, बुझा रहे हैं प्यास चैन से ।
अपने मद में नर्तन करती, नद भूल गयी सब सुध जग की,
है शान्त, धीर, गम्भीर धराधर, खुश लख क्रीड़ा प्रकृति-पुत्र की ।।२।।
स्थिर तडाग भी वर्षा में, लगता यूँ जैसे काँप रहा है,
टपटप टिपटिप कर स्वर-निनाद, जय वर्षा देवी जाप रहा है ।
कर किरण परावर्तित, छिन्नित, अपनी मस्ती में खेल रहा है,
सारे प्रतिबिम्बित अंगों को, अपने अन्तर में देख रहा है ।।३।।
बह रही शान्त शीतल समीर, पक्षी कलरव कर घूम रहें हैं,
प्रकृति अंग मानो सब मिलकर, सुख मदिरा पी झूम रहे हैं ।
बूँदों का झीना वसन ओढ़कर, प्रकृति शुभ्र सौन्दर्य दिखाती,
मानो घूंघट को ओट खड़ी, नववधू देख पति को शर्माती ।।४।।
छोटे पौधे भी उचक उचक, सब दृश्य देखने को अधीर,
हिलडुल मानो यह पूछ रहे, मौसम क्या आया हे समीर ।
बोला समीर शीतलता से, यह ऋतु अलबेली बूँदों की,
यह सकल प्रकृति के जीवन की, फल, फूस, रसों, मकरन्दों की ।।५।।
तुम इसी काल में जल पाकर, धीरे धीरे विकसित होते,
आकार ग्रहण कर यौवन में, पा जीवन रस शस्यित होते ।
आनन्द-अर्पिता है यह ऋतु, यह सकल विश्व जीवन-दात्री,
यह सर्व-रक्षिता, कर्म मार्ग पर, अखिल सृष्टि पर कृपात्री ।।६।।
सकल मेघ हैं दिखा रहे आनन्द रूप निज बदल बदल ।
खड़े हुये सब वृक्ष शान से, देख रहे यह रूप निरन्तर,
छोटे छोटे पंख हिला खग, भ्रमण कर रहे शाख शाख पर ।।१।।
अन्तर में जीवन-दीप लिये, जा मिली बूँद सोंधी मिट्टी से,
छोटे छोटे हाथ खोल तृण, बुझा रहे हैं प्यास चैन से ।
अपने मद में नर्तन करती, नद भूल गयी सब सुध जग की,
है शान्त, धीर, गम्भीर धराधर, खुश लख क्रीड़ा प्रकृति-पुत्र की ।।२।।
स्थिर तडाग भी वर्षा में, लगता यूँ जैसे काँप रहा है,
टपटप टिपटिप कर स्वर-निनाद, जय वर्षा देवी जाप रहा है ।
कर किरण परावर्तित, छिन्नित, अपनी मस्ती में खेल रहा है,
सारे प्रतिबिम्बित अंगों को, अपने अन्तर में देख रहा है ।।३।।
बह रही शान्त शीतल समीर, पक्षी कलरव कर घूम रहें हैं,
प्रकृति अंग मानो सब मिलकर, सुख मदिरा पी झूम रहे हैं ।
बूँदों का झीना वसन ओढ़कर, प्रकृति शुभ्र सौन्दर्य दिखाती,
मानो घूंघट को ओट खड़ी, नववधू देख पति को शर्माती ।।४।।
छोटे पौधे भी उचक उचक, सब दृश्य देखने को अधीर,
हिलडुल मानो यह पूछ रहे, मौसम क्या आया हे समीर ।
बोला समीर शीतलता से, यह ऋतु अलबेली बूँदों की,
यह सकल प्रकृति के जीवन की, फल, फूस, रसों, मकरन्दों की ।।५।।
तुम इसी काल में जल पाकर, धीरे धीरे विकसित होते,
आकार ग्रहण कर यौवन में, पा जीवन रस शस्यित होते ।
आनन्द-अर्पिता है यह ऋतु, यह सकल विश्व जीवन-दात्री,
यह सर्व-रक्षिता, कर्म मार्ग पर, अखिल सृष्टि पर कृपात्री ।।६।।
बहुत ही सुन्दर वर्षा गीत.....
ReplyDeleteबाप रे! इस धूप में यह सृजन!!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-07-2015) को "दुश्मनी को भूल कर रिश्ते बनाना सीखिए" (चर्चा अंक- 2028) (चर्चा अंक- 2028) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
मनोरम दृश्य की प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुंदर---शब्दों के हीरों से जडा वर्षा गीत.
ReplyDeleteटप टप टप आते शब्द नाचते बूंदों जैसे,
ReplyDeleteसर सर सर बारिश सी आई है कविता।
वर्षा ॠतु का सुंदर गीत।
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